सीवान जिले की जीवनरेखा दाहा नदी के प्रति श्रद्धाभाव का जागरण ही हो सकती है उसके शाश्वत संरक्षण की गारंटी

सीवान जिले की जीवनरेखा दाहा नदी के प्रति श्रद्धाभाव का जागरण ही हो सकती है उसके शाश्वत संरक्षण की गारंटी

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दाहा नदी संरक्षण अभियान की सफलता के लिए जरूरी है नदी के प्रति लगाव को बढ़ाना और जन जन को नदी के महत्व के बारे में बताना

✍️ डॉक्टर गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सदियों से दाहा नदी गोपालगंज, सीवान, छपरा से होकर बहती रही है। अब भयंकर तौर पर प्रदूषित हो चुकी है। सबसे बड़ी विडंबना है कि दाहा नदी के तट पर रहनेवाले लोग ही दाहा नदी के महत्व से परिचित नहीं है। दाहा नदी के महत्व को जब हम सभी समझेंगे, तभी नदी के प्रति हमारी श्रद्धा जागृत होगी। दाहा नदी के प्रति श्रद्धा भाव का जागरण ही इसके शाश्वत संरक्षण की गारंटी होगी।

नहीं तो नदी की स्वच्छता के तत्कालिक प्रयास कुछ समय के लिए नदी की सफाई तो कर जायेंगे लेकिन यदि नदी के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रहेगा तो फिर नदी गंदगी की गिरफ्त में आ जाएगी। दाहा नदी के प्रति श्रद्धाभाव के जागरण में नदी तट पर नियमित श्रमदान, संवाद और जागरूकता के प्रसार का विशिष्ट महत्व है।

मान्यता रही है कि जब जनकपुर से प्रभु श्रीराम के विवाह के लिए गई बारात वापस अयोध्या लौट रही थी तो सासामुसा के पास माता जानकी सहित अन्य बारातियों को बहुत प्यास लगी। तभी लक्ष्मण ने अपने बाण से संधान कर नदी की धारा प्रवाहित की तथा माता जानकी सहित अन्य बारातियों की प्यास को बुझाया और इस दाहा नदी का जन्म हुआ। इसी कारण इस दाहा नदी का नाम वानगंगा नदी भी पड़ा। रामायण का यह संदर्भ अपने आप में दाहा नदी के प्रति श्रद्धा का महत्वपूर्ण आधार है।

वरिष्ठ पत्रकार मुरलीधर शुक्ला द्वारा संपादित सीवान के गौरव ग्रंथ सोनालिका में इस बात का उल्लेख मिलता है कि महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण सीवान में ही हुआ था। यहां से उनके शरीर को कुशीनगर ले जाया गया था।इस क्रम में दाहा नदी जिसे उस समय ककुत्था नदी के आस पास भगवान बुद्ध के जीवन के अंतिम दिन बीतने की बात चीनी यात्री फहियान के यात्रा विवरण में भी आता है।

शोधार्थी कृष्ण कुमार सिंह की लिखित पुस्तक प्राचीन कुशीनारा एक अध्ययन में भी महात्मा बुद्ध के जीवन के अंतिम दिन के ककुत्था नदी से जुड़े प्रसंग भी आते हैं। इस तरह से दाहा नदी के इतिहास की एक श्रद्धापूर्ण गाथा भी सामने आती है।

कुछ ऐतिहासिक स्रोत के आधार पर इतिहासकार कृष्ण कुमार सिंह बताते हैं कि दाहा नदी के कृषि कार्य के संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए मध्यकालीन शासक शेरशाह सूरी ने दाहा नदी के तकरीबन 52 किलोमीटर प्रवाह मार्ग की सफाई करवाई थी। दाहा नदी का तट बेहद उपजाऊ माना जाता रहा है। दाहा नदी के तट पर स्थित कई मठ और मंदिर आध्यात्मिक संचेतना के मजबूत आधार रहे हैं।

दाहा नदी के प्रवाह से इसके किनारे रहनेवाले लोगों की जिंदगी की कहानी जुड़ी रही है। खाना पकाना हो या पानी का पीना, नहाना हो या कपड़ा धोना कभी दाहा नदी के तट पर लोग बैठकर एक जिंदगी जिया करते थे। अपने पशुओं को नहलाना, उन्हें पानी पिलाना भी दाहा नदी के तट पर हुआ करता था। बुजुर्ग लोग पुराने दिनों की याद कर बताते हैं कि हम लोगों का अधिकांश समय ही दाहा नदी के तट पर ही गुजरा करता था।

छठ, पीडिया, दुर्गा पूजा के समय मूर्तियों के विसर्जन के समय तो दाहा नदी गुलजार हो उठती रही है। पूर्णिमा पर दाहा नदी में स्नान कर श्रद्धालु निहाल हो उठते हैं। प्रोफेसर रवींद्र नाथ पाठक बताते हैं कि मेरे गांव और ममहर से होकर दाहा नदी गुजरती थी तो हमारे बचपन की मधुर स्मृतियां इस नदी के साथ हमारे लगाव को बढ़ाती है।

