श्रीकृष्ण हमारे समाज में प्रेम की प्रतिमूर्ति है

श्रीकृष्ण हमारे समाज में प्रेम की प्रतिमूर्ति है

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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श्रीकृष्ण की श्यामल मेघ की तरह घनीभूत उनकी आभा, गगन की नीलिमा में घुली उनकी दृष्टि और अनाहत स्वर की तरह बजती उनकी बाँसुरी—श्रीकृष्ण का नाम आते ही मानो समूचा जीवन संगीत और रंगों से भर उठता है। वे केवल पुराणों के पात्र नहीं, केवल धर्म के अवतार नहीं, वे जीवन की समग्रता हैं। उनके अस्तित्व में वह चपलता है जो यमुना के जल की लहरों में झिलमिलाती है, वह गहराई है जो समुद्र की अथाह गोद में छिपी है और वह उज्ज्वलता है जो पीताम्बर की रश्मियों में सूर्य की किरणों-सी फैल जाती है।

कृष्ण की छवि बालपन की चपलता से आरम्भ होती है। गोकुल की गलियों में माखन चुराते, उल्हाने खाते, माँ के डाँटने पर नयन भर आँसू बहाते और फिर क्षण भर में हँसी की उजास से मुखमंडल को आलोकित कर देने वाले वह ललित बालक। उनके छोटे-छोटे पगचिह्न जब गोपियों के आँगन में पड़ते तो लगता मानो स्वर्ग के पुष्प पथ पर बिखर गए हों। वह बालपन केवल लीला नहीं, वह संसार को बताने का एक रूपक है कि जीवन का आरम्भ ही आनंद से होना चाहिए।

फिर आते हैं वे युवा रूप में—गोपियों के मनोहर सखा, राधा के शाश्वत प्रिय। उनकी बाँसुरी जब बजती है तो यमुना के तट पर पेड़ ठिठककर सुनते हैं, पवन अपनी गति रोक लेता है, नदियाँ प्रवाह को धीमा कर लेती हैं और समूची प्रकृति संगीत में लीन हो जाती है। उस स्वर में न कोई भाषा है, न कोई सीमा। वह केवल हृदय की धड़कनों से संवाद करता है। गोपियाँ सब कुछ भूलकर उस स्वर के पीछे दौड़ पड़ती हैं, मानो उनका अपना अस्तित्व उसी बाँसुरी की धुन में समाया हो। कृष्ण की यह छवि प्रेम की पराकाष्ठा है—एक ऐसा प्रेम जो शरीर के बंधन से परे है जो आत्मा के भीतर की छुपी प्यास को तृप्त करता है।

कृष्ण केवल रति और माधुर्य के देवता नहीं, वे करुणा के भी प्रतीक हैं। जब-जब पीड़ा का बादल छाता है, वे अपने करुणामय नेत्रों से उसे दूर करते हैं। कालिया नाग के फनों पर नृत्य करते बालक कृष्ण में जहाँ शौर्य का दर्शन होता है, वहीं गोवर्धन पर्वत को अंगुली पर उठाकर वृजवासियों को इन्द्र के कोप से बचाने वाले कृष्ण में करुणा का अद्भुत रूप दिखाई देता है। उनके शौर्य में भी कोमलता है और उनकी कोमलता में भी असीम शक्ति।

जब वे महाभारत के रणक्षेत्र में अर्जुन के सारथी बनते हैं, तब उनका स्वरूप और विराट हो उठता है। गीता के श्लोकों में उनका वाक्य केवल उपदेश नहीं बल्कि जीवन के प्रश्नों का उत्तर है। धर्म और अधर्म, कर्तव्य और मोह, युद्ध और शांति—इन सबके बीच वे संतुलन का स्वर बनते हैं। वे कहते हैं—कर्म करो, फल की चिंता मत करो। उनके शब्दों में समूची मानवता के लिए मार्गदर्शन है। कृष्ण वहाँ केवल मित्र नहीं, केवल सारथी नहीं, वे विश्व के नायक हैं, जीवन के तात्त्विक द्रष्टा हैं।

राधा के साथ उनका संबंध मानव-हृदय के सबसे गहन रहस्य का उद्घाटन है। राधा केवल उनकी प्रेमिका नहीं, वे उनकी आत्मा की दूसरी छवि हैं। कृष्ण बिना राधा अधूरे हैं, और राधा बिना कृष्ण। दोनों का मिलन केवल दो व्यक्तियों का संयोग नहीं, वह आत्मा और परमात्मा का संगम है, प्रेम और सौन्दर्य की अनंत धारा का प्रवाह है। चित्रकारों ने जब-जब इस मिलन को कैनवास पर उतारा, कवियों ने जब-जब इसे शब्दों में बाँधा, तब-तब संसार ने अनुभव किया कि प्रेम किसी बंधन में नहीं बँधता, वह मुक्त है, वह अनन्त है।

