मुंशी जी अभी भी प्रासंगिक दिखते हैं तो ये हमारी व्यवस्था की असफलता का ही सूचक हो सकता है?

मुंशी जी अभी भी प्रासंगिक दिखते हैं तो ये हमारी व्यवस्था की असफलता का ही सूचक हो सकता है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow

समावेशी और न्यायपूर्ण व्यवस्था का सृजन ही हो सकती है कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी को सच्ची श्रद्धांजलि

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती पर विशेष आलेख
✍️ गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कलम के सिपाही, कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की लेखनी ने कभी कल्पनाओं की उन्मुक्त उड़ान नहीं भरी, न कभी रूमानी अहसास में बंधी, न ही कभी तिलिस्मी रहस्य में खोई। उनकी लेखनी ने समाज के यथार्थ स्वरूप को उजागर किया, समाज की विसंगतियों की बानगी को बयां किया, शोषण की पीड़ा को महसूस कराया। इसलिए प्रेमचंद की रचनाएं कालजयी हो गई। वर्तमान में तकनीक के बदौलत समाज में बदलाव की गति तीव्र हो चुकी है फिर भी समाज की विसंगतियां यथावत है।

जब तक समाज में शोषण और अत्याचार की बानगी कायम रहेगी, तब तक मुंशी प्रेमचंद के साहित्य की प्रासंगिकता भी कायम रहेगी। किसानों, महिलाओं, दलितों के शोषण और अत्याचार के संदर्भ प्रेमचंद के कथानकों की याद दिलाते रहेंगे। पर बड़ा सवाल यह भी उठता है कि यदि भारत के स्वतंत्र होने के इतने सालों बाद भी यदि मुंशी जी की लेखनी, जिसने उपनिवेशवादी शोषण को बयां किया, आज भी प्रासंगिक दिखती है तो क्या यह हमारे सिस्टम की असफलता नहीं है?

मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में समाज के यथार्थ स्वरूप की एक सटीक लकीर खींची। उन्होंने समाज की हर गतिविधि के स्याह पक्ष को रेखांकित किया। समाज की विसंगतियों को उजागर कर नई चेतना का संचार किया। उन्होंने ‘सेवासदन’ में उस महंत रामदास के चरित्र को उजागर किया, जो श्री बांके बिहारी के नाम पर समाज का शोषण करता है।

उन्होंने ‘ प्रेमाश्रम’ में उस दारोगा दयाशंकर के स्वरूप को उजागर किया, जो झूठा मुकदमा और अभियोग स्थापित कर धांधली मचाता है। उन्होंने ‘ गोदान’ में उस होरी के चरित्र को जीवंत किया, जो अपनी छोटी छोटी आवश्यकताओं के लिए तिल तिल कर मरता हैं। उन्होंने ‘ कफन’ में घीशू और माधव को सामने लाया, जिनकी शर्मनाक कारगुजारी भी पीड़ाजनक होती है। उन्होंने ‘कर्मभूमि’ में उस सूदखोर, मुनाफाखोर समरकांत को सामने लाया, जो मानवता की दहलीज लांघ कर भी कर्ज वसूल लेता है।

उन्होंने ‘ गबन’ में उस युवक रामनाथ को सामने लाया, जो मिथ्या प्रदर्शन के लिए गबन करने से नहीं हिचकता है। उन्होंने ‘ रंगभूमि’ में उस जनसेवक अभाव को सामने लाया, जो अपने स्वार्थ को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। उनके ‘ प्रेमाश्रम’ का गौस खां किसानों पर जुल्म और कहर ढाने में कहां पीछे हटता दिखाई देता है? इसलिए प्रेमचंद की लेखनी ने समाज की हर विसंगति को शब्दों में पिरोया और जनमानस को उद्वेलित किया।

आज हम तकनीकी विकास के दावे जरूर कर रहे हैं लेकिन समाज की विसंगतियां यथावत हैं। महिलाओं पर अत्याचार का सिलसिला बदस्तूर कायम है। किसानों के शोषण की बानगी यथावत है। दलितों के शोषण की दास्तां जस की तस है। फिर बात भूमंडलीकरण की हो या डिजिटल क्रांति की। हम सिर्फ कल्पनाओं की उड़ान भरते दिख रहे हैं और जब सामना हकीकत से होता हैं तो फिर हम मौन हो जाते हैं। लेकिन उपनिवेशवाद की तमाम बंदिशों के बावजूद प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से यथार्थ को सामने लाया। चेतना को झकझोरा और समाज को एक नया संदेश दिया।

परंतु तथ्य यह भी है कि आज के तकनीकी दौर में भी प्रेमचंद की रचनाएं अगर प्रासंगिक दिख रही है तो इसका मतलब यह भी है कि हम असफल रहे हैं। सवाल हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर उठता है? सवाल हमारी प्रशासनिक प्रयासों पर उठता है? सवाल हमारी सामाजिक संवेदना पर उठता है? उठने वाले सभी सवाल शोषण, अन्याय, अत्याचार के संदर्भों से जुड़े दिखते हैं। इन सवालों के जवाब की प्रतीक्षा समय जरूर कर रहा है।

