भारत में आरक्षण नीति नहीं राजनीति है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राजनीतिक विशेषज्ञों और अन्य लोगों की राय है कि भारत में आरक्षण प्रणाली को अब समाप्त कर दिया जाना चाहिये। इसके साथ ही, कई लोगों का तर्क है कि सकारात्मक कार्रवाई (affirmative action) संबंधी विमर्श को विवाद के रूप में वर्गीकृत करना आरक्षण से लाभान्वित हो रहे समुदायों के संघर्ष एवं प्रत्यास्थता की अनदेखी करता है। आरक्षण प्रणाली के समर्थक आरक्षण के प्रबल प्रभाव को उजागर करते हैं, जहाँ वे इस बात पर बल देते हैं कि यह अवांछनीय लाभ नहीं है बल्कि भारतीय संविधान द्वारा चिह्नित गंभीर सामाजिक हानियों को दूर करने का एक साधन है।

भारत में आरक्षण प्रणाली: 

  • परिचय: 
    • भारत की सदियों पुरानी जाति व्यवस्था देश में आरक्षण प्रणाली की उत्पत्ति के लिये ज़िम्मेदार है।
      • सरल शब्दों में कहें तो यह आबादी के कुछ वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और यहाँ तक कि विधायिका तक पहुँच को सुविधाजनक बनाने से संबंधित है।
    • इन वर्गों को अपनी जातीय पहचान के कारण ऐतिहासिक रूप से अन्याय का सामना करना पड़ा है।
    • कोटा आधारित सकारात्मक कार्रवाई के रूप में आरक्षण को सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) के रूप में भी देखा जा सकता है।
      • भारत में यह भारतीय संविधान द्वारा समर्थित सरकारी नीतियों द्वारा शासित होता है।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 
    • जाति-आधारित आरक्षण प्रणाली की परिकल्पना सर्वप्रथम वर्ष 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले द्वारा की गई थी।
    • वर्तमान में जो आरक्षण प्रणाली मौजूद है, वह सही अर्थों में वर्ष 1933 में शुरू की गई थी जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैकडोनल्ड ने सांप्रदायिक अधिनिर्णय या ‘कम्युनल अवार्ड’ (Communal Award) प्रस्तुत किया था।
    • इस अधिनिर्णय में मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय लोगों और दलितों के लिये अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया।
    • लंबी चर्चा के बाद गांधी और अंबेडकर ने ‘पूना पैक्ट’ पर हस्ताक्षर किये, जहाँ यह निर्णय लिया गया कि आरक्षण के कुछ प्रावधानों के साथ एकल हिंदू निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था होगी।
  • स्वतंत्रता के बाद: 
    • स्वतंत्रता के बाद प्रारंभ में आरक्षण केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये प्रदान किया गया था।
    • मंडल आयोग की सिफ़ारिशों पर वर्ष 1991 में अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) को भी आरक्षण के दायरे में शामिल कर लिया गया।
    • इस निर्णय के साथ ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को भी बल मिला जहाँ विचार किया गया कि पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण केवल आरंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित होना चाहिये और इसका विस्तार पदोन्नति के लिये नहीं होना चाहिये।
      • हाल ही में संविधान (103वाँ संशोधन) अधिनियम 2019 के माध्यम से अनारक्षित श्रेणी के ‘आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों’ (economically weaker sections) के लिये सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण प्रदान किया गया है।
      • इस अधिनियम ने संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन के माध्यम से आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने हेतु सरकार को सशक्त किया है। 
    • यह 10% आर्थिक आरक्षण 50% आरक्षण सीमा से अतिरिक्त रूप से प्रदान किया जा रहा है।

भारत में आरक्षण प्रणाली का विकास कैसे हुआ?  

  • संवैधानिक प्रावधान और संशोधन: 
    • संविधान का भाग XVI केंद्र और राज्य विधायिका में SC एवं ST के आरक्षण से संबंधित है।
    • संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) ने राज्य और केंद्र सरकारों को SC एवं ST समुदाय के सदस्यों के लिये सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाया है।
    • संविधान (77वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4A) शामिल किया गया जिससे सरकार पदोन्नति के मामले में आरक्षण प्रदान करने में सक्षम हुई है।
      • बाद में, आरक्षण के माध्यम से पदोन्नत SC एवं ST उम्मीदवारों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिये संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम 2001 द्वारा खंड (4A) में संशोधन किया गया।
    • संविधान (81वाँ संशोधन) अधिनियम, 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 16 (4B) शामिल किया गया जो राज्य को किसी वर्ष SC/ST के लिये आरक्षित खाली रिक्तियों को अगले वर्ष भरने में सक्षम बनाता है; इस प्रकार उस वर्ष रिक्तियों की कुल संख्या पर पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा समाप्त हो जाती है।
    • अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद और राज्य विधानमंडलों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व का अवसर प्रदान करते हैं।
      • अनुच्छेद 243D प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
      • अनुच्छेद 233T प्रत्येक नगरनिकाय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
  • न्यायिक घोषणाएँ:
    • मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईराजन (1951) मामला आरक्षण के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का पहला प्रमुख निर्णय था। इस मामले से संविधान में पहले संशोधन की राह खुली।
      • अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जबकि राज्य के तहत रोज़गार के मामले में अनुच्छेद 16(4) नागरिकों के पिछड़े वर्ग के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करता है, अनुच्छेद 15 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
      • मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार संसद ने अनुच्छेद 15 में संशोधन करते हुए इसमें खंड (4) को शामिल किया। 
    • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4) के दायरे एवं सीमा पर विचार किया।
      • न्यायालय ने कहा है कि OBCs के ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण के लाभार्थियों की सूची से बाहर किया जाना चाहिये, पदोन्नति में आरक्षण लागू नहीं होना चाहिये और कुल आरक्षित कोटा 50% से अधिक नहीं होना चाहिये। 
    • इसकी प्रतिक्रिया में संसद ने 77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया जिसके माध्यम से अनुच्छेद 16(4A) को शामिल किया गया।
      • यह अनुच्छेद राज्य को सार्वजनिक सेवाओं में पदोन्नति के मामले में SC एवं ST समुदाय के पक्ष में सीटें आरक्षित करने की शक्ति प्रदान करता है, यदि समुदायों को सार्वजनिक नियोजन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो।
    • एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4A) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से वैध होने के लिये ऐसी किसी भी आरक्षण नीति को निम्नलिखित तीन संवैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होगी:
      • SC एवं ST समुदाय सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन की शिकार हो।
      • सार्वजनिक नियोजन में SC एवं ST समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो।
      • ऐसी आरक्षण नीति प्रशासन में समग्र दक्षता को प्रभावित नहीं करती हो।
    • जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (2018) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण प्रदान के लिये राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन पर मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है।
      • न्यायालय ने माना कि ‘क्रीमी लेयर’ का अपवर्जन SC/ST में मामले में भी लागू होता है, इसलिये राज्य उन SC/ST व्यक्तियों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दे सकता जो अपने समुदाय के ‘क्रीमी लेयर’ से संबंधित हैं।
    • वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक के उस कानून को वैध घोषित किया जो परिणामी वरिष्ठता के साथ SC एवं ST के लिये पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देता है।