कृष्ण की बाँसुरी केवल धुन नहीं, वह जीवन का संदेश है। उसमें विरह भी है, मिलन भी है। उसमें करुणा भी है, शौर्य भी है। उसमें शून्यता की गूंज भी है, और पूर्णता की रागिनी भी। वही बाँसुरी उन्हें नन्दलाल से मुरलीधर, माधव से मुकुंद तक अनेक नाम देती है। उस धुन में गोकुल की धूल भी है और गीता का अमृत भी।

कृष्ण की छवि रंगों में ढली तो वह नीलवर्ण हो गई। नीला रंग उनके अनंत स्वरूप का प्रतीक है। जैसे आकाश, जैसे समुद्र, वैसा ही उनका हृदय। उसमें जितना डूबो, उतनी गहराई मिलती है। उनके पीताम्बर का रंग उस गहराई में प्रकाश की तरह फैलता है। वे नीले और पीले के संगम में जीवन के द्वंद्वों को समेटते हैं—अंधकार और प्रकाश, शून्यता और पूर्णता।

कृष्ण के चरणों में धूल समर्पित करने वाली गोपियों की छवि हमें बताती है कि प्रेम में अहंकार का कोई स्थान नहीं। वहीं द्वारका के राजसिंहासन पर बैठे कृष्ण हमें दिखाते हैं कि राज्य और वैभव भी उन्हें बाँध नहीं पाते। वे साधारण और असाधारण दोनों में समाए रहते हैं।

उनका विराट रूप वर्णन से परे है। जब अर्जुन के सम्मुख वे समूचे ब्रह्माण्ड को अपने शरीर में प्रकट करते हैं, तब दर्शक ठिठक जाता है। वह दृश्य केवल एक योद्धा को नहीं बल्कि मानवता को यह बताता है कि कृष्ण मात्र व्यक्ति नहीं, वे स्वयं जीवन का विराट स्वरूप हैं। उनका स्मरण हमें सीमाओं से परे ले जाकर अनंत से जोड़ देता है।

कृष्ण की लीलाएँ लोकगीतों में गूँजती हैं, चित्रों में खिलती हैं, नृत्य में झूमती हैं। चाहे ब्रज की होली हो या झूलों का सावन, हर उत्सव में कृष्ण की उपस्थिति रंगों और संगीत की तरह छाई रहती है। उनके बिना भारतीय संस्कृति का कोई उत्सव पूर्ण नहीं लगता।

वे हँसी में हैं, आँसू में हैं, शरारत में हैं, गंभीरता में हैं। वे खेतों की हरियाली में हैं, नगर की चहल-पहल में हैं, साधु के ध्यान में हैं और ग्वाल-बाल के खेल में भी। कृष्ण का नाम लेते ही जीवन की जटिलताएँ सरल हो जाती हैं और साधारण क्षण भी असाधारण बन जाते हैं।

कृष्ण वह दीप हैं, जो हर युग के अंधकार को आलोकित करते हैं। वे केवल एक मिथक की कथा नहीं, वे प्रत्येक वर्तमान की धड़कन हैं। उनका स्मरण हमें बताता है कि जीवन में आनंद आवश्यक है, प्रेम आवश्यक है, कर्तव्य आवश्यक है और अंततः आत्मा का परमात्मा से मिलन ही जीवन की पूर्णता है।

वे आज भी हमारे साथ हैं—नीले गगन की गहराई में, यमुना के जल की तरंगों में, मंदिर की आरती में, कवि के गीत में, चित्रकार की रेखाओं में और सबसे बढ़कर, हमारे हृदय की धड़कनों में। जब मन थक जाता है, तब उनकी बाँसुरी का स्वर सुनाई देता है। जब जीवन उलझ जाता है, तब उनकी गीता का उपदेश मार्ग दिखाता है। जब प्रेम विरह में डूब जाता है, तब उनकी राधा के प्रति अनन्य भक्ति हमें स्मरण कराती है कि प्रेम का स्वरूप चिरंतन है।

श्रीकृष्ण केवल कथा नहीं, केवल गीत नहीं, केवल चित्र नहीं, वे जीवन की लय हैं, जीवन का माधुर्य हैं, जीवन का संगीत हैं। वे अनंत हैं, और उनकी उपस्थिति हमें यह बताती है कि जब तक संसार में प्रेम और सौन्दर्य जीवित हैं, तब तक कृष्ण अमर रहेंगे।

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