चुनौती नहीं, अवसर है जनसंख्या,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
इन दिनों जनसांख्यिकीय लाभांश या डेमोग्राफिक डिविडेंड पर काफी बात हो रही है। यह फिलहाल भारत के पक्ष में है। पर ऐसा जरूरी नहीं कि हमेशा रहे। इससे पहले कि यह त्रासदी बन जाए, इसे देशहित में करना होगा। बढ़ती जनसंख्या विमर्श का विषय बनी रहती है। इस बीच यूएन की रिपोर्ट ‘विश्व जनसंख्या सम्भावना 2022’ ने इस विमर्श को गति दी है।
रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया कि 2023 तक भारत चीन को पछाड़कर जनसंख्या के लिहाज से विश्व में प्रथम स्थान पर होगा। विश्लेषकों का एक वर्ग इसे चुनौती के रूप में देख रहा है, तो दूसरा वर्ग इसे अवसर बता रहा है। इस बीच पॉल एर्लिच बनाम जूलियन साइमन की जनसंख्या पर बहुचर्चित डिबेट भी प्रासंगिक हो गई है।
पॉल ने बढ़ती जनसंख्या को बम कहा था और चुनौती माना था, वहीं साइमन ने बढ़ती हुई जनसंख्या को नकारात्मक नहीं माना। उन्होंने कहा कि औद्योगिक विकास एवं उपभोक्ता आधारित अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है। इन्ही आधारों पर भारत में भी मतभिन्नता है। पर झुकाव नकारात्मक पक्ष पर अधिक है। जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने पर जोर है।
प्रश्न है कि क्या वास्तव में इसकी जरूरत है? दूसरा प्रश्न है कि क्या इसे केवल नकारात्मक पक्ष में देखा जाए? क्या सकारात्मक पक्ष भी हो सकते हैं? यदि हां तो अर्थव्यवस्था में इसका क्या फायदा होगा? सच तो यह है कि जनसंख्या चुनौती भी है, और अवसर भी। यदि आबादी जिम्मेदारी या बोझ बनने लगे तो चुनौती साबित होती है।
यही यदि साधन बन जाए तो एक देश के लिए इससे बड़ा अवसर और कोई नहीं। पोषण युक्त भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि उपलब्ध कराकर इसे अवसर में बदला जा सकता है। भारत में इन्हीं कुछ प्रयासों की अपर्याप्तता जनसंख्या को चुनौती मानने पर मजबूर कर रही है। प्रयुक्त होता संसाधन तो कोई भी खराब नहीं; मानव भी संसाधन ही है बशर्ते इसका सही इस्तेमाल हो।
बेहतर होगा यदि विमर्श का विषय मानव संसाधन विकास केंद्रित हो। एनएफएचएस की पांचवीं रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन दर 2.0 हो गई। यह आंकड़े जनसंख्या नियंत्रण कानून की प्रासंगिकता को कम करते हैं। इसके लम्बी अवधि में नकारात्मक साबित होने की संभावना अधिक है। चूंकि वर्तमान भारत युवाओं का देश है, जहां बच्चों व वृद्ध-जनों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है।
आंकड़ों की मानें तो भविष्य में ये ग्राफ बदलने की सम्भावना है, जब वृद्ध-जनों की संख्या ज्यादा होगी। यह स्थिति अर्थव्यवस्था पर बड़ा दबाव डाल सकती है। परिणाम जापान में देखे जा सकते हैं जहां जन्मदर कम होने से पिछले 20 वर्षों में अर्थव्यवस्था 4 से 6 ट्रिलियन के बीच सीमित हो गई। चीन ने भी अपने जनसंख्या नियंत्रण कानून को ढीला किया है।
पीएलएफएस के अनुसार 30% महिलाएं ही राष्ट्र निर्माण में अपने श्रम बल का योगदान दे रही हैं। आईएमएफ के अनुसार यदि महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो वृद्धि दर 27% से बढ़ सकती है। उल्लेखनीय है भारत को खाद्य सुरक्षा से धीरे-धीरे पोषण सुरक्षा की तरफ बढ़ना होगा। अगर परिवारों को पोषण सुरक्षा सुनिश्चित होने लगे तो उसकी आय का एक हिस्सा स्वास्थ्य-शिक्षा पर खर्च होगा। और सशक्त श्रम बल योगदान के लिए आगे आएगा। भारत को समय रहते इस पर विचार करना होगा।
बढ़ती आबादी की प्रमुख चुनौतियाँ
