पद्म विभूषण, डाॅ फादर कामिल बुल्के के जन्मदिन पर सादर नमन
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
संत साहित्यकार बाबा कामिल बुल्के गौर वर्ण, आकर्षक कद-काठी, उन्नत ललाट ,श्वेत केश राशि , संतो के परिधान में साक्षात् देवदूत सदृश्य व्यक्ति का नाम- फादर कामिल बुल्के । वेशभूषा एवं धर्म के अनुसार फादर बुल्के गिरजाघर के पुरोहित, भाषाई कट्टरता से दूर हिंदी के प्रबल समर्थक, मानवता के सेवक , विद्यालय एवं महाविद्यालय में अध्यापन के क्रम में निष्ठावान शिक्षक , श्रीराम कथा के आधिकारिक विद्वान , स्वभाव एवं व्यवहार दोनों में ऋषि। धर्म प्रचार एवं मानवता की सेवा के लिए मिशन द्वारा आपको भारत वर्ष भेजा गया ।
भारत में आने के बाद आपने हिंदी संस्कृत के साथ ही भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किया। फादर बुल्के श्रीराम एवं श्री रामचरितमानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास के अनन्य उपासक बन गए।”राम कथा: उत्पत्ति और विकास” पर शोध कार्यकर पीएचडी की उपाधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1949 में प्राप्त किया। आपके निदेशक प्रसिद्ध विद्वान डॉ माता प्रसाद गुप्त थे। आज भी श्रीराम कथा के शोधार्थियों के लिए फादर बुल्के का शोध आधार ग्रंथ बना हुआ है।
तत्कालीन समय में हिंदी के शोध ग्रंथ भी रोमन लिपि में ही प्रस्तुत किए जाते थे। हिन्दी प्रेमी कामिल बुल्के ने ऐसा करने से अपने को मना कर दिया। विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ अमरनाथ झा को आवेदन दिया कि इस शोध प्रबंध को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए ।अंग्रेजी साहित्य के विद्वान कुलपति डाॅ झा ने फादर कामिल बुल्के के इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तत्संबंधी विश्वविद्यालय के प्रावधानों में संशोधन भी किया।
बाबा कामिल बुल्के को वर्ष 1949 में उपाधि मिली। जिसे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने पुस्तकाकर 1950 में प्रकाशित किया। उसके बाद फादर कामिल बुल्के रांची स्थित सेंट जेवियर महाविद्यालय में हिंदी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त किया गया ।
भारतीय मानस में संत और ऋषियों की जो परिकल्पना की गई है फादर कामिल बुल्के उसके मूर्तिमान विग्रह बन गए ।ईसाई धर्मावलंबियों में कई चमत्कारों एवं उनके आध्यात्मिक गुणों के चलते संत की उपाधि दी। यीशु समाजियों ने शील , स्वभाव स्वाध्याय एवं चरित्र के आधार पर संत की उपाधि से विभूषित किया । उनके समाज में फादर बुल्के संत हो गये।भारत सरकार ने उनकी उपलब्धियों के आधार पर वर्ष 1974 में पद् विभूषण की उपाधि से सम्मानित किया ।देश और विदेश में उन्हें शताधिक के सरकारी एवं गैर सरकारी सम्मान भी मिला है।
फादर बुल्के का जन्म 1 सितंबर 1909 को बेल्जियम के पश्चिम फ्लेंडर्स राज्य के रम्सकपले में हुआ था। आध्यात्मिक रुचि एवं भारत के प्रति उनके आकर्षण को देखते हुए उन्हें यीशु समाजियों ने भारत भेजने का निर्णय लिया। 20 अक्टूबर 1935 को वे पानी के जहाज से बम्बई पहुंचे। उसके बाद रांची। रांची आकर वे रांची के ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष के हो गए।उनका पुरोहिताभिषेक वर्ष 1941 में हुआ और वे ब्रदर से फादर हो गए। गंभीर बीमारी के चलते उनका अंतिम इलाज दिल्ली में हो रहा था जहां उनकी मृत्यु 17 अगस्त 1982 को हो गई। उन्हें दिल्ली के निकालसन कब्रगाह में अंतिम मिट्टी दी गई ।इस प्रकार भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व के मानवतावादी लोगों का एक प्रिय संत पंचतत्व में विलीन हो गया ।
डॉ उदय नारायण तिवारी ने उनके विषय में लिखा है कि “फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व में पाश्चात्य और पौरस्त्य दोनों संस्कृतियों का अपूर्व सामंजस्य है। एक ओर वे ईसा भाव से ओतप्रोत हैं तो दूसरी ओर वे “नानापुराण निगमागम” मंडित श्रीरामचरितमानस की परंपरा से जुड़े हैं। उनके विग्रह में प्राचीन ईसाई संतो तथा भारतीय संतों का अद्भुत मणिकांचन सम्मिश्रण है।
प्रख्यात हिन्दी सेवी फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ था। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी।
1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय वे दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला (वर्तमान में झारखंड में) में 5 वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वे बाद में प्रसिद्ध हुए।
उन्होंने लिखा है- “मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेज़ी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।”
‘कामिल’ शब्द के दो अर्थ माने जाते हैं। एक अर्थ है- ‘वेदी-सेवक’ और दूसरा अर्थ है- ‘एक पुष्प का नाम।’ फ़ादर कामिल बुल्के दोनों ही अर्थों को चरितार्थ करते थे। वे जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में ‘वेदी-संन्यासी’ थे और एक व्यक्ति के रूप में महकते हुए पुष्प। ऐसे पुष्प, जिसकी उपस्थिति सभी के मनों को खुशबू से भर देती है। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ में लिखा है- “फूल मरै पर मरै न बासू।” यह पंक्ति फ़ादर कामिल बुल्के पर पूरी तरह सटीक बैठती है।
फादर कामिल बुल्के भारत आकर मृत्युपर्यन्त हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे। वे कहते थे कि संस्कृत महारानी है, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी को नौकरानी। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
उनका बनाया शब्दकोश आज भी मानक है। उनसे प्रेरणा लेते हुए अब हिन्दी सेवियों को एक नया परिवर्धित शब्दकोश बना लेना चाहिए। 17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान मृत्यु हो गयी।