क्या तालिबान से बातचीत करने वाला है भारत,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ये ईसा पूर्व 330 की बात है तुर्की, सीरिया, लेबनन, इजरायल, मिस्त्र, इराक और ईरान जीत चुका सिंकदर अपनी सेना के साथ अफगानिस्तान की ओर कदम बढ़ाया। उसका अगला हिंदुस्तान था। लेकिन हिंदु कुश पार करने में तीर बरस लग गए और वो भी एक देश की वजह से। वो मुल्क था अफगानिस्तान जहां के कबीलों से सिंकदर का मुकाबला हुआ। कुछ लोगों का मानना है कि सिंकदर के हिंदुस्तान न जीत पाने की एक वजह ये भी थी। अफगानिस्तान की सेना ने उसे खूब थका दिया था। अफगानिस्तान हमेशा से अपने ऊपर हमला करने वालों को खुद में उलझाए रखा है।

चाहे बात 330 ईसा पूर्व की हो या वर्तमान दौर की। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले एशिया का ह्रदय कहे जाने वाले अफगानिस्तान को इतिहासकारों ने साम्राज्यों के कब्रगाह की संज्ञा दी है। चाहे वो 19वीं सदी में ब्रिटिश राज हो, 20वीं सदी में सोवियत संघ हो या 21वीं सदी में अमेरिका, किसी भी विदेशी महाशक्ति को आज तक अफगानिस्तान में उस तरह की राजनीतिक सफलता नहीं मिल सकी, जिसकी मंशा से वो अपनी सैन्य शक्ति के साथ अफगानिस्तान में घुसे।

तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान में उदय

तालिबान का उदय 90 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। उस वक़्त देश भयंकर गृह युद्ध की चपेट में था। तमाम ताक़तवर कमांडरों की अपनी-अपनी सेनाएं थीं। सब देश की सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे थे। पशतूनों के नेतृत्व में उभरा तालिबान अफगानिस्तान के परिदृश्य पर 1994 में सामने आया। माना जाता है कि तालेबान सबसे पहले धार्मिक आयोजनों या मदरसों के ज़रिए उभरा जिसमें ज़्यादातर पैसा सऊदी अरब से आता था। 80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान से जाने के बाद वहाँ कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरु हो गया था और मुजाहिद्दीनों से भी लोग परेशान थे।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान बेहद ताक़तवर हो गया था। देश की सत्ता पर क़ब्ज़े के लिए उन्होंने भी दूसरे लड़ाकों से जंग छेड़ दी थी। उन्हें हर मोर्चे पर जीत मिल रही थी। तालिबान ने जनता से वादा किया कि वो देश को ऐसे लड़ाकों से मुक्ति दिलाएंगे। उन्होंने कुछ ही महीनों में दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े हिस्से के लड़ाकों को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया। तालिबान को पाकिस्तान से हथियार मिल रहे थे। सत्ता में आने पर तालिबान ने पहला काम किया कि राष्ट्रपति नज़ीबुल्लाह को सरेआम फांसी दे दी। जल्द ही तालिबानी पुलिस ने अपना निज़ाम क़ायम करना शुरू कर दिया था। औरतों के घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। उनकी पढ़ाई छुड़वा दी गई।

तालिबान ने जल्द ही देश में गीत संगीत, नाच-गाने, पतंगबाज़ी से लेकर दाढ़ी काटने तक पर रोक लगा दी। इस सिलसिले में 9/11 के हमले के बाद अमेरिका की ओर से अफ़ग़ानिस्तान में की गई कार्रवाई के बाद रुकावट आई। जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला बोला तो कुछ ही हफ़्तों के भीतर तालिबान हार गया। तालिबान ने सत्ता तो गंवा दी लेकिन इससे तालिबान का ख़ात्मा नहीं हुआ ।

हमला कर फंसा था अमेरिका

11 सितंबर 2001 को चार हवाई जहाजों को हाईजैक कर अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारत और पेंटागन पर अल कायदा के आतंकियों ने हमला किया था। जिसमें करीब तीन हजार लोगों की मौत हुई थी। अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण रखने वाले तालिबान ने इस हमले की ज़िम्मेदारी लेने वाले अल क़ायदा के नेता ओसामा बिन लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया, तब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने वहां एक सैन्य अभियान छेड़ा ताकि बिन लादेन का पता लगाया जा सके। इस हमले में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता गंवा दी।

अल कायदा से हमले का बदला लेने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो देशों ने सात अक्टूबर को अफगानिस्तान में हमला किया। क़रीब 10 वर्षों के इंतजार के बाद ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में मिला और 2 मई 2011 को जलालाबाद के ऐबटाबाद में लादेन को अमेरिकी नेवी सील कमांडो ने मार दिया। भीषण युद्ध के बाद अमेरिका और नाटो देश अफगानिस्तान में सत्ता बदलाव में सफल हो गए, लेकिन उन्हें आंशिक सफलता ही हाथ लगी।

भारत और तालिबान

भारत की तरफ से तालिबान को कभी मान्यता नहीं दी गई, जिसके पीछे की वजह थी पुराने कड़वे अनुभव। पिछली सदी के आखिरी दशक में भारत तालिबान शासन के विरोध में मुखर था और इसके खिलाफ उसने रूस और ईरान के साथ अफगानिस्तान के उत्तरी गठबंधन का समर्थन किया था। वर्ष 1999 में कंधार विमान अपहरण कांड की याद आज भी ताजा है, जिसमें भारत को पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहे तालिबान द्वारा करवाई जा रही बातचीत में अपहर्ताओं की मांगों को स्वीकार करना पड़ा था।

क्या तालिबान से बातचीत करने वाला है भारत?

