भाषण में आर.एस.एस के निहितार्थ
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हमारे देश में संविधान सर्वोपरि है। संविधान में यह उद्धृत नहीं है कि आप अमुक संगठन के सदस्य होंगे तो आपको पद ग्रहण नहीं करना चाहिए और इसके बारे में भाषण नहीं करनी चाहिए। लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री जी के भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उद्धृत करना, उस संगठन का सम्मान है जिसके वे प्रचारक रह चुके हैं। संघ को कई बार प्रतिबंधित किया गया फिर उसे मुख्य धारा का संगठन बताते हुए 1963 के राजपथ पर होने वाले कदमताल (परेड) में उसे नेहरू जी ने सम्मानित करके देश व चीन को संदेश दिया था।
दरअसल हमारे मस्तिष्क में यह सेकुलर शब्द का कीड़ा जो प्रवेश कर गया है, वह परेशान कर देता है और इसका नाम लेते ही उसे गांधी की हत्या का आरोपी, स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लेने वाला संगठन एवं देश में अब तक हुए कई दंगों से जोड़कर देखा जाता है। कांग्रेस एवं वामपंथी सोच वाले पत्र-पत्रिकाओं एवं अखबारों ने आर.एस.एस को मुसलमानों का कट्टर विरोधी बताते हुए सभी दंगों में उनकी संलिप्तता को प्रस्तुत करते हैं। देश में स्वतंत्रता के बाद हम अपने विचारधारा को संवाद के बजाय उसे समाज में येन-केन-प्राकेण आरोपित करते रहे, इसमें देश पीछे छूट गया।
जनता ने जिस 90 वर्षों की संघर्ष से राष्ट्र को स्वतंत्र कराया था, वह क्षेत्र, भाषा, बुनियादी संरचना, संसाधन के बंटवारों पर अपना ध्यान आकृष्ट कर लिया, फलस्वरुप जनमानस विकास को लेकर व्यक्तिवादी हो गया। इसकी बानगी यह है की प्रमुख रक्षा उपकरण, कृषि प्रौद्योगिकी प्रमुख शैक्षिक संस्थानों में देख सकते हैं। यह सत्य है कि अपने 100 वर्ष के यात्रा में आर.एस.एस ने भारतीयता की सामाजिक सांस्कृतिक कलेवर या औरा को और सुदृढ़ किया है। संघ ने अपना गुरु भगवा ध्वज को मना है जो साहस का प्रतीक है। यह साहस राष्ट्र के लिए अपने को समर्पित करता है। राष्ट्र की मिट्टी से उपजा यह संगठन राष्ट्र के लिए ही समर्पित है।