‘भोजपुरी साहित्य के विविध आयाम’ पुस्तक भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और शोधपरक दस्तावेज है

‘भोजपुरी साहित्य के विविध आयाम’ पुस्तक भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और शोधपरक दस्तावेज है

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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डॉ. संतोष पटेल द्वारा लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी साहित्य के विविध आयाम’ (2025) भोजपुरी साहित्य, भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और शोधपरक दस्तावेज है। यह पुस्तक केवल एक संकलन नहीं, बल्कि भोजपुरी के ऐतिहासिक, सामाजिक और वैश्विक विस्तार का एक गहन विश्लेषण है। लेखक ने दस शोध आलेखों के माध्यम से भोजपुरी के उन अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जो अक्सर मुख्यधारा के साहित्य में हाशिये पर रहे हैं।

पुस्तक का परिचय और संरचना
“वीएलएमएस पब्लिकेशंस” द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 2025 में आया है।

पुस्तक की भूमिका में ही डॉ. पटेल स्पष्ट कर देते हैं कि भोजपुरी अब केवल एक ‘बोली’ नहीं, बल्कि ‘वोकल, लोकल से ग्लोबल’ की यात्रा तय कर चुकी एक वैश्विक भाषा है। यह संकलन दस प्रमुख आलेखों में विभाजित है, जो वृद्ध विमर्श, प्रवासी देशों में भोजपुरी, संवैधानिक मान्यता के मुद्दे, कबीर की भाषा, चंपारण का योगदान, और हाशिये के स्वर जैसे विषयों पर केंद्रित हैं।
इस पुस्तक में वर्णित प्रमुख विषय और विश्लेषण निम्लिखित हैं:

1. ऐतिहासिक और भाषाई अस्मिता (कबीर और चंपारण):
लेखक ने साहसपूर्वक यह स्थापित किया है कि कबीर दास केवल हिंदी के ही नहीं, बल्कि ‘भोजपुरी के आदि कवि’ भी हैं। उन्होंने विद्वानों द्वारा कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘खिचड़ी’ कहने की प्रवृत्ति को भोजपुरी की पहचान दबाने की साजिश के रूप में देखा है। इसके साथ ही, चंपारण की धरती को ‘भोजपुरी क्षेत्र की आत्मा’ बताते हुए वहां के ‘सारभंग संप्रदाय’ और ‘भगताही पंथ’ के योगदान को रेखांकित किया गया है। चंपारण का भोजपुरी साहित्य में योगदान इस पुस्तक का एक मजबूत स्तंभ है।

2. सामाजिक विमर्श (वृद्ध और दलित विमर्श):
डॉ. पटेल ने लोक कलाकार भिखारी ठाकुर को ‘वृद्धावस्था विमर्श के अग्रदूत’ के रूप में प्रस्तुत किया है। वे तर्क देते हैं कि जिस समय पश्चिमी जगत में सिमोन द बोउआर वृद्धावस्था पर लिख रही थीं, लगभग उसी समय भिखारी ठाकुर अपने नाटकों (जैसे ‘बुढ़शाला के बेयान’) के माध्यम से बुजुर्गों की उपेक्षा और उनके अधिकारों की बात कर रहे थे।

‘भोजपुरी कविता में हाशिये के स्वर’ आलेख के माध्यम से हीरा डोम से लेकर समकालीन कवियों तक के दलित चेतना और विद्रोही स्वर का विश्लेषण किया गया है।

3. भोजपुरी की वैश्विक उपस्थिति:
पुस्तक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रवासी देशों (मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, गयाना आदि) में भोजपुरी के विकास पर केंद्रित है। लेखक ने गिरमिटिया मजदूरों के संघर्ष और उनकी भाषा के प्रति जुड़ाव को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। यह भाग बताता है कि कैसे भोजपुरी सात समंदर पार अपनी संस्कृति और संस्कारों को जीवित रखे हुए है।

4. मान्यता की चुनौतियां:
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग और उसमें आने वाली बाधाओं पर डॉ. पटेल ने बहुत ही तार्किक और बेबाक चर्चा की है। वे स्पष्ट रूप से उन आंतरिक और बाहरी कारकों (जैसे बुद्धिजीवियों का दोमुंहापन और राजनीतिक उदासीनता) को चिन्हित करते हैं, जो इस मान्यता के मार्ग में बाधक हैं।

लेखन शैली और शोध की गुणवत्ता की बात की जाए तो डॉ. संतोष पटेल की लेखन शैली अकादमिक होते हुए भी प्रवाहपूर्ण और बोधगम्य है। उन्होंने प्रचुर मात्रा में संदर्भों और उद्धरणों का उपयोग किया है, जो उनकी शोध दृष्टि की गंभीरता को दर्शाता है। पुस्तक में प्रयुक्त भोजपुरी और हिंदी का सामंजस्य पाठकों को सहज रूप से विषय के साथ जोड़ता है。 लेखक ने लोक गीतों, कहानियों और नाटकों को ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ जोड़कर एक व्यापक विमर्श तैयार किया है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि
‘भोजपुरी साहित्य के विविध आयाम’ केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि भोजपुरी भाषियों के लिए अपनी जड़ों को पहचानने का एक माध्यम है। यह शोधार्थियों के लिए संदर्भ ग्रंथ और सामान्य पाठकों के लिए जानकारी का खजाना है। डॉ. संतोष पटेल ने इस कृति के माध्यम से सिद्ध किया है कि भोजपुरी साहित्य किसी भी अन्य भाषा के साहित्य से कमतर नहीं है। यह पुस्तक भोजपुरी को उसकी सही अस्मिता दिलाने की दिशा में एक मिल का पत्थर साबित होगी।
कुल मिलाकर, 750/- रुपये के मूल्य वाली यह पुस्तक प्रत्येक भोजपुरी प्रेमी और साहित्य के जिज्ञासु के पास होनी चाहिए। यह हमें बताती है कि हमारी भाषा का फलक अब वैश्विक है और इसमें समाज के हर वर्ग (वृद्ध, किसान, दलित, प्रवासी) की पीड़ा और खुशियों को समेटने की अपार क्षमता है।

समीक्षक : धनंजय कुमार सिंह, मुख्य संपादक, नेशन लाइव, नई दिल्ली।

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