टूलकिट विवाद : राजनीतिक दांव, कानूनी पेंच!

टूलकिट विवाद : राजनीतिक दांव, कानूनी पेंच!

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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टूलकिट शब्द को भारत में आए अभी पांच माह भी नहीं हुए हैं, लेकिन आज यह हर किसी की जुबान पर है। भारतीयों ने टूलकिट शब्द को सबसे पहले तब सुना था, जब देश में चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थर्नबर्ग ने ट्वीट किया था। इसके बाद बेंगलुरु की सोशल एक्टिविस्ट दिशा रवि की गिरफ्तारी से मामले ने और तूल पकड़ा और तब भारतीयों को पता चला कि ‘टूलकिट’, औजारों के बक्से के अलावा कुछ और भी होता है। हाल ही में भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कांग्रेस पर मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए टूलकिट का इस्तेमाल करने का आरोप लगाकर मामले को राजनीतिक रूप से भी पेचीदा बना दिया है।

क्या है टूलकिट?
पारंपरिक तौर पर हम सब जानते ही हैं कि गाड़ियों और कारखानों में कल-पुर्जों की मरम्मत के लिए औजारों का जो बक्सा होता है, वह टूलकिट कहलाता है। लेकिन सोशल मीडिया के नए जमाने में किसी प्रोडक्ट या आंदोलन की मार्केटिंग के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मास्टर डॉक्यूमेंट को टूलकिट कहते हैं। डिजिटल पन्नों के टूलकिट में आंदोलन की फिलॉसफी, इस्तेमाल होने वाले सैंपल पोस्ट और हैशटैग के साथ सोशल मीडिया में प्रभाव के आंकलन की रणनीति टीम के साथ शेयर की जाती है। इस दस्तावेज़ का मुख्य मक़सद आंदोलन के समर्थकों में समन्वय स्थापित करना होता है।

टूलकिट में आमतौर पर यह बताया जाता है कि लोग क्या लिख सकते हैं, कौन से हैशटैग का इस्तेमाल करना चाहिए, किस वक़्त से किस वक़्त के बीच ट्वीट या पोस्ट करने से और किन्हें ट्वीट्स या फ़ेसबुक पोस्ट्स में टैग करने से फ़ायदा होगा। इसका असर यह होता है कि एक ही वक़्त पर लोगों के एक्शन से आंदोलन या अभियान सोशल मीडिया के ट्रेंड्स में आने लगता है। विरोधियों को जब आंदोलन की चुभन होने लगे तो इसे ‘शूलकिट’ और जब बोगस तरीके से जनता को बेवकूफ बनाने की कोशिश हो तो इसे ‘फूलकिट’ नाम से भी नवाजा जाता है।

क्या हैं टूलकिट विवाद के कानूनी पहलू?
संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति यानी लिखने, पढ़ने, बोलने की आजादी के दायरे में राजनेता और मीडिया भी आते हैं। सन 2015 में आईटी कानून की धारा 66 (अ) निरस्त होने के बाद सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की आजादी पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग गई। इसलिए टूलकिट जैसे किसी भी सियासी दस्तावेज को गैरकानूनी नहीं माना जा सकता। टूलकिट पर भाजपा के तीन बड़े आरोप हैं। पहला, कांग्रेस ने कोविड 19 विषाणु को भारत और प्रधानमंत्री से जोड़कर देश को कमजोर किया। दूसरा, कुम्भ मेले को संक्रमण का मुख्य माध्यम बताकर और तीसरा, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में भ्रम फैलाकर अराजकता फैलाने की कोशिश की। अब इस विवाद में तीन बड़े कानूनी पहलू उभरते हैं :

1. क्या टूलकिट का इस्तेमाल गैरकानूनी है?

राजनीतिक दलों द्वारा विचारधारा और आंदोलन के प्रसार के लिए चुनावी घोषणा-पत्र की तर्ज़ पर टूलकिट के दस्तावेज का इस्तेमाल गैरकानूनी कैसे हो सकता है? भाजपा नेताओं का आरोप है कि टूलकिट में लिखी बातें राहुल गांधी और कांग्रेसी नेताओं के सोशल मीडिया पोस्ट से मेल खाती हैं, इसलिए वह फेक नहीं बल्कि सही और अधिकृत दस्तावेज है। इस लिहाज से मामले में दो आपराधिक बिंदु बनते हैं। पहला देश और सरकार को बदनाम करने के लिए कांग्रेस की टीम द्वारा टूल किट बनाने की आपराधिक साजिश।

दूसरा उस टूलकिट की स्क्रिप्ट के अनुसार कांग्रेसी नेताओं द्वारा सोशल मीडिया में दुष्प्रचार। लेकिन कांग्रेस का कहना है कि उनके नेताओं की बातों के आधार पर टूलकिट को बनाकर साजिश की स्टोरी गढ़ दी गई। टूलकिट में लिखी बातों को बोलना यदि अपराध है तो फिर ट्विटर पर बखेड़ा खड़ा करने के बजाय चुनौती देने वाले कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमें क्यों नहीं दर्ज किए जाते?

