प्रसिद्ध कन्नड़ उपन्यासकार और दार्शनिक एसएस भैरप्पा का 94 वर्ष की आयु में निधन
एसएस भैरप्पा को पद्म भूषण पद्म श्री और सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया गया था
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
प्रसिद्ध कन्नड़ उपन्यासकार और दार्शनिक एसएस भैरप्पा का एक निजी अस्पताल में कर्डियक अरेस्ट के कारण 94 साल की उम्र में निधन हो गया।
राष्ट्रोत्थान अस्पाताल ने एक बयान जारी कहा, महान भारतीय उपन्यासकार, दार्शनिक, पद्मश्री, पद्मभूषण और सरस्वती सम्मान से सम्मानित एसएल भैरप्पा को आज दोपहर 2.38 बजे हृदयगति रुकने से निधन हो गया और वे ईश्वर के चरणों में लीन हो गए। ओम शांति!!!”
श्री भैरप्पा अपने लोकप्रिय उपन्यासों ‘वंशवृक्ष’, ‘दातु’, ‘पर्व’, ‘मंदरा’ आदि के लिए जाने जाते हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं का अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
एस. एल. भैरप्पा समकालीन भारतीय उपन्यासकारों में एक विलक्षण व्यक्तित्व माने जाते हैं। उनकी साहित्यिक दृष्टि केवल कथा-वस्तु की रोचकता तक सीमित नहीं है बल्कि वह भारतीय समाज, इतिहास, धर्म, संस्कृति और दार्शनिक परंपराओं के गहन विमर्श में रची-बसी है। उनकी रचनाएँ आधुनिकता और परंपरा के बीच चल रहे सतत संवाद की परिणति हैं। भैरप्पा का साहित्य भारतीय आत्मा की खोज करता है और उन प्रश्नों को उठाता है जिनसे आधुनिक मनुष्य जूझता है।
संतेशिवरा लिंगन्नैया भैरप्पा का जन्म 20 जुलाई , 1931 को संतेशिवरा, हसन जिला , मैसूर साम्राज्य में हुआ था। बचपन से ही वे कठिन परिस्थितियों से गुज़रे। यही कठिनाइयाँ उनके लेखन को गहराई देती हैं। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा कठिन परिस्थितियों में पाई और बाद में दर्शनशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की। दर्शन और भारतीय शास्त्रों का गहन अध्ययन उनके उपन्यासों में प्रखर रूप से दिखाई देता है।
उनके उपन्यासों में विविधता अत्यंत व्यापक है। उन्होंने ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों से लेकर समकालीन जीवन की जटिलताओं तक पर लेखन किया। उनका उपन्यास वंशवृक्ष भारतीय पारिवारिक परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष को सामने रखता है। इसमें यह दिखाया गया है कि किस प्रकार परंपरा से बंधा हुआ परिवार बदलते समय में नई परिस्थितियों से जूझता है और नई पीढ़ी अपने निर्णय लेने में किस तरह परंपरागत जड़ों से टकराती है।
सार्थक उपन्यास में भैरप्पा ने भारतीय दर्शन के आधार पर जीवन के गहरे प्रश्नों को उठाया। यह उपन्यास अस्तित्व, प्रेम और वासना जैसे विषयों पर गहन चिंतन प्रस्तुत करता है। वहीं धर्मश्री में धर्म और अध्यात्म की मूलभूत जटिलताओं को उजागर किया गया है।
भैरप्पा की रचनाओं में इतिहास विशेष स्थान रखता है। पर्व जैसे उपन्यास ने भारतीय साहित्य में विशेष चर्चा पाई। इस उपन्यास में महाभारत की कथा को आधुनिक दृष्टि से पुनर्परिभाषित किया गया है। महाभारत की घटनाएँ केवल युद्ध और राजनीति का आख्यान नहीं रह जातीं बल्कि वे मानवीय जटिलताओं और नैतिक संघर्षों का प्रतीक बन जाती हैं। भैरप्पा यहाँ परंपरा और आधुनिकता के बीच पुल का निर्माण करते हुए भारतीय मिथकों को वर्तमान जीवन से जोड़ते हैं।
