सरकार बड़ी है या समाज इसका निर्णय संविधान नहीं कर सकता!

सरकार बड़ी है या समाज इसका फैसला संविधान नहीं कर सकता!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रत्येक राष्ट्र, धर्म, जाति या विचारधारा की कुछ आधारभूत चीजें होती हैं । उसके बिना उसका अस्तित्व नहीं हो सकता। इस्लाम का आधार हिंसा और अन्यत्व है। मुसलमान हिंसा छोड़ दे तो इस्लाम समाप्त हो जाएगा। वह काफिर की धारणा छोड़ दे तब भी उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इस्लाम की उत्पत्ति से लेकर आज तक हिंसा और काफिर के सहारे ही वह जीवित है।

आपका धर्म सर्वे भवन्तु सुखिनः है, उनकी धारणा काफिर की समाप्ति है। कला -साहित्य और बौद्धिकता तो हिंसा और काफिरबोध के महज आवरण हैं। आप इनमें फँसे रहिए। आप इस्लाम के कोर को बदल नहीं सकते। आप हर जगह मारे जाएँगे। बर्बरता सभ्यता पर सदैव भारी पड़ी है। बर्बर स्पार्टा ने सभ्य एथन्स को पराजित किया था। चार गुंडे 40 लोगों पर भारी पड़ते हैं।

हमारी कमजोरी हमारी सभ्यता है। लेकिन यह हमारा कोर वैल्यू है। हम इसे नहीं छोड़ सकते। हरमपंथी मुगलों के लिए शिवाजी ने सभ्यता का त्याग नहीं किया। बर्बरता का उत्तर वीरता है। हमारे पूर्वजों ने हूण और शक का जैसे नाश किया वह आदर्श हमारे सामने है । बर्बरता को वीरता से कुचलिए और बड़े पैमाने पर घर वापसी करा कर मनुष्यता की ओर लाइए। बर्बरता का सॉफ्टवेयर अनइंस्टाल करने का बस यही मार्ग है।

मजहब ही है सिखाता आपस में वैर रखना। मजहब रहेगा, हिंसा भी रहेगी। मानवता के हित में धर्माचार्य और योद्धा जब एक मार्ग पर चलेंगे तो बर्बरता पराजित होगी। हिन्दू समाज को शक्ति की साधना करनी होगी। धर्माचार्य अपनी भूमिका से बच नहीं सकते। आपकी धर्म ध्वजा कितने असुरों को मनुष्य बनाती है इससे आपका मूल्यांकन होगा।

पिछले तीन दिनों में आपको दर्जनों मुस्लिम लोग मिले होंगे जिन्होंने कश्मीर की घटना पर दुख जताया, धर्म पूछ कर गोली मारे जाने की बात को स्वीकार किया और उसके विरुद्ध बोले, आतंकियों की निंदा की। छोटे बड़े राजनीतिज्ञ, यहाँ तक कि असदुद्दीन ओवैशी जैसे लोगों ने भी सच को स्वीकारा और कार्यवाही के लिए सरकार के साथ खड़े होने की बात कर रहे हैं।

लेकिन इसके उलट देखिये, धर्म पूछ कर गोली मारे जाने की घटना को निर्लज्जता से नकारने वाले, आतंकियों के पक्ष में नैरेटिव गढ़ने वाले, और यहाँ तक कि मृतकों की एक फर्जी सूची (जिसमें आधे से अधिक मुस्लिम नाम थे) पोस्ट करने वाले अधिकांश हिन्दू नामधारी हैं। उनमें लेखक हैं, पत्रकार हैं, नचनिया हैं, कुछ राजनैतिक लोग भी…

एक लेखिका जिसने ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार तक बटोरा है, वे भी लगातार झूठ बोल रही थीं। नरसंहार के दो दिन बाद ही पहलगाम में जा कर विडियो बनाने और हँसते हुए लोगों को आमंत्रित करने वाली वायरल महिलाएं भी हिन्दू ही हैं। सोच कर देखिये, सत्ताईस लाशों के ऊपर हँसने के लिए कितना गिरना पड़ता होगा? ये सब हिन्दू ही हैं…

ये वे लोग हैं जो स्वयं के बुद्धिजीवी होने के दावे करते हैं। खुद को उच्च शिक्षित और सबकुछ समझने वाला बताते हैं, और चाहते हैं कि दुनिया इन्ही की सुने। लेकिन सार्वजनिक रूप से झूठ परोसने में इन्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती…

चंद सिक्कों के बदले अपना सबकुछ बेच चुके इन धूर्तों में आपके प्रति इतनी घृणा भरी पड़ी है कि मौका मिले तो सबको चबा जाएंगे। वह तो ईश्वर की कृपा है कि उन्होंने मच्छरों के डंक में विष नहीं दिया, वरना दुनिया में जीवन होता ही नहीं।

क्या आपको नहीं लगता कि इस देश में सर्वाधिक नफरत यही झूठे फैला रहे हैं। इस तरह का षड्यंत्रपूर्ण एकतरफा व्यवहार ही समाज में सर्वाधिक विभेद पैदा करता है। सच तो यह भी है कि ये भले स्वयं को अल्पसंख्यको का समर्थक बताएं, पर वस्तुतः ये अपने तुच्छ लोभ के लिए उनका भी अहित ही कर रहे होते हैं।

दरअसल इन भाड़े के टट्टुओं को किसी की चिंता या परवाह नहीं होती। इन्हें केवल और केवल उन जूठी हड्डियों की चिंता होती है जो इनके आका समय समय पर इनके आगे फेंकते हैं।

कश्मीर के हिन्दू नरसंहार के लिए आप दूसरों को क्या ही दोष देंगे? असदुद्दीन ओवैशी आतंकियों को कमीने, हरामजा… जैसी गालियां दे रहे हैं, लेकिन कुछ मंचों के लोभी हिन्दू शायर कवि लेखक आतंकियों के साथ खड़े हैं। कश्मीरियों, पाकिस्तानियों से क्या ही लड़ेंगे आप?

 

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