देश के लिए धर्म या जाति व वंशवाद की राजनीति घातक
धनंजय मिश्र
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
यह विचारणीय मुद्दात्मक प्रासंगिक प्रसंग है! हमारे पुरातन जननायकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात धर्म के आधार पर पाकिस्तान के विभाजनोपरांत हिन्दू बहुसंख्यक इस भारतीय लोकतांत्रिक भारत को ‘धर्म-निरपेक्ष’ राष्ट्र घोषित किया और बनाया ! लेकिन, क्या कोई देश केवल भौगोलिक परिक्षेत्र से ही राष्ट्र बनता है!
दरअसल, उस देश के ‘मूल-प्राण’ तो वहां की ‘जनता-जनार्दन’ होती है! और हरेक जनता कोई-न-कोई धर्म को मानती ही है! हो सके तो चंद अपवाद को छोड़कर! अब समझा जाए ! ‘धर्म-निरपेक्ष’ की बात! ‘निरपेक्ष’ यानी नहीं है, धर्म के पक्ष में! जब देश की जनता ‘धर्म-धारणी’ है! तब उसका देश ‘धर्म-निरपेक्ष’ कैसे और क्यों हो गया..? पर, राष्ट्र-नायकों ने ऐसा किया! दूसरी सच्चाई यह कि कोई भी लोकतांत्रिक देश और वहां की राजनीति धर्मनिरपेक्षता के सहारे आंतरिक रूप से कभी भी सशक्त और संगठित नहीं हो सकती है!
यह बात भले ही ऊपरी सतह पर नागवार और आपत्तिजनक लगे ! मगर, कोई अपने ‘अंतस-मन’ से ‘मनन-विचार’ करके महसूस कर सकता है! वस्तुत: शायद इसीलिए भारत के प्रायः बहुसंख्यक हिन्दुओं के ‘मन-मनसा’ को भी यह बात अब अत्यधिक कौंधा रही है कि भारत में भी अब ‘गजवा-ए-हिन्द’ का आगाज हो रहा है! अगर इसको फिलवक्त स्वप्न ही मानें तो इस ‘गजवा-दौर’ में भारत के इस ‘धर्म-निरपेक्षता’ का हश्र क्या होगा..? अभी यह परिकल्पना ही काफी मौजू है! किन्तु, यह भी सच है कि किसी भी धार्मिकता की कट्टरता जब अन्य धर्मावलंबियों के विरूद्ध अत्यधिक हिंसक व घातक हो जाती है!
तब कट्टरतावादी उस धर्म की बहुचर्चाएं व व्याख्याएं अन्य शेष सर्वसमाज और देश-दुनिया में उसके प्रति काफी निन्दनीय व नफ़रती हो जाती है! वस्तुत: उस धर्म की कट्टरता की पराकाष्ठा ही अंततः उस धर्म व देश के लिए बेहद घातक होकर अंतस से विनाश का मार्ग प्रशस्त करती है! क्योंकि, अन्य धर्मावलंबियों के ‘मन-मनसा’ में कथित उस कट्टरतावादी धर्मावलंबियों के प्रति अविश्वास और घृणा का भाव सदैव विद्यमान हो जाता है!
दूजा,यह बातें सदैव यथार्थपूर्ण हैं ! जो यह कि भारत ही नहीं, अपितु किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ‘जातिवाद और वंशवाद’ की राजनीति ‘देश-तोड़क’ और ‘भ्रष्टाचार-पोषक’ होती है! जो हरहाल में देश के लिए घातक और ऐसे नेताओं के लिए मालामाल और उनके ‘शासन-सिंहासन’ हेतु अत्यधिक कारगर होती है! यद्यपि भारत की ‘धर्म-निरपेक्षता’ का मैं भी सदैव हिमायती ही रहा हूं!
क्योंकि, भारत का बहुसंख्यक हिन्दू सर्वसमाज प्रायः ‘सनातन धर्मावलंबी’ एवं उसके ‘सम-धर्मावलंबी’ ही हैं! वस्तुत: प्राचीनतम सनातन धर्म कदापि और कतई कट्टरता की ‘सीख’ ही नहीं देता है ! सच तो यह कि सनातन सदैव ‘विश्व बंधुत्व’ और ‘विश्व कुटुम्बकम्’ का सदा सुसंदेश ही देता रहा है! अब सनातन की यही उदारता की सुनीति,अन्य धर्मावलंबीगण कथित उसकी कायरता समझने लगे हैं!
हालांकि उपरोक्त उक्त बातें भी,जो बिल्कुल सच हैं! उसे कोई ऊपरी ‘मन-मनसा’ से सच कहे या न कहे ! किन्तु, वह भी सदा केवल सच ही हैं! आप प्रबुद्ध जनों का क्या ख्याल व सुविचार है..?