अवरण और तात्कालिक जैसे उपन्यासों में भैरप्पा ने साम्प्रदायिकता, धर्मांतरण, संस्कृति और राजनीति से जुड़े गंभीर मुद्दों को उठाया। अवरण विशेष रूप से विवादित और चर्चित रहा। इसमें भारतीय इतिहास को लेकर प्रचलित धारणाओं पर प्रश्नचिह्न लगाया गया। यह उपन्यास एक स्त्री की आत्मयात्रा के बहाने इतिहास और संस्कृति के विविध आयामों को खोलता है। इसी तरह तात्कालिक समकालीन राजनीति और सामाजिक उथल-पुथल की पड़ताल करता है।
उनका एक और महत्त्वपूर्ण उपन्यास उत्तरकांड है, जिसमें रामायण की कथा को सीता के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। यह उपन्यास स्त्री दृष्टि और पौराणिक आख्यान के सम्मिलन का अद्भुत उदाहरण है। भैरप्पा ने यहाँ दिखाया कि कैसे पौराणिक कथाएँ नई दृष्टि से पढ़े जाने पर समकालीनता से जुड़ जाती हैं।
भैरप्पा की भाषा और शिल्प पर भी ध्यान देना आवश्यक है। वे मूलतः कन्नड़ भाषा के लेखक हैं तथा उनकी रचनाएँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनूदित हुई हैं। उनकी भाषा सरल, स्पष्ट और दार्शनिक गहराई लिए हुए होती है। कथानक के साथ-साथ वे पात्रों के मानसिक द्वंद्व और परिस्थितियों का बारीक चित्रण करते हैं। उनके पात्र केवल व्यक्ति नहीं रहते, वे भारतीय समाज और संस्कृति की जटिलताओं के प्रतिनिधि बन जाते हैं।
भैरप्पा का साहित्य केवल कथात्मक नहीं है, उसमें गहरी दार्शनिकता और वैचारिकता है। उन्होंने जीवन के गहन प्रश्नों—जन्म, मृत्यु, धर्म, प्रेम, वासना, शक्ति, राजनीति और नैतिकता—को अपने उपन्यासों में उठाया। वे न तो अंध परंपरावादी हैं और न ही अंध आधुनिकतावादी। उनकी दृष्टि संतुलित और आलोचनात्मक है। वे भारतीय परंपरा को आत्मसात् करते हुए भी उससे प्रश्न पूछते हैं और आधुनिक विचारों को अपनाते हुए भी उनकी सीमाओं को पहचानते हैं।
भैरप्पा के साहित्य में भारत का सांस्कृतिक मंथन दिखाई देता है। उनका लेखन यह प्रमाणित करता है कि साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है बल्कि वह समाज और इतिहास के गहरे विमर्श का क्षेत्र है। उनकी रचनाएँ हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हमारी जड़ें कहाँ हैं और आधुनिक जीवन की भागदौड़ में हम किस ओर जा रहे हैं।
आज के संदर्भ में भैरप्पा का साहित्य और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि उन्होंने जो प्रश्न उठाए, वे आज भी हमारे सामने खड़े हैं। धर्म और संस्कृति पर होने वाली बहसें, इतिहास की व्याख्या को लेकर उठने वाले विवाद, राजनीति और समाज के बदलते समीकरण—ये सब भैरप्पा के उपन्यासों में गहरे स्तर पर मौजूद हैं। उनका साहित्य भारतीय समाज का आईना है और भारतीय मनीषा की खोज का साधन भी।
इस प्रकार, एस. एल. भैरप्पा का साहित्य भारतीय साहित्य की परंपरा में अद्वितीय है। उन्होंने उपन्यास को विचार और दर्शन की नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। वे केवल कथाकार नहीं बल्कि विचारक और दार्शनिक भी हैं। उनकी रचनाएँ हमें भारतीयता की गहरी परिभाषा देती हैं और यह बताती हैं कि साहित्य का असली उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं बल्कि आत्मा और समाज का मंथन है।
