एलोपैथी बनाम आयुर्वेद विवाद खड़ा करने से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एलोपैथी और आयुर्वेद को लेकर पिछले कुछ दिनों से देश में जंग छिड़ी हुई है। आईएमए और बाबा रामदेव की आपसी बयानबाजी से कोविड की वर्तमान परिस्थितियों में आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा होगा इस विषय में सोचे बिना दोनों में विवाद जारी है। हालांकि बाबा रामदेव द्वारा अपना बयान वापस ले लिया गया है लेकिन फिर भी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बाबा पर एक हजार करोड़ रुपए की मानहानि के दावे के साथ न्यायालय पहुंच गया है। इतना ही नहीं दोनों के बीच का विवाद देशद्रोह के आरोपों तक पहुंच गया है।

एक तरफ रामदेव को कॉरपोरेट बाबा और व्यापारी बाबा जैसे विशेषण दिए गए तो आईएमए पर पंखा, तेल, साबुन, पेंट और बल्ब जैसी वस्तुओं को प्रमाणित कर उनका प्रचार करने के आरोप लगे। भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने तो यहाँ तक कहा कि जिन विदेशी कंपनियों से पैसा लेकर आईएमए सर्टिफिकेट बांट रहा था उसकी दुकान बाबा के कारण ठप्प हो रही है। कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होने लगा कि पूरे के पूरे विवाद का कारण व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा है।

लेकिन ऐसे दौर में जब हमारा देश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व ही बेहद जटिल एवं संवेदनशील परिस्थितियों से गुज़र रहा है, उस समय चिकित्सा विज्ञान की दो पद्धतियों का खुद को बेहतर बताने की होड़ में एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए आरोप प्रत्यारोप का यह घटनाक्रम वाकई में दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर गंभीरता से बात की जाए तो आयुर्वेद और एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान की दो अलग-अलग ऐसी पद्धतियाँ हैं जिनका रोग अथवा रोगी के प्रति प्रारंभिक दृष्टिकोण ही नहीं अपितु उसके इलाज और बीमारी के डायग्नोसिस की भी अलग प्रक्रिया है। देखा जाए तो रोगी को स्वस्थ्य करने के लक्ष्य के अतिरिक्त दोनों में कोई समानता ही नहीं है।

एलोपैथी की बात करें तो 19वीं सदी में यह यूरोप और नार्थ अमेरिका में आस्तित्व में आई थी। यह सर्वविदित है कि आज की तारीख में एलोपैथी सबसे वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है। लगातार रिसर्च और अनुसंधान तथा अत्याधुनिक तकनीक के दम पर यह चिकित्सा विज्ञान रोज प्रगति कर रहा है। आज शरीर का कोई अंग खराब हो जाए तो सफलता पूर्वक उनका प्रत्यारोपण किया जा सकता है, स्टेम सेल थेरेपी से कैंसर जैसी कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है,

टीबी, पोलियो, काली खाँसी, चेचक जैसे अनेक जानलेवा रोगों से बचाव के लिए वैक्सीन का निर्माण भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की ही देन है। बीमारी का पता लगाने के लिए विभिन्न प्रकार की जांचों में आधुनिक तकनीक का प्रयोग में भी एलोपैथी आयुर्वेद से कहीं आगे है। इतना ही नहीं जब बात लाइफ सेविंग ड्रग्स या फिर दुर्घटना की स्थिति में अथवा अत्यधिक रक्तस्राव जैसी किसी इमरजेंसी परिस्थितियों की आती है तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का कोई तोड़ नहीं होता है।

वहीं आयुर्वेद की अगर बात करें तो इसका इतिहास कुछ सौ दो सौ साल पुराना नहीं बल्कि हज़ारों साल पुराना है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इसका हज़ारों साल पुराना होना इसकी सबसे बड़ी ताकत होनी चाहिए थी लेकिन आज यही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। कहना गलत नहीं होगा कि भारत की इस प्राचीन चिकित्सा पद्धति पर रिसर्च और अनुसंधान के आधार पर इसमें समय के साथ जो बदलाव होने चाहिए थे इस पर कार्य करना तो दूर की बात है, उसके बारे में सोचा तक नहीं गया।

दरअसल आयुर्वेद जोकि भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है केवल अर्थर्ववेद का ही अंश नहीं है बल्कि भारत के सनातन इतिहास का भी अंग है। सनातन इतिहास में आयुर्वेद के द्वारा चिकित्सा का उल्लेख कभी रामायण में लक्ष्मण को मूर्छा से बाहर लाने के लिए संजीवनी बूटी के उपयोग के रूप में मिलता है तो कभी महाभारत से लेकर हमारे देश के अनेकों पौराणिक साहित्य के विवरणों में मिलता है। इतिहास की अगर बात करें तो 300 बीसी यानी आज से 2300 साल पहले भारत में आचार्य चरक ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को उसकी पहचान दी थी, यही कारण है कि उन्हें फादर ऑफ इंडियन मेडिसिन भी कहा जाता है।

