मरीजों पर भारी पड़ता है डॉक्टरों और दवा कंपनियों का गठजोड़,कैसे?

मरीजों पर भारी पड़ता है डॉक्टरों और दवा कंपनियों का गठजोड़,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

फार्मास्युटिकल कंपनियों और डॉक्टरों का गठजोड़ (Nexus of Pharmaceutical Companies and Doctors) बहुत पुराना है। कंपनियां अपनी महंगी दवाएं लिखने के लिए डॉक्टरों को न केवल मोटी रिश्वत देती हैं, बल्कि उन्हें महंगे उपहार और परिवार सहित विदेश में छुट्टियों तक का भी ऑफर देती हैं। आलीशान होटलों में परिवार सहित पार्टी, कीमती शराब या महंगे मोबाइल फोन देना आम है। दवाओं के प्रमोशन का ये अनैतिक खर्च भी मरीजों को महंगी दवा के तौर पर उठाना पड़ता है। कोई पुख्ता और स्पष्ट कानून न होने की वजह से कंपनियां, दवाईयों को मनचाही कीमतों पर बेचती हैं।

सुप्रीम कोर्ट में दवा कंपनियों के खिलाफ याचिका

दवा कंपनियों की इस मनमानी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर है। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ (Justice DY Chandrachud) और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना (Justice AS Bopanna) की पीठ इस पर सुनवाई कर रही है। याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि डोलो-650 मिलीग्राम टैबलेट (Dolo 650mg Tablet) लिखने के लिए कंपनी ने डॉक्टरों को 1000 करोड़ रुपये के उपहार बाट दिए।

याचिका में दवा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को दिए जाने वाले उपहारों का मामला उठाया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से 10 दिन में जवाब मांगा है। इससे दवा कंपनियों की मनमानी पर लगाम लगने की उम्मीद जगी है। अगर ऐसा होता है तो ये देशभर के मरीजों के लिए बड़ी राहत होगी।

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इसलिए जेनेरिक दवा नहीं लिखते डॉक्टर

बाजार में महंगी कीमतों पर जो ब्रांडेड दवाइयां बिक रही हैं, वही दवाइयां जेनेरिक मेडिकल स्टोर पर बहुत कम कीमत में उपलब्ध हैं। कई बार डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई लिखने के निर्देश जारी हुए, लेकिन जवादेही तय न होने के कारण प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले अथवा प्राइवेट अस्पतालों के डॉक्टर इसकी अनेदेखी करते हैं। दवा कंपनियों से मिलने वाले मोटे मुनाफे और महंगे उपहारों के लालच में ज्यादातर डॉक्टर जेनेरिक की जगह किसी बड़ी दवा कंपनी की महंगी दवा ही लिखते हैं।

दवा विक्रेता भी इस खेल में हैं शामिल

दवा व्यवसाय से जुड़े लोगों के अनुसार, केमिस्ट भी इस खेल का हिस्सा हैं। अमूमन दवा विक्रेताओं को कंपनियों की तरफ से महंगे उपहार तो नहीं दिए जाते, लेकिन उन्हें इन कंपनियों की दवा बेचने पर मोटा मुनाफा मिलता है। मसलन 20 रुपये की जेनेरिक दवा पर अगर 20 फीसद कमीशन है तो विक्रेता को मात्र चार रुपये का मुनाफा होगा।

इसी मार्जिन पर अगर दुकानदार ब्रांडेड दवा बेचे, जिसकी कीमत 200 रुपये है तो उसे 40 रुपये का मुनाफा होगा। कई बार ऐसा भी होता है कि दवा विक्रेता और डॉक्टर आपस में गठजोड़ कर लेते हैं। ऐसे में मरीज को उसी विक्रेता से दवा लेनी पड़ती है। इसमें दवा कंपनी से जो कमीशन/रिश्वत मिलता है, उसमें डॉक्टर और दवा विक्रेता दोनों का हिस्सा होता है।

 

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ब्रांडेड से अच्छी हैं जेनेरिक दवाएं

