क्या राज्यपाल के पद को समाप्त कर दिया जाना चाहिये?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

तमिलनाडु के राज्यपाल से जुड़े मुद्दे ने एक बार फिर राज्यपाल नामक औपनिवेशिक संस्था को बनाये रखने के मुद्दे को उजागर किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें याद दिलाया कि वह निर्वाचित प्राधिकारी नहीं हैं और उन्हें निर्वाचित सरकार के निर्णय को यूँ लटकाए नहीं रखना चाहिये, जिसके बाद उन्होंने तमिलनाडु राज्य विधानमंडल द्वारा सहमति के लिये उन्हें भेजे गए सभी 10 विधेयक वापस कर दिए।

यह सुनिश्चित करने के लिये कि इन विधेयकों को सहमति प्राप्त हो, इन विधेयकों को फिर से पारित करने के लिये तमिलनाडु विधानसभा के अध्यक्ष द्वारा एक विशेष सत्र का आह्वान किया गया। इसके अतिरिक्त, अन्नाद्रमुक मंत्रियों के विरुद्ध मुकदमा चलाने की मंज़ूरी, तमिलनाडु लोक सेवा आयोग में नियुक्ति और कैदियों की समय से पूर्व रिहाई के संबंध में राज्य सरकार के निर्णय को राज्यपाल द्वारा बिना किसी स्पष्ट कारण के अभी भी अवरुद्ध रखा गया है।

विधेयकों को पारित करने के संबंध में राज्यपाल की शक्तियाँ 

  • विधेयकों को पारित करने के संबंध में राज्यपाल की शक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 द्वारा परिभाषित हैं। इन अनुच्छेदों के अनुसार, जब राज्य विधानमंडल द्वारा राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उसके पास निम्नलिखित विकल्प होते हैं:
    • वह विधेयक पर सहमति दे सकता है, जिसका अर्थ है कि विधेयक एक अधिनियम बन जाता है।
    • वह विधेयक पर अपनी सहमति रोक सकता है, जिसका अर्थ है कि विधेयक निरस्त कर दिया गया है।
    • वह विधेयक (यदि यह धन विधेयक नहीं है) को विधेयक पर या उसके कुछ उपबंधों पर पुनर्विचार के अनुरोध वाले संदेश के साथ राज्य विधानमंडल को वापस भेज सकता है।
      • यदि उक्त विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के दोबारा पारित किया जाता है तो राज्यपाल इस पर अपनी सहमति नहीं रोक सकता।
    • वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित कर सकता है, जो या तो विधेयक पर सहमति दे सकता है या अनुमति रोक सकता है, या राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिये राज्य विधानमंडल को वापस भेजने का निर्देश दे सकता है।
      • यदि विधेयक राज्य उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता है तो राज्यपाल द्वारा विधेयक पर रोक लगाना अनिवार्य है।
      • विधेयक संविधान के प्रावधानों, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतोंदेश के व्यापक हित या गंभीर राष्ट्रीय महत्त्व के विरुद्ध है, या संविधान के अनुच्छेद 31 A, के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित है—यह तय करना राज्यपाल के विवेकाधीन है।

राज्यपाल के पद से संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ 

  • राज्यपालों की नियुक्ति: राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इससे राज्यपाल की राजनीतिक तटस्थता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं।
    • ऐसे दृष्टांत सामने आते रहे हैं जब केंद्र में सत्तारूढ़ दल के किसी सदस्य को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया या राजनीतिक कारणों से उसे हटा दिया गया या स्थानांतरित कर दिया गया।
    • यह राज्यपाल के पद की गरिमा और स्थिरता को कमज़ोर करता है।
  • राज्यपालों की भूमिका और शक्तियाँ: संविधान के तहत राज्यपाल को विभिन्न भूमिकाएँ और शक्तियाँ सौंपी गई हैं, जैसे राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति देना, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करना, राज्य के विभिन्न विषयों पर राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना और कुछ राज्यों में विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना।
    • हालाँकि, ये भूमिकाएँ और शक्तियाँ प्रायः राज्यपाल के विवेकाधीन (discretion) होती हैं, जिससे निर्वाचित राज्य सरकार के साथ टकराव की स्थिति बन सकती है।
    • तमिलनाडु जैसे मामले सामने आते रहे हैं, जहाँ राज्यपालों ने विधेयकों पर सहमति देने में देरी की या उन्हें रोक दिया, राज्य सरकारों को बर्खास्त या भंग कर दिया, राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की या राज्य विश्वविद्यालयों के कामकाज में हस्तक्षेप किया।
    • इन कार्रवाइयों की राज्य सरकारों या विपक्षी दलों द्वारा मनमानी, पक्षपातपूर्ण या असंवैधानिक के रूप में आलोचना की गई।
  • राज्यपालों की जवाबदेही और प्रतिरक्षा: यद्यपि राज्यपाल को राज्य सरकार में राष्ट्रपति के समकक्ष माना जाता है, वास्तविकता यह है कि वे केंद्र सरकार के एजेंट रहे हैं और बने रहेंगे, जिन्हें लोकप्रिय रूप से निर्वाचित राज्य सरकारों की शक्ति पर नियंत्रण के लिये नियुक्त किया जाता है।
    • राज्यपाल को केंद्र सरकार की मर्जी पर पद से हटाया जा सकता है।
    • राज्यपाल इस बात से आश्वस्त होते हैं कि जब तक वे केंद्र सरकार के अनुरूप कार्य करते रहेंगे, वे अपने पद पर बने रहेंगे। राज्य के प्रमुख के रूप में वे पद पर बने रहते हुए अपने कार्यों के लिये न्यायालयों के प्रति भी जवाबदेह नहीं होते (अनुच्छेद 361)।