दाहा नदी को जीवनरेखा के तौर पर माना जाता रहा है। सीवान, गोपालगंज, छपरा के लगभग 90 किलोमीटर के प्रवाह मार्ग में दाहा नदी के किनारे के क्षेत्रों में फसलों की सिंचाई दाहा नदी के पानी से ही होती रही है। दाहा नदी के आस पास के क्षेत्रों में भू जल स्तर को कायम रखने में नदी की विशेष भूमिका रही है। फसलों के उत्पादन में सहयोग और पशुपालन की सुविधा के कारण से दाहा नदी कभी यहां की कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती थी। कभी बाढ़ या सूखा के समय पर दाहा नदी से सुरक्षा भी प्राप्त होती थी।

दाहा नदी से जलीय जैव विविधता भी संरक्षित होती थी। दाहा नदी में मछली पकड़ने से जहां कई लोगों को खाद्य सुरक्षा मिलती थी वहीं रोजगार भी मिलता था। विद्याभवन महाविद्यालय की वर्तमान प्राचार्या डॉक्टर रीता कुमारी ने करीब दस वर्ष पूर्व जब दाहा नदी पर शोध किया था तो उन्होंने पाया था कि उस समय लगभग 25 से 30 तरह की मछलियों की प्रजाति दाहा नदी में मौजूद थी।

जलीय पर्यावरण के अन्य आयाम भी दाहा नदी की शोभा कभी बढाते थे। लेकिन आज दाहा नदी में सर्वत्र फैली जलकुंभी इसके जल में मौजूद ऑक्सीजन को खिंचती जा रही है जिससे दाहा नदी की जलीय पारिस्थितिकी तबाह होती जा रही है। दाहा नदी में मछली पालन की सुविधा रोजगार का एक बड़ा आधार बन सकती है।

वर्तमान में दाहा नदी में गंदे नालों का जल गिर रहा है। कूड़े कचरों को फेंके जाने से नदी तबाह होती जा रही है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा में नदियों को माता माना जाता रहा है। फिर भी दाहा नदी में पूजा के उपरांत पूजन सामग्री को हम नदी में प्रवाहित करते रहे हैं। ये कैसी आस्था है? पूजन सामग्री को हम किसी वृक्ष के नीचे या किसी अन्य पवित्र स्थान पर भी रख सकते हैं। जब दाहा नदी के प्रति हमारी श्रद्धा बढ़ेगी तो शायद ही हम उसमें पूजन सामग्री या कुछ अन्य सामग्री प्रवाहित करेंगे।

वर्तमान में दाहा नदी जलकुंभी से पटी पड़ी है लेकिन जब भी हम जलकुंभी को हटाते हैं तो वहां स्वच्छ पानी दिखता है जिसमें आसानी से बच्चे एक प्राकृतिक वाटर पार्क का लुत्फ ले सकते हैं। दाहा नदी के तट पर सौंदर्यीकरण एक स्थाई तौर पर पर्यटक गतिविधियों के विस्तार के कारण रोजगार का सृजन भी कर सकता है। कुछ क्षेत्रों में नाव आदि चलाकर पर्यटकों को लुभाया जा सकता है। दाहा नदी के तट पर स्थित मठ मंदिरों में धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन के दौरान दाहा नदी की आरती का आयोजन भी श्रद्धा भाव को जागृत कर सकता है।

महाकाल की नगरी उज्जैन में मोक्षदायिनी नदी के तौर पर शिप्रा नदी को चुनरी ओढाने के धार्मिक अनुष्ठान का नियमित अंतराल पर आयोजन किया जाता है। दाहा नदी को भी यदि सावन या अन्य अवसरों पर चुनरी ओढ़ाने की परंपरा का आयोजन किया जाय तो नदी के प्रति श्रद्धा भाव को जागृत किया जा सकता है। गुरु पूर्णिमा, जिउतिया या अन्य अवसरों पर दाहा नदी में स्नान करनेवाले या सूर्योपासना के महापर्व छठ पर अर्घ्य देनेवाले श्रद्धालु दाहा नदी के प्रति विशेष श्रद्धा और आस्था रखते हैं दाहा नदी की स्वच्छता के मायने उनके लिए विशेष तौर पर महत्वपूर्ण हैं।

यदि सिर्फ दाहा नदी की सफाई हो जाए कुछ दिन के लिए लोग नदी में गंदगी न फेंके तो कुछ समय के लिए तो बात बनेगी लेकिन फिर वहीं समस्या आ जायेगी। आवश्यकता नियमित अंतराल पर स्वच्छता अभियान के लिए श्रमदान करने और दाहा नदी के महत्व से जन जन को वाकिफ कराने की है ताकि दाहा नदी के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़े और दाहा नदी के शाश्वत संरक्षण की व्यवस्था हो सके ताकि आने वाले वर्षों तक दाहा के तट पर जिंदगी मुस्कुराती रह सके।

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