विलुप्तप्राय अठन्नी को इस प्रेम कथा ने अमर कर दिया

विलुप्तप्राय अठन्नी को इस प्रेम कथा ने अमर कर दिया

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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“अपनी मातृभाषा से कटा हुआ आदमी उस कृत्रिम पौधे की तरह होता है, जो देखने में सुंदर तो लगता है, मगर उसमें जान नहीं होती।” “अठन्नी एक प्रेम कथा” की पंक्ति जो मुझे बहुत प्यारी लगी। अग्रज स्वरूप मित्र और स्वनामधन्य कवि ज्यादा लेखक कम श्री मनोज वर्मा जी की पुस्तक “अठन्नी एक प्रेम कथा” उनके सौजन्य से मिल तो मुझे बहुत पहले गई थी लेकिन पढ़ने में थोड़ा समय लग गया और ये पोस्ट करने में थोड़ा और अधिक समय लगा।

वैसे तो विषयवस्तु से, फेसबुक के माध्यम से भलीभाँति परिचित था लेकिन कहाँ वो धारावाहिक और कहाँ ये पूरी की पूरी पुस्तक! एक साथ सांसे रोके पढ़ने का आनंद कई गुना अधिक है और मजा ये कि सारे संस्मरण और कहानियां पहले से पढ़े होने के बावजूद फिर से पढ़ने में और अधिक मजा आया बल्कि रोचकता कई गुना बढ़ गई।
मनोज वर्मा जी के लेखन की खासियत है कि आप को संस्मरण या कहानी पढ़ते समय किसी भी पड़ाव पर उकताहट नहीं होती है और एक अच्छे चलचित्र की भाँति आपके दिमाग में घटनाक्रम का वीडियो चलने लगता है।प्रस्तुत पुस्तक भी आप के पास समय हो तो एक साँस में पढ़ सकते हैं, हर पृष्ठ के साथ आपकी जिज्ञासा और उत्तेजना बढ़ती ही जायेगी।

एक मध्यम वर्गीय परिवार के यात्रा वृतांत से शुरू होती है ये पुस्तक। और कैसे एक मध्यम वर्गीय परिवार का मुखिया यात्रा का भरपूर आनंद भी उठाता है और अंतर्मन में अपनी अर्थव्यवस्था के लिए भी सज़ग रहता है उसकी एक बानगी: “मेरा मध्यमवर्गीय मन पैसे का हिसाब जोड़ता रहता है। मध्य वर्ग की यही त्रासदी है, ना जम कर बचा पाता है न खुलकर खर्च कर पाता है।”

लेकिन उनका सौभाग्य, दो बच्चे, दोनों अच्छे कमासूत। और एक मध्यमवर्गीय परिवार का मुखिया जब बच्चों को पढ़ा लिखा कर लायक बना देता है तो बच्चे अपने माता पिता की हर आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उद्विग्न रहते हैं और कई बार अभिभावक स्वरुप आदेश जारी करते हैं अपने माता पिता को सुखी और आनंदित रखने के लिए। दोनों बच्चे अपने मम्मी पापा के लिए कितने समर्पित हैं ये यात्रा संस्मरण की मेरे लिए मुख्य विशेषता है जिसे लेखक ने कभी शब्दों मे नही बाँधा लेकिन कदम कदम पर वो परिलक्षित होता है।

दूसरी तरफ मुंबई में Alok Sahay जैसा मित्र होना जो ये बोलता है: “दिल में जगह होखे के चाहिं” यात्रा संस्मरण के संस्मरणों में चार चाँद लगा देता है।
मनोज वर्मा जी ने यात्रा संस्मरणों में एक एक चीज़ का इतनी बारीकी से अध्ययन एवं उल्लेख किया है कि मुझे आश्चर्य होता है कि कोई कैसे किसी जगह की एक यात्रा में इतने सारे चीजों को याद रखकर उनका करीने से उल्लेख कर सकता है!

इसी सन्दर्भ में “कायरा” नामक पालतू कुत्ते के एक एक पहलू पर इतना विस्तृत प्रकाश डालना, ये आप ही कर सकते हैं प्रभू।
“मन रिटायर नहीं होता” एक सेवानिवृत्त इंसान की उचाट दिनचर्या से शुरू होकर, अपने लिए समय काटने के उपायों पर गहन चिंतन के मनोवृत्ति से गुज़रते हुए एक सुन्दर से संदेश के साथ समाप्त होती है।

 

इस पूरे पुस्तक की सबसे दर्द भरी दास्तान है “धूल”। इसको कई बार पढ़ा मैंने और हर बार एक टीस से गुजरा। “मोहे न नारी, नारी के रूपा” तुलसी बाबा के इस उक्ति को चरितार्थ करती हुई ये कहानी एक किशोर के मानसिक स्थिति की बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है जिसमें वह अपनी माँ और इन्सानियत के बीच के द्वंद में उलझ जाता है।

“दुष्ट” और “घर का एक दृश्य” ये दोनों एक मिया बीबी और परिवार के कुछ रोचक संस्मरणों को कलमबद्ध करने की अद्भुत और बेबाक कला का उदाहरण है।
और सबसे आखिर में आती है “अठन्नी एक प्रेम कथा”। प्रेम का इतना सुंदर, रूहानी, मासूम और परिपक्व स्वरूप एक साथ मिलना असंभव है। एक बेहद छीछोरे वाकये से शुरू हुई ये प्रेम कथा धीरे धीरे इतनी गहराई तक पहुंच जाती है कि पाठक उस छीछोरी अठन्नी वाली घटना को बिल्कुल ही भूल जाता है और रम जाता है कथा के प्रवाह के साथ। और जब अंत में कथा की नायिका पुनः अठन्नी मांगती है तो छीछोरेपन से दूर एक पवित्र प्रेम की स्निग्ध अभिव्यक्ति बन जाती है।

दुनिया में विलुप्तप्राय अठन्नी को आपकी इस प्रेम कथा ने अमर कर दिया।

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