इसके पहले भी विदेशों में वैक्सीन भेजे जाने के मुद्दे पर पोस्टर लगाने वालों पर दिल्ली पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर दिया था। परन्तु उसके बाद कांग्रेस और आप के नेताओं ने उस पोस्टर को फेसबुक और ट्विटर में वायरल कर दिया तो फिर उन बड़े नेताओं के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई? कथित आपराधिक कृत्य का श्रेय लेने वाले राजनेताओं पर कारवाई करने के बजाय ट्विटर के बंद दफ्तरों में पुलिस भेजने से क़ानून का माखौल ही बनता है।

2. राजनीतिक दलों के आईटी सेल की जवाबदेही कैसे तय होगी?

टूलकिट जैसे दस्तावेजों के माध्यम से सोशल मीडिया में प्रचार-प्रसार के लिए राजनीतिक दलों के आईटी सेल की कानूनी जवाबदेही कब और कैसे तय होगी? राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन चुनाव आयोग द्वारा किया जाता है। सोशल मीडिया और टूलकिट का इस्तेमाल सभी राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता हासिल करने के लिए किया जा रहा है। इसलिए राजनीतिक दलों की आईटी सेना के रजिस्ट्रेशन और उनके खर्चों के हिसाब किताब के लिए चुनाव आयोग को ठोस पहल करनी ही चाहिए।

3. कब यह आपराधिक मामला बन जाता है?

टूलकिट में यदि कोई फर्जीवाड़ा हुआ है तो आरोपियों का पता लगाना और उन्हें सजा देना जरूरी है। अगर किसी नेता या पार्टी को बदनाम करने के लिए टूलकिट के नाम पर किसी ने फर्जीवाड़ा किया है तो यह आईपीसी के तहत आपराधिक मामला है। यदि यह जालसाजी विदेशों से हुई है तो इसकी जांच सीबीआई द्वारा और भारत में हुए अपराध के लिए संबंधित राज्य की पुलिस द्वारा इसकी आपराधिक जांच होनी चाहिए।

भारत में ऐसे चला टूलकिट विवाद …

03 फरवरी: किसान आंदोलन को समर्थन पर पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थर्नबर्ग का ट्वीट

13 फ़रवरी: टूलकिट थ्योरी (एक), दिशा रवि की गिरफ्तारी

23 फरवरी: दिशा को जमानत के मामले में अदालत ने कहा कि टूलकिट पर राजद्रोह का मामला नहीं

18 मई: टूलकिट थ्योरी(दो), कांग्र्रेस पर संबित पात्रा का आरोप

19 मई: कांग्रेस ने कई राज्यों में फेक टूलकिट पर पुलिस को शिकायत दर्ज कराई

22 मई: ट्वीटर से मैनीपुलेटेड मीडिया टैगिंग हटाने के लिए सरकारी आदेश

24 मई: ट्विटर इंडिया के हेड की पेशी नहीं होने पर दफ्तरों पर पुलिस की दबिश

25 मई: मंत्रियों और भाजपा नेताओं के आपत्तिजनक ट्वीट्स की कांग्रेस ने ट्वीटर से शिकायत की

26 मई: ट्विटर के अमेरिकी मुख्यालय पर दिल्ली पुलिस की कार्रवाई से हलचल

टूल किट के पञ्च तत्वों की चीरफाड़ से निकलेगा ये सच ….

1. नैरेटिव के भ्रमजाल के विस्तार के लिए टूलकिट की नई संस्कृति

2. राजनीतिक दलों की गुमनाम और बेलगाम आईटी सेना

3. चुनावी फायदे के लिए सोशल मीडिया का अवैध इस्तेमाल

4. पार्टियों और सरकार की सोशल मीडिया के लिए खर्चीली आउटसोर्सिंग

5. भारतीय लोकतंत्र और राजव्यवस्था में विदेशी कंपनियों की दखलंदाजी.

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