पीएम मोदी की चीन यात्रा और हमारा हित
✍️ राजेश पाण्डेय
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हमारे पड़ोस के देश चीन के नगर तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक 31 अगस्त एवं 1 सितंबर 2025 को हुई। शंघाई सहयोग संगठन में 10 पूर्ण सदस्य हैं लेकिन इसमें 20 राष्ट्रों के शासन अध्यक्षों ने भाग लिया। पर्यवेक्षक देश के तौर पर अफगानिस्तान और मंगोलिया को शामिल किया गया वहीं संवाद भागीदार राष्ट्र के रूप में 15 देश शामिल हुए। यह संगठन व्यापार, आर्थिक सहयोग, सुरक्षा सहयोग को लेकर निर्मित है। इस संगठन में 2017 में भारत एवं पाकिस्तान जुड़े। 2021 में ईरान जुड़ा और 2024 में बेलारूस ने योगदान दिया। दरअसल इस संगठन का निर्माण 1996 में शंघाई फाइब नाम से हुआ, जिसमें रूस, चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान व ताजिकिस्तान देश थे।
बहरहाल ट्रंप के टैरिफ से उपजी परिस्थितियों के बीच पीएम मोदी सात वर्ष बाद चीन की धरती पर कदम रखा। अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध रखने के क्रम में उन्होंने सात वर्ष पहले चीन की यात्रा की थी। इसका वाणिज्यिक लाभ चीन को अधिक मिला, परन्तु गलवान घाटी की घटना के बाद भारत- चीन संबंध तनाव की नई ऊंचाई पर पहुंच गए। कोरोना के बाद तो संबंध में और तनाव आया, व्यापारिक एवं आपसी संबंध पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए।
बहरहाल चीन के नगर तियानजिन से आ रही तस्वीर निश्चित तौर पर भारतीयों को आह्लादित करती है। परन्तु यह तात्कालिक समाधान है। क्योंकि चीन कभी भी हमारा नेचुरल ऐलाई नहीं हो सकता। उसके साथ सामाजिक-सांस्कृतिक सहित कई प्रकार के विवाद है, इनमें सीमा विवाद सबसे मुखर है। हमारी उसकी भाषा एक नहीं है। चीन भारत को एक बाजार के रूप में देखने के साथ-साथ वह हमें पश्चिमी देशों का लांचिंग पैड भी मानता है। अर्थात भारत सदैव से पश्चिमी ताकतों की गिरफ्त में होता है।
लेकिन वहां की जनता हमारे संस्कृतिक विरासत से मंत्र-मुग्ध रहती है। वहां के 15 से अधिक विश्वविद्यालय में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं की पढ़ाई होती है। चीन हमारा पड़ोसी है,परन्तु हमारे बीच तिब्बत, व्यापार, लोकतंत्र एवं सीमा विवाद को लेकर गहरे मतभेद है। भारतीय सीमा के निकट सामरिक एवं रणनीतिक रूप से चीन अपने क्षेत्र को विकसित कर रहा है।
ब्रह्मपुत्र नदी पर अरुणाचल प्रदेश के निकट एक विशाल बांध बनाने का प्रस्ताव करके उसने भारत के लिए चिंता का विषय बना दिया है। भारतीय जनमानस चीन के विकास को लेकर आशंका वाली स्थिति में रहती है। लेकिन यह सुखद है कि चीन ने पिछले 30 वर्षों में आर्थिक रूप से अभूतपूर्व तरक्की करते हुए विश्व की दूसरी अर्थव्यवस्था बन गया है। अगर भविष्य में चीन से संबंध अच्छे होते हैं तो इसका निश्चित तौर पर भारतीय जनमानस को इसका लाभ मिलेगा। फिर भी चीन को तिब्बत, तियानमेन एवं ताइवान परेशान करता है।
पुतिन और मोदी की केमिस्ट्री
मोदी और पुतिन जब भी मिलते हैं पूरे गर्मजोशी के साथ एक दूसरे के साथ गलबहियां डालते हैं क्योंकि रूस के साथ हमारे पारंपरिक संबंध सदैव से रहे हैं। नेहरू जी की गुटनिरपेक्षता विदेश नीति का भाग रहा, परन्तु सोवियत संघ से हमारी निकटता ने अमेरिका को पाकिस्तान में सैन्य शक्ति एवं कई प्रकार की सहायता से उसे लाभान्वित किया, लेकिन रूस से हमारी मित्रता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। रुस से मित्रता के कारण ही हमने अपने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को खोया था, इसे ‘ताशकंद फाइल’ फिल्म से समझा जा सकता है।