- स्थिर जनसंख्या : स्थिर जनसंख्या वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम प्रजनन दर में कमी की जाए। यह बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में काफी अधिक है, जो एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
- जीवन की गुणवत्ता : नागरिकों को न्यूनतम जीवन गुणवत्ता प्रदान करने के लिये शिक्षा और स्वास्थ प्रणाली के विकास पर निवेश करना होगा, अनाजों और खाद्यान्नों का अधिक-से-अधिक उत्पादन करना होगा, लोगों को रहने के लिये घर देना होगा, स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति बढ़ानी होगी एवं सड़क, परिवहन और विद्युत उत्पादन तथा वितरण जैसे बुनियादी ढाँचे को मज़बूत बनाने पर काम करना होगा।
- नागरिकों की मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करने और बढ़ती आबादी को सामाजिक बुनियादी ढाँचा प्रदान करके समायोजित करने के लिये भारत को अधिक खर्च करने की आवश्यकता है और इसके लिये भारत को सभी संभावित माध्यमों से अपने संसाधन बढ़ाने होंगे।
- जनसांख्यिकीय विभाजन : बढ़ती जनसंख्या का लाभ उठाने के लिये भारत को मानव पूंजी का मज़बूत आधार बनाना होगा ताकि वे लोग देश की अर्थव्यवस्था में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें, लेकिन भारत की कम साक्षरता दर (लगभग 74 प्रतिशत) इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
- सतत शहरी विकास : वर्ष 2050 तक देश की शहरी आबादी 87.7 मिलियन तक हो जाएगी, जिसके चलते शहरी सुविधाओं में सुधार और सभी को आवास उपलब्ध कराने की चुनौती होगी और इन सभी के लिये पर्यावरण को भी मद्देनज़र रखना ज़रूरी होगा।
- असमान आय वितरण : आय का असमान वितरण और लोगों के बीच बढ़ती असमानता अत्यधिक जनसंख्या के नकारात्मक परिणामों के रूप में सामने आएगा।
- भविष्य में सभी के लिये खाद्यान्न सुनिश्चित करने हेतु यह महत्त्वपूर्ण है कि कृषि को लाभकारी बनाया जाए और खाद्यान्नों की कीमतों में बहुत अधिक परिवर्तन न हो अर्थात् कमोबेश वे स्थिर रहें।
- न्यूनतम मासिक आय (Universal Basic Income) को सुरक्षा कवच के रूप में लागू करना भी बड़ी संख्या में बेरोज़गार युवाओं को रोज़गार के अवसर प्रदान करने में मदद करेगा।
- वन और जल संसाधनों का उचित प्रबंधन करना होगा ताकि उन्हें सतत इस्तेमाल के लिये बचाया जा सके।
- सतत विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals) की प्राप्ति किसी भी नीति निर्माण का केंद्रबिंदु होना चाहिये।
- अपेक्षाकृत कम आय और घनी आबादी वाले भारत के उत्तरी राज्यों को दक्षिणी राज्यों से सीख लेते हुए महिलाओं की साक्षरता, स्वास्थ्य और कार्यबल में भागीदारी जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे।
- जनसंख्या में कमी, अधिकतम समानता, बेहतर पोषण, सार्वभौमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे सभी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सरकारों और मज़बूत नागरिक सामाजिक संस्थाओं के बीच बेहतर सामंजस्य की आवश्यकता है।
- बढ़ती जीवन प्रत्याशा (Life Expectancy) और किशोरों की बढ़ती आबादी सेवा के नए क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर तलाशने में मदद करेगी।
- AMRUT, स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया और सतत विकास लक्ष्य जैसी योजनाएँ निश्चित रूप से देश की सामाजिक आधारिक संरचना को बढ़ाने में सहायता करेंगी।
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