समय में बदलाव की गति बेहद तीव्र हो चली है। तकनीकी प्रगति के कारण जो बदलाव पहले दस से पंद्रह सालों में होते दिखते थे, वे बदलाव अब दो से तीन सालों में होते दिख रहे हैं। लेकिन यह बदलाव विशेषतौर पर जीवन शैली के संदर्भ में ही दिखाई देता है। जीवन से जुड़े मूलभूत आयामों में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता। यहीं कारण है कि मुंशी प्रेमचंद का यथार्थ औपनिवेशिक काल में भी प्रकट था तो आज के लोकतांत्रिक परिवेश में भी मुंशी प्रेमचंद द्वारा चिन्हित यथार्थ मसलन महिला उत्पीडन, दलित दमन, भ्रष्ट व्यवस्था के दर्शन होते हैं।

समय का दौर समाज को मुंशी प्रेमचंद की कहानियों दो बैलों की कहानी, नमक का दारोगा, पंच परमेश्वर आदि से बहुत कुछ सीखने का संदेश भी दे रहा है।आज समाज में तमाम विसंगतियां मौजूद है तो समस्याओं के समाधान पर भी मुंशी प्रेमचंद ध्यान देते हैं और बताते हैं कि संवेदनशीलता, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रति विशेष आग्रह, निष्पक्षता और पारदर्शिता का कलेवर समाज को बहुत कुछ सकारात्मक प्रतिफल भी दे रहा है। पूर्वाग्रह और गलत परंपराओं ने समाज का कभी हित नहीं किया। समाज के यथार्थ तत्वों को महसूस कर शोषण, अत्याचार से मुक्त समावेशी समाज की परिकल्पना को साकार होते मुंशी जी देखना चाहते थे। समावेशन से उनका आशय समाज के सभी व्यक्तियों के कल्याण से ही था। शोषण के हर आयाम से मुक्ति का था।

मुंशी प्रेमचन्द दो बैलों हीरा और मोती की कहानी से समाज में एकता के महत्व को रेखांकित करते दिखते हैं। निश्चित तौर पर आज का समाज विघटन की तरफ अग्रसर दिखाई देता है। सबल राष्ट्र के लिए एक एकीकृत और परस्पर जुड़ा समाज बेहद आवश्यक तथ्य होता है। अफगानिस्तान, यूक्रेन, श्रीलंका की घटनाएं राष्ट्र तत्व के महत्व को बताती दिखती है। देश में सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने के लिए भी तमाम जतन हो रहे हैं। इस संदर्भ में मुंशी प्रेमचंद का समाज में एकता का संदेश बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। व्यक्ति का स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रति आग्रह भी बेहद जरूरी होता है।

भारत में भ्रष्टाचार एक गंभीर बीमारी रही है। समय बदला, तकनीक बदले परंतु भ्रष्टाचार अभी भी हमारे देश को खोखला कर रहा है। ‘ नमक का दारोगा’ कहानी के माध्यम से मुंशी प्रेमचंद ने समाज में बैठे भ्रष्ट तत्वों की तरफ संकेत करते हुए ईमानदारी के स्वाभिमान को सुप्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। आज के दौर में भी भ्रष्टाचार विकास की बड़ी चुनौती बनती दिखाई दे रही है। जनकल्याणकारी योजनाओं को अमल लाने में भ्रष्टाचार एक बड़ी बाधा है। जगह जगह पंडित आलोपदीन अपना खूंटा गाड़े बैठे हैं। ऐसे में समाज में मुंशी प्रेमचंद का यथार्थ अपना अस्तित्व बनाए दिखता है, जो समाज के सभी आयामों पर सवाल खड़े करता है? ईमानदारी और नैतिकता का भी विशेष महत्व बताकर मुंशी जी समाज को शुचिता का संदेश भी दे रहे हैं।

समाज में न्याय की सुलभता समाज की जीवंतता की प्रतीक होती है। हर मामले में पारदर्शिता और निष्पक्षता ही न्याय की गारंटी हो सकती है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी पंच परमेश्वर के माध्यम से जब पंचों में ईश्वरीय तत्व का समायोजन करते हैं तो वे निष्पक्षता को विशेष तौर पर प्रतिष्ठित करते हैं। निष्पक्षता और पारदर्शिता ही समावेशन के आधार को मजबूत कर सकता है।

बेहतर तो यह होता कि हमारी राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक व्यवस्था मुंशी प्रेमचंद द्वारा चिन्हित विसंगतियों के समूल उन्मूलन का प्रयास करती।
आज भी समाज में शोषण, भेदभाव, अत्याचार, अन्याय किसी न किसी रूप में मौजूद है जो हमारे तकनीकी और आर्थिक विकास के दावे के खोखलापन को उजागर कर रहा है। समन्वित प्रयास, समावेशी सोच, संवेदनशील चेतना, न्यायपूर्ण और सकारात्मक प्रयास ही समाज की एक नई तस्वीर गढ़ सकते हैं, जो मुंशी प्रेमचंद के लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।

जयंती पर शत् शत् नमन कलम के जादूगर

(इनपुट सहयोग के लिए श्री पुष्पेंद्र पाठक का आभार)

Leave a Reply

error: Content is protected !!