भैरप्पा का साहित्य भारतीयता की उस परंपरा से जुड़ा है जो प्रश्न पूछने और सत्य की खोज करने से पीछे नहीं हटती। उनकी दृष्टि संतुलित है—वे परंपरा को आँख मूँदकर स्वीकार नहीं करते और आधुनिकता को भी अंधानुकरण के रूप में नहीं अपनाते। उनके लिए साहित्य वह साधना है जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों अपनी जड़ों और अपनी सीमाओं को पहचानते हुए आगे बढ़ सकते हैं।
उपन्यास की विधा को भैरप्पा ने नई गरिमा दी। उन्होंने यह दिखाया कि उपन्यास केवल कथा कहने का माध्यम नहीं, बल्कि एक गहन दार्शनिक कृति भी हो सकता है। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ समय की कसौटी पर खरी उतरती हैं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने प्रकाशन काल में थीं।
भैरप्पा का साहित्य भारतीय उपन्यास की उस धारा का प्रतिनिधित्व करता है जो आत्मचिंतन, सांस्कृतिक मंथन और दार्शनिक खोज से बनी है। उनके बिना समकालीन भारतीय साहित्य अधूरा है, क्योंकि उन्होंने हमारी परंपराओं और आधुनिक जीवन के बीच पुल बनाने का साहसिक कार्य किया। उनका साहित्य एक ऐसी सतत् यात्रा है जिसमें भारतीय समाज अपने अतीत को समझते हुए भविष्य की ओर बढ़ सकता है।
एस. एल. भैरप्पा के साहित्य पर उपसंहार लिखना एक समग्र चिंतन है—एक यात्रा का सार जिसमें जीवन, इतिहास, धर्म और संस्कृति का गहन मिश्रण मिलता है। उनका लेखन केवल कथानक नहीं है, बल्कि वह एक विमर्श है, जो पाठक को भीतर तक झकझोरता है और उसे अपने अस्तित्व के प्रश्नों से रूबरू कराता है।
भैरप्पा की रचनाएँ हमें यह समझने पर मजबूर करती हैं कि साहित्य केवल शब्दों का संकलन नहीं बल्कि जीवन की गूढ़ सच्चाईयों का उद्घाटन है। पर्व में महाभारत का पुनर्निर्माण, उत्तरकांड में सीता का दृष्टिकोण, अवरण में इतिहास और पहचान का द्वंद्व—ये सभी उनके साहित्य में जीवन और दर्शन के संतुलन की अद्वितीय छवि प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्र केवल काल्पनिक नहीं बल्कि वे हमारे भीतर के प्रश्नों, जिज्ञासाओं और विरोधाभासों के जीते-जागते रूप हैं।
भैरप्पा का साहित्य यह प्रमाणित करता है कि भारतीय उपन्यास केवल समाज या इतिहास का प्रतिबिंब नहीं बल्कि वह एक दार्शनिक प्रयोग है—जहाँ लेखक संस्कृति, धर्म, नैतिकता और आत्मा के सवालों को उठाता है। वे परंपरा के संरक्षक होने के साथ-साथ उसके आलोचक भी हैं और इस द्वैत से उनके साहित्य को गहनता और व्यापकता मिलती है।
भैरप्पा का साहित्य हमें यह याद दिलाता है कि अपनी जड़ों को समझे बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। उनके विचार और कथाएँ भारतीय समाज को आत्मचिंतन और आत्मनिर्माण की दिशा में प्रेरित करते हैं। यही उनकी रचनाओं का महान उपहार है—एक ऐसी चेतना, जो न केवल आज के समय के लिए प्रासंगिक है बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रकाशस्तंभ बनेगी।
एस. एल. भैरप्पा की वैचारिकी उनके साहित्य का मूल आधार है और उनके उपन्यासों की आत्मा को आकार देती है। उनकी वैचारिकी में दर्शन, संस्कृति, इतिहास और आधुनिकता का गहन समन्वय है। वे केवल कथाकार नहीं हैं बल्कि विचारक हैं जो साहित्य को जीवन और समाज के जटिल प्रश्नों पर विमर्श का माध्यम मानते हैं।
