यत्र तत्र थूकने से वायरस, बैक्टीरिया और बीमारी फैलने की अचूक गारंटी होती है,कैसे?

यत्र तत्र थूकने से वायरस, बैक्टीरिया और बीमारी फैलने की अचूक गारंटी होती है,कैसे?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

रूपांतरित होती महामारी के दौर में नये साल के अवसर पर एक पुराने प्रचलन की तरफ ध्यान आकर्षित करना सोशल मीडिया पर घूमती तस्वीरों को देखने से ज्यादा जरूरी है. वह है मनुष्य की उदारतापूर्वक और बेपरवाही से थूकने की आदत! इससे सभ्यता, संस्कृति और समाज की थुक्कम-फजीहत तो होती ही है, यह वायरस, बैक्टीरिया और बीमारी फैलने की अचूक गारंटी होती है.

क्या हम सुंदर और सेहतमंद जीवन के लिए इतनी छोटी आदत में सुधार नहीं कर सकते? साल 2020 में विश्वव्यापी महामारी के प्रताप से सार्वजनिक स्थानों पर थूकने पर कानूनी प्रतिबंध लगाया गया था. क्या महज कानून हमें थूकने से रोक सकते हैं? थूकने से पहले एक बार तो सोचा जा सकता है. उन्नीसवीं सदी तक यूरोप में थूकने की आदत और परंपरा जबरदस्त थी.

साल 1940 में फैले टीबी की बीमारी की वजह से पहली बार थूकने के विरुद्ध औपचारिक निर्देश आने लगे. ब्रिटेन में 1990 तक थूकने वाले पर पांच पाउंड का जुर्माना लगाया जाता था. फिर भी थुक्कम फजीहत होता रहा. और तो और फुटबॉल मैच में खिलाड़ी थूकते पाये गये हैं. एक दूसरे पर थूक कर खिलाडी आपस में प्रतिरोध व्यक्त करते हैं.

फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय महासंघ ने इसी साल एक कठोर नियम बनाया है. लेकिन भला थूकना किसी ने कभी छोड़ा? राजनेता या नीति उपदेशक के प्रवचनों ने भला कभी मानवीय स्वभाव में परिवर्तन किया है? इसीलिए इस पर गंभीर चर्चा की आवश्यकता है.

गांधी जी ने स्वच्छता को भी उतना ही महत्व दिया था, जितना अन्य नैतिक मूल्यों को. उनके लिए स्वच्छता सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना से जुड़ा था. वे साफ-सफाई को साधारण मानवीय गुण मानकर उनको जीने में विश्वास करते थे. सूचना के तौर पर थोड़े बहुत याद हों, भावना के रूप में निश्चय ही गांधी भूले जा चुके हैं. साफ-सफाई व स्वास्थ्य आदि की चिंता हमने सरकारी तंत्र के हवाले छोड़ दिया.

जैसे सरकारी विभाग कुछ खास अवसरों पर ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव करते हैं, वैसे ही हम थोड़ा-बहुत साफ-सफाई कर लेते हैं. लेकिन सड़क, नदी-नाले, पोखर-तालाब, गली-मोहल्ला हमारे थूक और कूड़े-कचरे से त्रस्त हैं. क्या गांव, क्या शहर, छोटा या बड़ा नगर-महानगर, सब जगह हमारे थुक्कम फजीहत के निशान हैं. जगह छोड़िए, रिश्ते-नातों में भी ऐसी ही अस्वस्थ प्रवृति दिखती है.

चाचा, मामा, फूफा सब थूक रहे हैं. किशोर-युवाओं को वही सब देखते हुए नवयुगीन थूकबाज बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है. लड़के तो यही सोचते हुए बड़े होते हैं कि पुरूष होने का मतलब है तंबाकू, पान आदि चबाना और धड़ल्ले से थूक फेंकना. महिलाएं संभवतः वैसे नहीं थूकतीं, जैसे पुरुष थूकते हैं. अगर थूकना है, तो भारत की बेटियां छुपा कर थूकती हैं.

कितने ही लोगों को यही लगता है कि कायदा-कानून सब कुछ ठीक कर सकता है. डर कर कभी कोई सुधरता है? तब तो जेल काट चुके लोग कभी दोबारा अपराध नहीं करते. जिन आदतों का घनघोर समाजीकरण हो गया हो और उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यता मिल गयी हो, वह भला पुलिसिये पकड़ में कैसे आयेंगे?

बेचारे अंग्रेजों ने भी स्वास्थ्य और स्वच्छता की व्यवस्था के लिए एक कानून बनाया था. चाहे अंग्रेज अपने-आप में कितने ही असभ्य थे, उन्होंने ठान रखा था कि वे असभ्य उपनिवेशों को सभ्य बना कर छोड़ेंगे. जब 1896-97 में औपनिवेशिक भारत के कुछ हिस्सों में बूबोनिक प्लेग फैल रहा था, तब अंग्रेजी सरकार को लगा कि प्लेग रोकने के लिए और कड़े कानून की जरूरत थी, ताकि अगर लाइम और ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव किया जा रहा है, तो लोग थूकना आदि न करें.

लेकिन क्या ऐसा हुआ? एक सदी से ज्यादा समय बाद भारत एक बार फिर लौटा उसी कानून की तरफ. साल 2020 के लॉकडाउन के दौरान भारत सरकार ने अंग्रेजों के बनाये कानून में संशोधन के लिए एक अध्यादेश जारी किया. उद्देश्य था कि उस पुराने कानून को और सशक्त किया जाए ताकि स्वास्थ्यकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार या असहयोग करने वाले को दंडित किया जा सके.

राज्य सरकारों को भी और अधिकार दिये गये ताकि वे भी थूकने वालों पर अंकुश लगा सकें. उस संशोधित कानून के अलावा गृह मंत्रालय ने एक और फरमान जारी किया. आपदा प्रबंधन एक्ट के तहत थूकने को गैरकानूनी घोषित किया. सार्वजनिक स्थानों पर थूकने वालों पर अलग-अलग राज्यों ने जुर्माना लगाया गया.

इसी कानूनी प्रावधान से जोड़कर अनेक राज्यों में पान-गुटखा आदि उत्पादों के बिक्री पर रोक लगायी गयी. प्रायः यही माना जाता रहा है कि सब थूकने वाले इन उत्पादों का सेवन करते हैं. कोई दो राय नहीं कि तंबाकू, पान, सुपारी, गुटखा आदि का सेवन करने वालों को थूकने की जरूरत पड़ती है, लेकिन ऐसा नहीं कि बस वही थूकते हैं.

कायदे-कानून के बावजूद थूकने पर कोई कॉमा, सेमी-कॉमा नहीं लगा. पूर्ण विराम तो उतना ही बड़ा सपना है, जितना बड़ा गांधी जी का हिंद स्वराज. भारत अंग्रेजों से तो आजाद हो गया, लेकिन स्वराज नहीं बन पाया, जिसमें साफ-सफाई, खुदी की बुलंदी, मनुजता और ईश्वर की बंदगी, सब स्वैच्छिक और स्वतः स्फूर्त हो. कोई सामाजिक-सांस्कृतिक आचार संहिता नहीं है, जिसमें थुक्कम फजीहत रोका जा सके. हमें नव वर्ष को थूक मुक्त बनाने का सपना संवारना चाहिए.

Leave a Reply

error: Content is protected !!