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विश्वविद्यालय को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहना चाहिए,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

विश्वविद्यालय को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहना चाहिए,कैसे?

विश्वविद्यालय को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहना चाहिए,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

नई कुलपति की नियुक्ति के महज दो महीने बाद जेएनयू एक बार फिर तनाव और टकराव महसूस कर रहा है। रामनवमी पर एक छात्रावास में मांस खाने को लेकर विवाद हुआ। जवाबी आरोप यह है कि रामनवमी की पूजा बाधित करने का प्रयत्न किया गया। विरोधी पहले जैसे ही हैं- दक्षिणपंथी बनाम वामपंथी और उनका ना खत्म होने वाला झगड़ा। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) विरुद्ध स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) और इसके जेएनयू छात्र संघ (जेएनयूटीए) के सहयोगी।

पूर्व पक्ष संघ परिवार का हिस्सा है और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा है, जबकि प्रतिरोधक पक्ष भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी का छात्र संगठन है। वैचारिक रूप से यह पहचानना आसान है कि कौन दक्षिणपंथी है या वामपंथी, यह निर्धारित करना कठिन है कि कौन सही है या गलत। न ही मैं इसमें जा रहा हूं- परस्पर विरोधी गुटों के युद्ध में सत्य को निर्धारित करना आसान नहीं है।

कोई यह दावा करने की हद तक जा सकता है कि किसी भी संघर्ष में- विशेष रूप से राजनीतिक या वैचारिक- सत्य सबसे पहले शिकार होता है। इन हालात में क्या करना होगा? एक निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और दोषियों को, उनकी राजनीतिक संबद्धता की परवाह किए बिना, जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, यहां तक कि दंडित भी किया जाना चाहिए। क्या ऐसा होगा? कम संभावना लगती है। क्योंकि हमारी प्रणाली में दोषी, आमतौर पर उनके पथप्रदर्शकों द्वारा संरक्षित किए जाते हैं, खासकर यदि वे सत्ता में हैं।

दोनों पक्ष एफआईआर दर्ज कराते हैं। फिर दोनों एफआईआर वापस ले ली जाती हैं। विश्वविद्यालय संवाद और चर्चा का, प्रवचन और सभ्य-असंतोष का स्थान है। कैंपस में हिंसा की कोई जगह नहीं है। इसे सक्रिय रूप से हतोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रशासन द्वारा निष्पक्ष जांच से ही आत्मविश्वास बहाल होगा और खंडित विश्वविद्यालय ठीक हो पाएगा। छात्र-राजनीति जेएनयू के जीवंत लोकाचार का एक हिस्सा है। दरअसल, लोकतंत्र में किसी भी विश्वविद्यालय में छात्र-राजनीति का अपना स्थान है।

लेकिन अगर राजनीति बाकी सब पर हावी हो जाती है, और पूरे परिसर की संस्कृति को अपने कब्जे में ले लेती है, तो यह गंभीर चिंता का विषय है। राजनीति नहीं बल्कि शिक्षा को एक विश्वविद्यालय का मुख्य फोकस और उद्देश्य होना चाहिए। जेएनयू में शिक्षाविदों को ध्रुव-स्थान में बहाल करने की जरूरत है। ऐसा नहीं हुआ तो विश्वविद्यालय का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।

सिर्फ वामपंथी असहिष्णुता को दक्षिणपंथी आक्रामकता से बदलने से विश्वविद्यालय या उसके छात्रों को कोई फायदा नहीं होगा। लेकिन मुझे डर है कि राज्य के खर्च पर अपनी पार्टी के लिए उपयुक्त राजनीतिक कैडर तैयार करना बहुत बड़ा प्रलोभन हो सकता है। दक्षिणपंथियों को वामपंथ से अधिकार लेने और वही करने के लिए लुभाया जाएगा जो वामपंथियों ने इतने लंबे समय तक किया।

जेएनयू के वरिष्ठतम प्रोफेसर के रूप में, मैं खुद को न केवल एक हितधारक बल्कि विश्वविद्यालय का शुभचिंतक और मार्गदर्शक मानता हूं। जेएनयू में मेरी दिलचस्पी पेशेवर प्राध्यापक से परे है। पिछले पांच या छह साल हमारे विश्वविद्यालय के इतिहास में अशांत और उपद्रवी रहे हैं।

मैंने इस अवधि के बारे में अपनी हाल ही में जारी पुस्तक जेएनयू : राष्ट्रवाद में अंदरूनी सूत्र के रूप में लिखा है। किसी भी लड़ाई में किसी तरह के पक्षपात से गलत संकेत जाता है कि परिसर में हिंसा करने वालों को दंडित नहीं किया जाएगा। एक बार जब वह संदेश निकल जाएगा, तो प्रभावशाली समूहों की मजबूत रणनीति न केवल अनियंत्रित हो जाएगी, बल्कि उसे इससे उत्साह भी प्राप्त होगा।

गुंडागर्दी की जगह नहीं
कैंपस में राजनीतिक कैडरों को स्थापित करना प्रगति का रास्ता नहीं है। चुनाव निर्धारित करेंगे कि स्टूडेंट्स यूनियन का नेतृत्व कौन करेगा। इसी तरह चर्चाएं तय करेंगी कि परिसर में कौन-सी राय प्रचलित है। दोनों ही में गुंडागर्दी के लिए कोई जगह नहीं है।

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