तालिबान पर भरोसा करना क्यों मुश्किल है?

तालिबान पर भरोसा करना क्यों मुश्किल है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
PETS Holi 2024
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद कयास लगाये जा रहे हैं कि 2021 का तालिबान 1996 के तालिबान से कितना अलग होगा. तालिबान के रवैये में परिवर्तन आया है कि नहीं, इसे लेकर अलग-अलग मत हैं, लेकिन मेरा मानना है कि तालिबान का रुख थोड़ा बदला है. हालांकि, सच्चाई यह भी है कि उनकी विचारधारा में बदलाव नहीं आयेगा. वहां इस्लामी अमीरात बना रहेगा. अभी अफगान फौज, अफगान सुरक्षाबल, अफगान पुलिस और छोटे-मोटे जो भी अन्य समूह हैं, वे अब खुलेआम हो चुके हैं. तालिबान ने बड़ी मात्रा में अमेरिकी हथियार बरामद किये हैं.

तालिबान के जो अपने शागिर्द हैं, उनमें कम-से-कम 10 से 12 समूह ऐसे हैं, जिनसे भारत की चिंताएं जुड़ी हैं. इसमें विशेषकर हक्कानी नेटवर्क, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन हैं. जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा तो भारत में आतंकी वारदातों में शामिल भी रहे हैं. हक्कानी नेटवर्क ने भी अफगानिस्तान में भारत के खिलाफ कई मर्तबा कार्रवाई की है. कुल मिलाकर देखें, तो अफगानिस्तान अव्यवस्थित और अस्थिर है. हालात ऐसे हैं कि वहां कुछ भी हो सकता है.

सबसे महत्वपूर्ण बात इन्हें मान्यता देने और वैधता प्रदान करने की है. अफगानिस्तान के मौजूदा हालात का तीन स्तरों पर असर होगा- स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय. स्थानीय हालात देखें तो अफगानिस्तान में पूरी तरह अस्थिरता और अनिश्चितता है, क्योंकि उनका पूरी तरह प्रादेशिक नियंत्रण नहीं हो पाया है. ताजिकिस्तान के समीप बदख्शान से जुड़ी हुई पंजशीर घाटी में टकराव जारी है. अभी कोई नतीजा नहीं निकला है. अफगानिस्तान में आंतरिक विस्थापन हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र इसे मानवीय संकट बता रहा है.

काबुल के पतन के बाद और उससे पहले से भी अफगानिस्तान में 50 लाख लोग आंतरिक तौर पर विस्थापित हो चुके हैं. बहुत सारे लोग पाकिस्तान और ईरान की सीमा की तरफ जा चुके हैं और कुछ शरणार्थी मध्य एशिया की ओर भाग रहे हैं. वहां के आर्थिक हालात बेहद चुनौतीपूर्ण हैं. अफगानिस्तान का जीडीपी पूरी तरह विदेशी मदद पर टिका है. उसे लगभग 11 बिलियन डॉलर की सालाना विदेशी मदद मिलती है. उनका खुद का राजस्व संग्रह दो बिलियन डॉलर के आसपास है. अफगानिस्तान के 9.5 बिलियन डॉलर की संपत्ति, जो विदेशी मुद्रा भंडार है, वह अमेरिका में है. उसे भी फ्रीज कर दिया गया है. यानी अफगानिस्तान के वित्तीय हालात बहुत कमजोर हैं.

वैधता प्राप्त करना तालिबान के लिए बहुत मुश्किल है. जब देश के ऊपर प्रादेशिक नियंत्रण होता है, तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से उसे वस्तुतः मान्यता मिलने की गुंजाइश रहती है, लेकिन यहां सत्ता राजनीतिक समाधान से नहीं, बल्कि ताकत के बल पर हासिल की गयी है, ऐसे में मुश्किलें आ सकती हैं. तालिबान का सबसे बड़ा लाभ है कि रूस और चीन उसके पक्ष में हैं. अफगानिस्तान में 20-25 अन्य चरमपंथी समूह भी हैं. तालिबान के आने से लाजिमी है कि बाकी आतंकी समूहों को वहां पनाह मिलेगी. भले ही वे आश्वासन दे रहे हैं कि किसी भी देश के खिलाफ अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल नहीं होने दिया जायेगा, लेकिन यह मात्र कहने की बात है.