गौतमबुद्धनगर केमिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अनूप खन्ना, जो 5 रुपये में खाना उपलब्ध कराने वाली दादी की रसोई चलाते हैं और अन्य सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहते हैं। अनूप खन्ना कई वर्षों से ब्रांडेड कंपनियों की दवा बेचते थे। पीएम मोदी के आव्हान पर उन्होंने कुछ वर्ष पहले जनऔषधि केंद्र खोल केवल जेनेरिक दवाएं बेचने शुरू की। वह बताते हैं कि उनके जनऔषधि केंद्र पर लोगों की भीड़ लगी रहती है। जेनेरिक दवाएं बहुत सस्ती हैं और इनकी गुणवत्ता महंगी ब्रांडेड दवाईयों से कहीं अच्छी है। जेनेरिक दवाइयां सस्ती हैं और इस पर कमीशन भी फिक्स है, इसलिए मुनाफा कम होता है। हालांकि सरकारी सब्सिडी से इसकी भरपाई आराम से हो जाती है।

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जनऔषधि केंद्र पर कैसे सस्ती मिलती हैं दवाएं

अनूप खन्ना बताते हैं कि जनऔषधि केंद्रों पर दवा की सप्लाई सरकारी वितरकों द्वारा होती है। ये दवाइयां सरकारी ऑर्डर पर दवा कंपनियों द्वारा, निर्धारित मानक के अनुरूप बनाई जाती हैं। पिछले कुछ वर्षों में जेनेरिक दवा की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है। केंद्र सरकार द्वारा जेनेरिक दवाईयों को काफी प्रमोट भी किया गया। जेनेरिक दवाइयां ब्रांडेड दवाईयों के मुकाबले 50 से 90 फीसद तक सस्ती होती हैं। दुकानदार को इन दवाओं की बिक्री पर 20 फीसद तक का मुनाफा मिलता है। दवा सस्ती होने के कारण विक्रेताओं को मुनाफा कम होता है। इसे ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार दवा विक्रेताओं को पांच लाख रुपये मासिक तक की सब्सिडी भी विभिन्न मदों में प्रदान करती है।

जनऔषधि केंद्रों पर भी ब्रांडेड दवाईयों का खेल

प्रधानमंत्री जनऔषधि परियोजना के तहत चल रही कुछ दवा दुकानों पर भी ब्रांडेड दवाईयों का खेल कुछ अलग अंदाज में चल रहा है। ऐसे दुकानदार जनऔषधि केंद्र का बोर्ड लगाकर मरीजों को आकर्षित करते हैं और जब वह दवा लेने जाते हैं तो उन्हें ब्रांडेड कंपनी की दवा पकड़ा दी जाती है। जैसे किसी जेनेरिक दवा की कीमत तीन रुपये है। ब्रांडेड कंपनी भी वही दवा बना रही है, जिस पर अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) 30 रुपये लिखा है, लेकिन दुकानदार को ये दवा पांच-छह रुपये में कंपनी से मिल रही है। दुकानदार ऐसी दवाओं पर 25 से 50 फीसद की छूट का ऑफर देता है। इसके बावजूद जेनेरिक दवा के मुकाबले इस तरह की ब्रांडेड दवाओं में दुकानदार को काफी ज्यादा मुनाफा मिलता है।

दवा की कीमतें तय करने का ठोस नियम नहीं

केंद्र सरकार का औषध विभाग (Department of Pharmaceuticals) देश में दवाईयों की कीमत निर्धारित करता है। हालांकि, इसे लेकर ठोस नियम नहीं है। दवा कंपनियों निमयों में शिथिलता का फायदा उठाकर मनमानी कीमत वसूलती हैं। औषध विभाग बेसिक दवाईयों की कीमत निर्धारित करती है, जो किसी भी इलाज के लिए जरूरी होती है। फार्मा कंपनियां इन दवाओं में कोई एक-दो अतिरिक्त साल्ट जोड़कर उसे निर्धारित कैटेगरी से बाहर कर लेती है और फिर उसकी मनमानी कीमत वसूलती हैं। भले दवा में मौजूद वो अतिरिक्त साल्ट इलाज के लिए जरूरी हो या न हो। पुख्ता कानून न होने की वजह से दवा कंपनियां खुलेआम मनमानी करती हैं।