राज्यपाल के पद के संबंध में संविधान निर्माताओं के क्या विचार थे?

  • संविधान सभा के कुछ सदस्य, जैसे दक्षिणायनी वेलायुधन, विश्वनाथ दास और एच.वी. कामथ राज्यपालों से संबंधित प्रावधानों के प्रखर आलोचक थे।
    • उनका तर्क था कि संविधान का मसौदा भारत सरकार अधिनियम 1935 की प्रतिकृति है जहाँ केंद्र को बहुत अधिक शक्तियाँ दी गई हैं और राज्यों की स्वायत्तता को कम कर दिया गया है।
    • उन्हें यह भी भय था कि राज्यपाल केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करेंगे और राज्य सरकारों के कार्य में हस्तक्षेप करेंगे।
  • दूसरी ओर, संविधान के मुख्य वास्तुकार बी.आर. अंबेडकर ने राज्यपालों से संबंधित मौजूदा प्रावधानों का बचाव किया।
    • उन्होंने कहा कि भारत सरकार अधिनियम 1935 में बदलाव करने के लिये बहुत कम समय था और राज्यपालों को केवल राज्य सरकारों के साथ मिलकर कार्य करना है, न कि उन पर अधिभावी होना है।
    • राज्यपाल द्वारा केंद्र के अनुसार कार्य करने की आशंका—जिसकी संभावना कई सदस्यों द्वारा उजागर की गई, को डा. अंबेडकर द्वारा संबोधित नहीं किया गया।
    • उन्होंने इस बारे में भी कुछ नहीं कहा कि राज्यपाल संबंधी प्रावधानों में कोई सुधार क्यों नहीं किया गया, जबकि भारत सरकार अधिनियम 1935 के कई प्रावधानों को आवश्यकतानुसार सुधार के साथ संविधान में शामिल किया गया था।

क्या राज्यपाल के पद को समाप्त कर दिया जाना चाहिये?

  • राज्यपालों द्वारा इस तरह के आचरण पर तत्काल प्रतिक्रिया प्रायः यह होती है कि इस संस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए।
  • हालाँकि यह दृष्टिकोण अविवेकपूर्ण और अनावश्यक दोनों है।
    • अविवेकपूर्ण इसलिये क्योंकि वेस्टमिंस्टर संसदीय लोकतंत्र (Westminster parliamentary democracy) में राज्य के प्रमुख और सरकार के प्रमुख दोनों की उपस्थिति की आवश्यकता होती है और राज्यपाल का पद समाप्त करना पूरी प्रणाली को समाप्त करने के समान होगा।
    • अनावश्यक इसलिये क्योंकि न्यायिक हस्तक्षेप या संवैधानिक सुधार जैसे व्यवहार्य विकल्प पहले से मौजूद हैं।

कौन-से क्या सुधार उपाय किये जा सकते हैं?