अभी सबसे बड़ा क्षेत्रीय मसला चीन, रूस और पाकिस्तान का एक अनौपचारिक गठजोड़ है. अगर चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान का समूह बनता है, तो हालात बिल्कुल अलग हो सकते हैं. सन् 1996 में सिर्फ पाकिस्तान, यूएई और सऊदी अरब ने ही तालिबान को मान्यता दी थी. हालांकि, वैधता नहीं प्रदान की थी. उसी दौर में संयुक्त अरब अमीरात ने अपना समर्थन वापस ले लिया था. अभी के हालात में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात तालिबान का समर्थन नहीं करेंगे. चार देश स्थानीय समर्थक के रूप में समूहबद्ध होते दिख रहे हैं. हालांकि, ईरान पूरी तरह समर्थन नहीं करेगा, क्योंकि ईरान कह चुका है कि वह इस्लामिक अमीरात को मान्यता नहीं देगा. दूसरी बात, ईरान शिया मुल्क है, जबकि ये कट्टरपंथी सुन्नी हैं और शरिया समर्थक हैं.

साल 1998 में 11 ईरानी राजनयिकों की मजार ए शरीफ पर हत्या कर दी गयी थी. इसके बाद ईरान और तालिबान के बीच टकराव बढ़ा और युद्ध की नौबत तक आ गयी थी. अभी चीन, रूस और पाकिस्तान के साथ ईरान के समर्थन की बात तो कही जा रही है, लेकिन ईरान को लेकर एक सवालिया निशान भी है. वे उन्हें वित्तीय मदद दे रहे हैं और उनके साथ समझौते कर रहे हैं, लेकिन मूल रूप से शिया-सुन्नी और इस्लामिक अमीरात का सवाल उन्हें पसंद नहीं है.

देखने की बात है कि स्थानीय स्तर पर चीन और रूस किस हद तक तालिबान को समर्थन करेंगे. भारत की स्थिति देखें, तो वह पूरी तरह अलग-थलग है. भारत अब सिर्फ संयुक्त राष्ट्र के साथ है. क्षेत्रीय स्तर पर भारत का कोई गठजोड़ नहीं है. थोड़े-बहुत ईरान के साथ भारत के संबंध हैं. इसी के मद्देनजर ईरान के नये राष्ट्रपति से मिलने के लिए हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ईरान का दौरा किया था. जो नया गठबंधन बन रहा है, वह कितना प्रभावी रहेगा, शुरुआती स्थिति में भी कुछ नहीं कहा जा सकता है.

तालिबान की वापसी का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव बहुत ही स्पष्ट है. अमेरिका वापस हो चुका है, अब वह अफगानिस्तान तथा इस इलाके से बाहर है. अब देखना होगा कि चीन किस हद तक वहां हस्तक्षेप करता है. कई मध्य एशियाई देश रूस के प्रति झुकाव रखते हैं. आतंकवादी संगठनों के लिए यह खुशखबरी है कि एक नॉन स्टेट एक्टर आतंक का इस्तेमाल कर एक देश के ऊपर कब्जा कर सकता है. चूंकि, पाकिस्तान का तालिबान के साथ सबसे प्रभावी संबंध हैं, तो उसका असर दिखेगा.

लोग कहते हैं कि शाह महमूद कुरैशी सिर्फ पाकिस्तान के विदेश मंत्री नहीं, अब अफगानिस्तान के भी विदेशमंत्री हो गये हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तनाव भी हो सकता है, क्योंकि वहां तहरीक-ए- तालिबान पाकिस्तान है और डूरंड लाइन का भी मसला है. अतः अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच यह भी मुद्दा बन सकता है.

Leave a Reply

error: Content is protected !!