डिप्लोमेसी कभी भी विचार से नहीं चलती। हमेशा हितों से चलती है। और जो हकीकत होती है उसके इर्द गिर्द चलती है। भारत ने कहा कि वह अफगानिस्तान में शांति, विकास और पुनर्निमाण के प्रति अपनी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता के तहत वहां विभिन्न हितधारकों के संपर्क में है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने मीडिया ब्रीफिंग में कहा कि भारत अफगानिस्तान में सभी जातीय समूहों के संपर्क में है वहां शांति की सभी पहलों को समर्थन करता है। बागची ने कहा, अफगानिस्तान के साथ हमारे संबंध ऐतिहासिक और बहुआयामी हैं।

हम अफगानिस्तान के सभी जातीय समूहों के संपर्क में हैं। पड़ोसी मित्र होने के नाते हम अफगानिस्तान और क्षेत्र में शांति को लेकर फिक्रमंद हैं। प्रवक्ता से मीडिया में आई एक खबर के बारे में पूछा गया था कि भारत ने तालिबान के कुछ धड़ों से बात की है, जिन्हें पाकिस्तान और ईरान के प्रभाव के दायरे से बाहर माना जाता है।बागची ने कहा कि वह खबर पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। उन्होंने कहा, हम सभी शांति पहलों को समर्थन करते हैं और क्षेत्रीय देशों समेत विभिन्न हितधारकों के संपर्क में हैं।

भारत के पॉलिसी चेंज की वजह

तालिबान अब अंतरराष्ट्रीय रूप से कटा हुआ नहीं रहा। अमेरिका ने भी उसके साथ डील साइन की है। अफगान सरकार मुख्य धारा में वापसी के लिए बातचीत कर रही है। वहीं तालिबान का भारत को लेकर रुख भी बदला है। तालिबान ने स्‍पष्‍ट रूप से कहा है कि वह दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्‍तक्षेप नहीं करेगा। तालिबान के राजनीतिक दल इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ अफगानिस्तान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने इसे लेकर ट्वीट किया था। सोशल मीडिया में वायरल उन दावों का खंडन किया है, जिसमें कहा गया है कि तालिबान कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद में शामिल है। शाहीन ने कहा कि तालिबान अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है।

भारत अफगानिस्तान में शांति और सुलह के लिए सभी प्रयासों का समर्थन करता है जो कि समावेशी और अफगान-नेतृत्व एवं अफगान नियंत्रित होगा। अफगानिस्तान की स्थिरता भारत के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने अफगानिस्तान के विकास के संदर्भ में काफी निवेश किया है। भारत ने वहां 3 बिलियन डॉलर से ज्यादा धन उसके नव-निर्माण में खर्च किया है। लेकिन जब अफगानिस्तान से 20 साल बाद अमेरिकी फौज वापस जा रही हैं, भारत की भावी भूमिका नगण्य-सी लग रही है। जब अमेरिका, अशरफ गनी सरकार और तालिबान के बीच अमेरिकी वापसी की बात चल रही थी, तब भी भारत हाशिए पर दिखा, जबकि पाकिस्तान की भूमिका अति महत्वपूर्ण थी।

अमेरिका ही नहीं, तुर्की, रुस और चीन ने भी अफगान-संकट के बारे में जितनी पहलें कीं, उनमें भारत की भूमिका नगण्य रही। ऐसे में एक पुरानी कहावत है कि पड़ोस जलता रहे और हम चैन की नींद सो जाएं।  तालिबान का सबसे बड़ा समर्थक मुल्क पाकिस्तान ही रहा है जो यह नहीं चाहता कि भारत किसी भी रूप में अफगानिस्तान में उपस्थित रहे।  ने स्वीकार तो किया है कि उसे अफगानिस्तान में तेजी से बदलते हुए परिवेश में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी। भारत के पास इस समय विकल्प बहुत सीमित हैं और उसे इन्हीं विकल्पों के साथ आगे बढ़ना होगा।

तालिबान भी एक अखंड इकाई नहीं, बल्कि कई पश्तून जनजातियों और गुटों का एक समूह है, जिसके किसी एक धड़े को साधा जा सकता है। वास्तव में, तालिबान के भीतर भी कई लोग ऐसे हैं जो अपने आप को पाकिस्तान की कठपुतली नहीं बनने देना चाहते हैं। इसलिए नई दिल्ली को चाहिए कि तालिबान के भीतर उन तत्वों तक पहुंचने का प्रयास करे जो उसके साथ काम करने के लिए तैयार हैं।

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