भारत में आरक्षण की आवश्यकता:

  • ऐतिहासिक भेदभाव: भारत में जाति-आधारित भेदभाव का पुराना इतिहास रहा है और कुछ समुदाय ऐतिहासिक रूप से समाज के हाशिये पर रहे हैं। आरक्षण का उद्देश्य इस ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना और उन लोगों के लिये अवसर प्रदान करना है जो सामाजिक एवं आर्थिक रूप से वंचना के शिकार हैं।
  • मानव विकास संकेतकों की कमी: विभिन्न डेटा और रिपोर्ट विभिन्न जाति समूहों के बीच शिक्षा, रोज़गार और संसाधनों तक पहुँच में लगातार उल्लेखनीय असमानताएँ दिखाते रहे हैं।
    • आरक्षण नीतियों को हाशिये पर स्थित समुदायों के लिये प्रतिनिधित्व एवं अवसरों तक पहुँच सुनिश्चित कर इन अंतरालों को दूर करने के दृष्टिकोण से डिज़ाइन किया गया है।
  • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना: भारतीय संविधान अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण के प्रावधान की अनुमति देता है। यह संवैधानिक अधिदेश सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
    • शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण यह सुनिश्चित करता है कि हाशिये पर स्थित समुदायों के छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच प्राप्त हो।
      • इसके प्रभावस्वरूप गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने में मदद मिलती है और इन समुदायों की समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होती है।
  • पिछड़ेपन की व्यापकता: वर्ष 1980 में मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) के लिये आरक्षण की अनुशंसा की। इन अनुशंसाओं के कार्यान्वयन का उद्देश्य कुछ सामाजिक समूहों के पिछड़ेपन को दूर करना है।
  • सामाजिक आर्थिक जनगणना डेटा: सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना (Socio Economic caste census) डेटा विशिष्ट समुदायों के बीच गरीबी की असंगत एकाग्रता और विकास की कमी को प्रकट करता है। आरक्षण नीतियाँ इन समुदायों को शिक्षा और रोज़गार में उपयुक्त अवसर प्रदान कर उनका उत्थान करने का लक्ष्य रखती हैं।
  • सरकारी रिपोर्ट और नीतियाँ: विभिन्न सरकारी रिपोर्ट, जैसे सच्चर समिति की रिपोर्ट, कुछ अल्पसंख्यक समुदायों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को उजागर करती हैं, जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की रिपोर्ट से निचली जातियों की दयनीय स्थिति उजागर हुई है।
  • सार्वजनिक रोज़गार में समतामूलक प्रतिनिधित्व: सरकारी नौकरियों में आरक्षण सार्वजनिक सेवाओं में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है और विविधता एवं समावेशिता को बढ़ावा देता है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट (Periodic Labour Force Survey Reports) में सरकारी रोज़गार में कुछ समूहों के निम्न प्रतिनिधित्व संबंधी आँकड़े इस आवश्यकता की पुष्टि करते हैं।
  • गांधीजी का मानना था कि सर्वोदय (सभी का विकास) की प्राप्ति अंत्योदय (कमज़ोरों का कल्याण) के माध्यम से हो सकेगी। विभिन्न दार्शनिकों ने इस दृष्टिकोण से विचार किया है और निष्कर्ष निकाला कि यदि आप दुनिया में अपना स्थान जाने बिना इसे डिज़ाइन कर रहे हैं तो आप सभी के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित कर सकेंगे। आरक्षण सामाजिक न्याय के लिये एक बहुमूल्य साधन है लेकिन ‘पूर्ण स्वराज’ के कई साल गुज़रने के बाद अब इसे त्यागने का समय आ गया है क्योंकि यह प्रायः राजनीतिक हेरफेर के अधीन होता है और इसके बदले कुछ ऐसा अपनाने की आवश्यकता है जो अगले दशकों में अधिक सार्वभौमिक सिद्ध हो। 

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