राज्यों को नियमित खर्चों के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राज्य अपने बजट का करीब 70 प्रतिशत वेतन, पेंशन, सब्सिडी और कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च कर रहे हैं। सिर्फ 30 प्रतिशत बजट ही बाकी खर्च के लिए बचता है।
हाल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यों के वित्तीय प्रबंधन पर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि राज्यों में विकास परियोजनाओं के लिए कम संसाधन का आवंटन होने से देश की आर्थिक वृद्धि दर पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। कुछ राज्यों की वित्तीय व्यवस्था तो इस हद तक चरमरा गई है कि उनको नियमित काम-काज के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है।
क्या है वर्तमान समय की जरूरत?
वहीं, वर्तमान समय की जरूरत है कि बढ़ती आबादी के साथ उसी अनुपात में स्कूल, अस्पताल और दूसरी बुनियादी सुविधाएं विकसित की जाएं जिससे नागरिक स्वास्थ्य, शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए जरूरी सुविधाएं आसानी से हासिल कर सकें और जीवनस्तर बेहतर बना सकें। लेकिन जमीन पर इसका ठीक उलटा होता हुआ दिख रहा है। राज्य डायरेक्ट कैश ट्रांसफर पर अधिक जोर दे रहे हैं। सत्तारूढ़ दलों को चुनाव में इसका फायदा भी मिल रहा है।
किस कीमत पर हो रहा कैश ट्रांसफर?
ऐसे में सवाल यह है कि कैश ट्रांसफर किस कीमत पर हो रहा है? क्या आम लोगों को स्कूल, अस्पताल, सार्वजनिक परिवहन और दूसरी सुविधाओं की जरूरत नहीं है और अगर राज्यों के पास इनके लिए पैसे नहीं हैं तो इसका खामियाजा कौन भुगतेगा। इसी सवाल पर केंद्रित है आज का मुद्दा…
क्या है प्रतिबद्ध खर्च?
प्रतिबद्ध खर्च वह लागत है जिसे पहले ही कर लिया गया है या जिसके लिए एक कानूनी या संविदात्मक दायित्व बन गया है। इसे आसानी से समाप्त नहीं किया जा सकता है। जैसे- वेतन, पेंशन और कर्ज के ब्याज का भुगतान।
राज्यों पर औसत कर्ज जीएसडीपी का 27.2 प्रतिशत
एफआरबीएम समीक्षा समिति ने डेट टू जीडीपी रेशियो की सीमा केंद्र के लिए 40 प्रतिशत और राज्यों के लिए 20 निर्धारित की थी। इस लक्ष्य को 2023 तक हासिल किया जाना था। 2024-25 में, राज्यों की औसत अनुमानित उधारी जीएसडीपी का 27.2 प्रतिशत है।
इसका मतलब है कि राज्य कर्ज की तय सीमा को पहले ही पार कर चुके हैं। राज्यों में चुनावी फायदे के लिए मुफ्त सुविधाएं देने की होड़ को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह आंकड़ा और बढ़ने वाला है।
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