और चरक से भी 500 साल पहले 800 बीसी में यानी आज से 2800 साल पहले आचार्य सुश्रुत को भारत में शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी पर पुस्तक सुश्रुतसंहिता की रचना की थी और इन्हें भारत ही नहीं विश्व भर में फादर ऑफ सर्जरी के साथ-साथ फादर ऑफ प्लास्टिक सर्जरी भी कहा जाता है। आज भी प्लास्टिक सर्जरी पर सुश्रुत संहिता को ही विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया जाता है। कारण कि सुश्रुत संहिता में जिन शल्य चिकित्साओं का वर्णन किया गया है उनमें प्लास्टिक सर्जरी, प्रसूति एवं स्त्री रोगों से जुड़ी शल्य चिकित्सा, नासिका सन्धान, मोतियाबिंद की सर्जरी, दंत चिकित्सा से लेकर जलने से होने वाले घावों की चिकित्सा ही नहीं 125 प्रकार के शल्य क्रिया में प्रयोग होने वाले यंत्रों यानी मेडिकल इंस्ट्रूमेंटस का विस्तृत वर्णन है।

देखा जाए तो दोनों ही चिकित्सा पद्धतियाँ मानव जीवन के कल्याण के लिए आस्तित्व में आईं हैं। एक कल का विज्ञान है तो एक आज का। लेकिन इसके साथ-साथ दोनों की ही अपनी सीमाएं भी हैं। ऐलोपैथी की बात करें तो उसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वो रोग का इलाज करती है रोगी का नहीं। वो लक्षणों का इलाज करती है बीमारी का नहीं। जबकि आयुर्वेद में रोग का नहीं रोगी का इलाज किया जाता है और लक्षणों के आधार पर बीमारी की जड़ का पता लगाकर उसका इलाज किया जाता है।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति में बुखार के हर रोगी के लिए एक ही प्रकार की गोली देने का प्रावधान है जबकि आयुर्वेद में रोगी की प्रकृति के आधार पर बुखार का इलाज किया जाता है। क्योंकि आयुर्वेद में वात पित्त और कफ के आधार पर रोगी की प्रकृति का पता नाड़ी विज्ञान से लगाकर रोगी की चिकित्सा की जाती है जिसमें केवल औषधियों का ही प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि आहार विहार और आध्यात्म का भी सहारा लिया जाता है। और यही दोनों चिकित्सा पद्धतियों में सबसे बड़ा अंतर है।

इसी प्रकार आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के आधार पर अगर एक स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा की बात करें, तो इसके अनुसार किसी प्रकार की बीमारी का न होना ही व्यक्ति का स्वस्थ होना है। जबकि आयुर्वेद में अगर स्वास्थ्य की परिभाषा की बात करें तो उसका बहुत ही वृहद विवरण दिया गया है।

समदोषः समागनिश्च समधातुमलक्रियः।

प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।

यानी जिस मनुष्य के तीनों दोष वात पित्त कफ, उसकी अग्नि औऱ सप्त धातु, सम अवस्था में हैं, मल मूत्र आदि क्रिया ठीक होती हैं, जिसका मन इन्द्रियाँ और आत्मा प्रसन्न हैं, वो मनुष्य स्वस्थ हैं। यानी आयुर्वेद में स्वास्थ्य मात्र शरीर में किसी बीमारी का न होना नहीं उससे कहीं बढ़कर है। स्वास्थ्य उसके शरीर के साथ-साथ उसके मन और उसकी आत्मा की प्रसन्न्ता से जुड़ा विषय है। यही कारण है कि जब कोई बीमारी हमारे शरीर में बाहर से आती है जिसे हम इंफेक्शन कहते हैं तो उसके लिए एलोपैथी से बेहतर कोई विकल्प नहीं है।

बाहरी इंफेक्शन से बचना है तो वैक्सीन और अगर इंफेक्शन हो जाए तो एंटीबायोटिक दवाएँ। लेकिन जब कोई बीमारी हमारे शरीर के भीतर से उपजती है जैसे डायबेटिस, ब्लड प्रेशर, थाइरोइड या फिर सिरदर्द जो कि हमारी शारीरिक गतिविधियों में गड़बड़ी के कारण होती हैं, जिसे हम लाइफस्टाइल जनरेटेड डिसीज़ भी कहते हैं तो ऐलोपैथी निरुत्तर हो जाती है वो इन्हें नियंत्रित तो कर सकती है लेकिन इनका समूल विनाश नही।

अतः यह समझना आवश्यक है कि चिकित्सा विज्ञान चाहे जो भी हो उसका एकमात्र लक्ष्य मानव जाति का कल्याण है और चिकित्सक का कर्तव्य रोगी को रोग की पीड़ा से मुक्त करना। तो समय के साथ आगे बढ़कर दोनों पद्धतियां अपनी अपनी कमियों को स्वीकार करें और एक दूसरे की शक्तियों को अपनाकर मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें। यदि ऐसा हुआ तो एक बार फिर भारत का चिकित्सा जगत विश्व के लिए पथप्रदर्शक बन सकता है।

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