बड़े निजी अस्पताल भी इस गठजोड़ का हिस्सा हैं

एक बड़ी कंपनी के चिकित्सा प्रतिनिधि (Medical Representatives) बताते हैं कि जब भी आप किसी बड़े प्राइवेट अस्पताल में जाते हैं, डॉक्टर अमूमन आपको वही दवा लिखेगा, जो उस अस्पताल के मेडिकल स्टोर पर ही मिलेगी। कई बार मरीजों से कहा जाता है कि वह अस्पताल की फार्मेसी से ही दवा लेकर डॉक्टर को दिखा दें, ताकि कोई असमंजस न रहे या कोई और बहाना बनाते हैं। अस्पताल की फार्मेसी उस दवा को बिना किसी छूट के प्रिंट रेट पर बेचती है, जबकि वही दवा किसी अन्य केमिस्ट शॉप में डिस्काउंटेड रेट पर उपलब्ध हो सकती है।

ऐसा उस दवा पर मिलने वाले मोटे मुनाफे के लिए किया जाता है। साथ ही पिछले कुछ वर्षों से लगभग सभी प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों का पर्चा (Prescription) स्कैन या कार्बन कॉपी किया जाने लगा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इससे उन मरीजों को फायदा मिलता, जो पर्चा भूल जाते हैं। साथ ही अस्पताल में मरीजों का रिकॉर्ड मौजूद रहता है। लेकिन पर्चे स्कैन करने के पीछे भी एक बड़ा खेल है। दरअसल इन्हीं स्कैन पर्चों के जरिए दवा कंपनियों को दिखाया जाता है उनकी कितनी दवा लिखी गई है।

सरकार की जानकारी में है पूरा मामला

8 जनवरी 2019 को कर्नाटक के कांग्रेसी सांसद केसी रामामूर्ति (KC Ramamurthy) ने राज्यसभा में ये मुद्दा उठाया था। उन्होंने सरकार से ऐसी कंपनियों की जानकारी मांगी थी जो डॉक्टरों को रिश्वत देती हैं और ये भी पूछा था कि इन कंपनियों अथवा डॉक्टरों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई। इस पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने बताया था, ‘डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्युटिकल्स’ (The Department of Pharmaceuticals – DoP) को दवा कंपनियों के खिलाफ इस तरह की कुछ शिकायतें प्राप्त हुई हैं। जिस पर जांच जारी है। साफ है कि दवा कंपनियों की इस मनमानी और अनैतिक व्यापार से सरकार भी वाकिफ है।

आरटीआई में कंपनियों का नाम तो मिला, लेकिन कार्रवाई की जानकारी नहीं

डाउन टू अर्थ संस्था ने इस मुद्दे पर 23 जनवरी 2019 को डीओपी (DoP) में आरटीआई लगा 2015 से अनैतिक व्यापार करने वाली दवा कंपनियों की सूची और उनके खिलाफ हुई कार्रवाई का ब्यौरा मांगा। 14 फरवरी 2019 को जवाब में 20 कंपनियों का नाम तो बताया गया, लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई की कोई जानकारी नहीं दी गई। ये शिकायतें वर्ष 2016 की थीं।

आरटीआई में डॉक्टरों का नाम नहीं था। संस्था ने इसके बाद भी कई स्तर पर आरटीआई व अपील दाखिल की, लेकिन उसे कंपनियों व डॉक्टरों के खिलाफ की गई कार्रवाई से संबंधित कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। 15 मई 2019 को संस्था ने अपनी वेबसाइट पर एक लेख प्रकाशित करते हुए दवा कंपनियों और डॉक्टरों के इस गठजोड़ को सामने लाने का प्रयास किया। लेख के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में कई लोगों ने पुख्ता साक्ष्यों संग डीओपी में शिकायत दर्ज कराई है। बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।

 

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