राजकुमार शुक्ल की जिद ने गांधी जी को मोतिहारी आने के लिए किया मजबूर

राजकुमार शुक्ल की जिद ने गांधी जी को मोतिहारी आने के लिए किया मजबूर

राजकुमार शुक्ल की पुण्यतिथि पर नमन

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राजकुमार शुक्ल ने वर्ष 1908 में दशहरा मेले के समय बेतिया के लौरिया, पिपरहिया, लौकरिया, जोगापट्टी, लोहिआरिया कुड़िया कोठी आदि गांवों में किसानों को एकजुट किया. किसानों ने नील की खेती बंद कर दी. नतीजतन, अंग्रेजों ने किसानों पर मुकदमा दायर कर उन्हें जेल में बंद कर दिया. किसानों पर चले मुकदमों की पैरवी के लिए राजकुमार शुक्ल बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, पटना और कलकत्ता आदि शहरों में जाकर वकीलों से मिलते और किसानों को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ी.

किसानों की समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर दिलायी पहचान

चंपारण में किसानों के शोषण से जुड़े समाचार तत्कालीन ‘बिहारी’ अखबार में प्रकाशित होते थे. बाद में कानपुर से प्रकाशित ‘प्रताप’ ने 9 नवंबर, 1913 को किसान समस्या को प्रमुखता से छापा. उसके संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे. उन्होंने गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका से भारत आने की बात उन्हें बतायी. अब शुक्ल के जीवन का एकमात्र उद्देश्य महात्मा गांधी को चंपारण की धरती पर लाना बन गया. इसके लिए वे दिन-रात जुट गये.

लखनऊ अधिवेशन में गांधी जी को चंपारण आने का दिया न्योता

10 अप्रैल, 1914 को बांकीपुर में बिहार प्रांतीय सम्मेलन का आयोजन और 13 अप्रैल, 1915 को छपरा में हुए कांग्रेस सम्मेलन में पंडित राजकुमार शुक्ल ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. सम्मेलन में पंडित शुक्ल ने चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति और अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार को सभी नेताओं के सामने रखा. इसके बाद शुक्ल ने लखनऊ कांग्रेस सम्मेलन में भी हिस्सा लिया.

26 से 30 दिसंबर, 1916 को लखनऊ में आयोजित कांग्रेस सम्मेलन में पहुंचने के बाद शुक्ल ने महात्मा गांधी से मिल कर चंपारण के किसानों के दर्द को बयां किया और गांधी जी से चंपारण आने का आग्रह किया. गांधी जी पहली मुलाकात में इस शख्स से प्रभावित नहीं हुए और उन्होंने उसे टाल दिया. इसके बाद भी इस जिद्दी किसान ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. वे अहमदाबाद में उनके आश्रम तक पहुंच गये और जाने की तारीख तय करने की जिद की. ऐसे में गांधी से रहा न गया. उन्होंने कहा कि वे सात अप्रैल को कलकत्ता जा रहे हैं.

चंपारण सत्याग्रह के लिए शुक्ल ने तैयार की थी जमीन

कलकत्ता में पंडित राजकुमार शुक्ल से भेंट के बाद गांधी शुक्ल के साथ 10 अप्रैल, 1917 को बांकीपुर पहुंचे और फिर मुजफ्फरपुर होते हुए 15 अप्रैल, 1917 को चंपारण की धरती पर कदम रखा. यहां उन्हें राजकुमार शुक्ल जैसे कई किसानों का भरपूर सहयोग मिला. पीड़ित किसानों के बयानों को कलमबद्ध किया गया. कांग्रेस की प्रत्यक्ष मदद लिये बगैर यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गयी.

इसकी वहां के अखबारों में भरपूर चर्चा हुई, जिससे आंदोलन को जनता का खूब साथ मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा. इस तरह यहां पिछले 135 वर्षों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गयी. साथ ही नीलहों का किसान शोषण भी हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया.

बाद में गांधी विश्व के बड़े नेता बन कर उभरे. चंपारण में ही उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से सिर्फ एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगे. इसी आंदोलन के बाद उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया. गांधी को चंपारण लाने और सत्याग्रह आंदोलन को सफल बनाने में पंडित शुक्ल की अहम भूमिका रही. आंदोलन में अपनी जमीन-जायदाद सबकुछ न्योछावर करने वाले शुक्ल के बाकी के दिन गरीबी में बीते और अपना काम पूरा करने के बाद शुक्ल 20 मई, 1929 को दुनिया छोड़ गये.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में चंपारण सत्याग्रह का विशेष स्थान है, और इस आंदोलन के सूत्रधार रहे बिहार के लाल, स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल। उनकी पुण्यतिथि पर देश उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करता है।

राजकुमार शुक्ल ही वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने महात्मा गांधी को चंपारण आने के लिए आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया। 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उन्होंने गांधी जी से मिलकर चंपारण के नील किसानों की दुर्दशा बताई और गांधी को बार-बार चिट्ठियाँ लिखकर, स्वयं उनसे मिलने जाते रहे। आर्थिक अभाव के बावजूद वे लोगों से चंदा लेकर, उधार लेकर गांधी जी तक पहुँचे। उनका यह आग्रह और समर्पण ही था कि गांधी जी चंपारण आए और सत्याग्रह का पहला प्रयोग यहीं से आरंभ किया।

चंपारण में ब्रिटिश नीलहों के अत्याचारों के विरुद्ध गांधी जी के नेतृत्व में जो आंदोलन हुआ, वह देश में जनजागरण की नई लहर लेकर आया। परंतु इसके पीछे राजकुमार शुक्ल का त्याग, तपस्या और संकल्प छिपा था, जिन्हें इतिहास में अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।

चंपारण में सत्याग्रह की सफलता के बाद राजकुमार शुक्ल रुके नहीं। वे रॉलेट एक्ट के विरुद्ध ग्रामीणों में जागरूकता फैलाते रहे और 1920 में असहयोग आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। वे किसानों की समस्याओं को उठाने के लिए किसान सभा से भी जुड़े।

राजकुमार शुक्ल का जन्म 1875 में पश्चिम चंपारण के सतवरिया गांव में हुआ था। 20 मई 1929 को मोतिहारी में 54 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ। अंतिम समय में उन्होंने अपनी बेटी देवपति से मुखाग्नि दिलवाने की इच्छा जताई, जिसे समाज ने स्वीकारा। मोतिहारी के रामबाबू के बगीचे में उनका अंतिम संस्कार हुआ और उनके श्राद्ध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर बाबू सहित कई प्रमुख नेता उपस्थित रहे।

स्वतंत्रता आंदोलन के इस अदृश्य नायक को शत-शत नमन, जिनके संघर्ष और समर्पण ने गांधी को ‘महात्मा’ बनने की राह दी और देश को आजादी की दिशा में अग्रसर किया।

 

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