1991 में सोवियत संघ में विघटन के बाद रूस अस्तित्व में आया। ऐसा लगा कि पूरा विश्व एकल ध्रुव में सिमट गया है, परन्तु रूस ने धीरे-धीरे अपने को पुनः स्थापित किया और एक बार पुतिन के कार्यकाल में विश्व को दो ध्रुव में बदल दिया। पिछले तीन वर्षों से यूक्रेन से हो रहे युद्ध से रूस ने अपने को स्थापित करते हुए पश्चिमी शक्तियों को चुनौती अवश्य प्रस्तुत की है। रूस भारत का भरोसे वाला साथी है। कई गाढ़े समय में उसने साथ दिया है।
भारत अपनी ऊर्जा एवं रक्षा आवश्यकता हेतू रूस पर निर्भर रहता है। रूस के साथ हमारी सांस्कृतिक विरासत है। रूसी लेखक लियो टाॅलसटोय, एंटोन चेखब, फयोदोर दोस्तोवस्की, निकोलाई गोगोल, मिखाइल बुलगाकोव, इवान तुरगनेव, मैक्सिम र्गोकी की कृति हिंदी सहित कई भाषाओं में अनूदित होकर हमारे समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। भारतीय फिल्म की रूस में चरम लोकप्रियता हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस ने सदैव भारत का साथ दिया है। सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से रूस भारत के अधिक निकट है।
अमेरिका और भारत का संबंध
अमेरिका विश्व का नवीनतम समृद्धिशाली देश है। अपने समृद्धि और लोकतंत्र के लिए विश्व में इसकी पहचान है। पूंजीवादी संस्कृति से लबरेज इस देश के विश्व के साथ व्यापारिक संबंध हैं। अंग्रेजी भाषा होने के कारण इसके अंतर्राष्ट्रीय भाषा एवं इसकी मुद्रा डॉलर को विश्व की किसी भी कोने में एक खास पहचान के तौर पर देखा जाता है। ज्ञान, विज्ञान, रक्षा, ऊर्जा एवं अंतरिक्ष में अव्वल होने के साथ विश्व में यह देश आकर्षण का केंद्र भी है।
विश्व भर से छात्र यहां के विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं। यहां प्रवासियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। भारत का लोकतंत्र और अमेरिका की डेमोक्रेसी निरंतर संबंधों के मार्ग पर अग्रसर है। परन्तु 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत-अमेरिका संबंधों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। विशेष कर सन् 2000 की बात तो स्थिति एकदम से बदल गई है। समृद्ध भारतीय प्रवासियों की संख्या अमेरिका में यहूदियों के बाद सर्वाधिक है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता ने अमेरिका एवं इसके नागरिकों को वैभवशाली बनाया है। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद अमेरिका ने विश्व स्तर पर आर्थिक एवं सामरिक रूप से एकछत्र राज अवश्य किया है।
1970-80 दशक के बाद भारतीयों की अमेरिका में रुचि निरंतर बढ़ी है। ज्ञान, विज्ञान, भाषा, नौकरियां एवं व्यापार ने इसे आकर्षण का केंद्र बिंदु बनाया है। आलम यह है कि सन् 2000 के बाद अमेरिका में भारतीयों की संख्या 175% तक बड़ी है जो आज 54 लाख तक पहुंच गई है।
ट्रंप की टैरिफ ने कूटनीतिक संबंधों में एक डेंट लगाया है। परन्तु यह प्रतिबंध हमारे लिए ठीक है क्योंकि हम सोच आयात कर रहे हैं, हम उपकरण का आयात कर रहे हैं और हम विचार (आइडिया) को भी आयात कर रहे हैं, इसलिए ट्रंप के टेरिफ ने भारतीय सोच के कई आयामों को जन्म देगी जो आत्मनिर्भर भारत के लिए भविष्य में आवश्यक होगा।
बहरहाल चीन के नगर में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में चीन, रूस और भारत के राजनेताओं का आपस में बातचीत निश्चित तौर पर अमेरिका के लिए सोचनीय विषय होगा। परन्तु इस समय अमेरिका का यह कहना कि भारत और USA के संबंध एक नई ऊंचाई पर पहुंच रहे हैं, यह कथन अपने आप में एक रहस्य है। लेकिन वैश्विक राजनीति में अपना हित सर्वप्रथम होता है, इसके लिए कुछ भी किया जा सकता है।