भैरप्पा भारतीय संस्कृति और परंपरा को एक जीवंत तत्त्व मानते हैं। वे मानते हैं कि परंपरा का मूल्य केवल उसकी स्थिरता में नहीं बल्कि उसमें निहित गहराई, प्रश्न और जीवनदर्शन में है। उनकी दृष्टि में परंपरा अंधविश्वास या रूढ़िवाद नहीं बल्कि चेतना और जीवन-मूल्यों का एक स्रोत है परंतु वे अंध परंपरावाद के कट्टर विरोधी हैं और परंपरा की आलोचना करने में संकोच नहीं करते।
भैरप्पा का दृष्टिकोण धर्म को केवल आस्था का मामला नहीं मानता। वे धर्म को जीवन के नैतिक, दार्शनिक और अस्तित्वगत सवालों से जोड़ते हैं। उनके उपन्यासों में धर्म और दर्शन का गहन विमर्श मिलता है—जहाँ धर्म न केवल विश्वास का आधार है बल्कि जीवन के संकटों और द्वंद्वों का समाधान खोजने का साधन भी। पर्व, उत्तरकांड और धर्मश्री जैसे उपन्यासों में यह स्पष्ट दिखाई देता है।
भैरप्पा की वैचारिकी में इतिहास और मिथक को पुनर्परिभाषित करने का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे इतिहास को केवल तथ्य या घटनाओं का संग्रह नहीं मानते बल्कि उसे वर्तमान और भविष्य से जोड़कर देखते हैं। मिथक उनके लिए सांस्कृतिक चेतना के वाहक हैं, जिनमें मानवीय मूल्यों, संघर्षों और सत्य की परतें मौजूद होती हैं। इसी कारण वे महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों का पुनर्लेखन करते हैं, ताकि वे आज की पीढ़ी के लिए प्रासंगिक बन सकें।
भैरप्पा की वैचारिकी में व्यक्ति के भीतर चल रहे आत्मसंघर्ष को विशेष स्थान है। वे मानते हैं कि जीवन का सार इस प्रश्न में निहित है कि “हम कौन हैं और किस लिए जीते हैं।” उनके पात्र अक्सर इस प्रश्न के जवाब की तलाश में संघर्ष करते हैं। यही कारण है कि उनका साहित्य केवल कथात्मक नहीं बल्कि दार्शनिक चिंतन है।
भैरप्पा आधुनिकता को पूर्ण रूप से नकारते नहीं लेकिन वे उसके अंधानुकरण के पक्षधर भी नहीं हैं। उनकी वैचारिकी में आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन खोजने का प्रयास है। वे मानते हैं कि प्रगति तभी सार्थक है जब वह अपनी जड़ों और संस्कृति के साथ जुड़ी हो।
उनके उपन्यास समाज और राजनीति को केवल पृष्ठभूमि के रूप में नहीं लेते। वे उन्हें जीवन के अभिन्न अंग मानते हैं। साम्प्रदायिकता, सत्ता-संरचना, इतिहास के पुनर्लेखन, पहचान और संस्कृति जैसे विषय उनके साहित्य में निरंतर उपस्थित रहते हैं।
भैरप्पा की वैचारिकी में स्त्री का दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है। वे स्त्री को केवल पुरुष के परिपूरक या सौंदर्य का माध्यम नहीं मानते। उनके उपन्यासों में स्त्री स्व-चेतना, आत्म-संघर्ष और समाज में पहचान के प्रश्नों का प्रतीक बनती है—जैसा कि उत्तरकांड और अवरण में स्पष्ट है।
भैरप्पा की वैचारिकी भारतीयता और आधुनिकता के संवाद का प्रतिनिधित्व करती है। यह संवाद न केवल अतीत और वर्तमान के बीच है बल्कि व्यक्ति और समाज, धर्म और विज्ञान, परंपरा और नवाचार के बीच भी है। उनका साहित्य इस संवाद का साहित्य है—जहाँ प्रश्न अधिक हैं, उत्तर न्यून, परन्तु चिंतन की गहराई असीम है।