  • न्यायिक हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय राज्यपालों के आचरण की निगरानी करना जारी रख सकता है और यह सुनिश्चित करने के लिये निर्देश या टिप्पणियाँ जारी कर सकता है कि वे संविधान एवं कानून के अनुसार कार्य करें।
    • इससे राज्यपालों की मनमानी या पक्षपातपूर्ण कार्रवाइयों को रोकने और भारतीय राजनीति के संघीय सिद्धांत को बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
  • वर्तमान नियुक्ति और निष्कासन प्रक्रिया में सुधार करना: राज्यपालों की नियुक्ति और निष्कासन की प्रक्रिया को बदलने के लिये संविधान में संशोधन किया जा सकता है, जैसा ‘हेड्स हेल्ड हाई’ के लेखकों ने सुझाव दिया है।
    • इसमें एक अधिक पारदर्शी और परामर्शी तंत्र शामिल हो सकता है, जैसे कि कॉलेजियम या संसदीय समिति, जो योग्यता और उपयुक्तता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन कर सकती है।
    • राज्य विधानमंडल के प्रस्ताव या न्यायिक जाँच की आवश्यकता के साथ राज्यपालों के निष्कासन को और भी कठिन बनाया जा सकता है।
  • राज्यपाल को राष्ट्रपति जैसा दर्जा प्रदान करना: राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के प्रति उसी तरह जवाबदेह बनाया जा सकता है जैसे राष्ट्रपति केंद्रीय संसद के प्रति जवाबदेह होता है। राज्यपाल के लिये भी निर्वाचन से नियुक्ति और महाभियोग से निष्कासन जैसे उपाय किये जा सकते हैं।
    • राज्यपाल को एक निर्वाचित प्रतिनिधि बनाना: राज्यपाल को केंद्र सरकार द्वारा नामित व्यक्ति के बजाय राज्य का एक निर्वाचित प्रतिनिधि बनाया जा सकता है।
      • इससे इस पद की जवाबदेही एवं वैधता बढ़ सकती है और केंद्र द्वारा हस्तक्षेप या प्रभाव की गुंजाइश कम हो सकती है।
      • राज्यपाल का चुनाव राज्य विधानमंडल या राज्य के लोगों द्वारा किया जा सकता है, जैसा कि राष्ट्रपति के मामले में होता है।
  • महाभियोग योग्य: राज्यपाल को संविधान के उल्लंघन या कदाचार के आधार पर राज्य विधानमंडल द्वारा महाभियोग योग्य (Impeachable) बनाया जा सकता है।
    • यह राज्यपाल की शक्ति और अधिकार पर नियंत्रण एवं संतुलन प्रदान कर सकता है और पद के किसी भी दुरुपयोग को रोक सकता है।
    • राज्यपाल पर महाभियोग की प्रक्रिया को राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया के समान बनाया जा सकता है, जहाँ कुल सदस्यता के बहुमत और राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों में उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी।

विभिन्न समितियों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए संवैधानिक सुधार 

  • सरकारिया आयोग (1988):
    • राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद की जानी चाहिये।
    • राज्यपाल को सार्वजनिक जीवन के किसी क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिये और उस राज्य से संबंधित नहीं होना चाहिये जहाँ वह नियुक्त किया जा रहा है।
    • दुर्लभ एवं बाध्यकारी परिस्थितियों को छोड़कर राज्यपाल को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले नहीं हटाया जाना चाहिये।
    • राज्यपाल को केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करना चाहिये न कि केंद्र के एजेंट के रूप में।
    • राज्यपाल को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग संयमित और विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिये और उनका उपयोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर करने के लिये नहीं करना चाहिये।
  • वेंकटचलैया आयोग (2002):
    • राज्यपालों की नियुक्ति एक समिति को सौंपी जानी चाहिये जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।
    • राज्यपाल को पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने की अनुमति दी जानी चाहिये, जब तक कि दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर वे इस्तीफा नहीं दे देते या राष्ट्रपति द्वारा हटा नहीं दिए जाते।
    • केंद्र सरकार को राज्यपाल को हटाने की कोई भी कार्रवाई करने से पहले मुख्यमंत्री से सलाह लेनी चाहिये।
    • राज्यपाल को राज्य के दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। उन्हें राज्य सरकार के मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिये और अपनी विवेकाधीन शक्तियों का संयमपूर्वक उपयोग करना चाहिये।
  • पुंछी आयोग (2010):
    • आयोग ने संविधान से ‘राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ (during the pleasure of the President) वाक्यांश को हटाने की सिफारिश की, जिसके अनुसार राज्यपाल को केंद्र सरकार की इच्छा पर हटाया जा सकता है।
      • इसके बजाय, आयोग ने सुझाव दिया कि राज्यपाल को केवल राज्य विधानमंडल के एक प्रस्ताव द्वारा ही हटाया जाना चाहिये, जो राज्यों के लिये अधिक स्थिरता और स्वायत्तता सुनिश्चित करेगा।
  • बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले के निर्णय में कहा कि राष्ट्रपति किसी भी समय और बिना कोई कारण बताए राज्यपाल को हटा सकता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत ‘राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ अपने पद पर बना रहता है। हालाँकि न्यायालय ने यह भी कहा कि पद से उसका निष्कासन मनमाना, मनमौजी या अनुचित कारणों पर आधारित नहीं होना चाहिये।

निष्कर्ष

भारत में राज्यपालों की भूमिका पर जारी चर्चा सूक्ष्म सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करती है। जबकि इस पद का पूर्ण उन्मूलन अविवेकपूर्ण समझा जाता है, पारदर्शी नियुक्ति,  जवाबदेही की वृद्धि और सीमित विवेकाधीन शक्तियों के प्रस्ताव सामने रखे गए हैं। लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमज़ोर किये बिना राज्यपाल के पद के प्रभावी कार्यकरण को सुनिश्चित करने के लिये राज्य और केंद्र के हितों के बीच संतुलन बनाना महत्त्वपूर्ण है।

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