सौंदर्य, अभिनय और तीक्ष्ण बुद्धि की त्रिमूर्ति वहीदा रहमान।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वहीदा रहमान को सिनेमा में योगदान के लिए इस वर्ष का प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया है. भले वर्ष 1969 में देविका रानी से इस पुरस्कार की शुरुआत हुई, लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लगभग 50 सालों के इतिहास में महज छह अभिनेत्रियों को ही इस पुरस्कार से नवाजा गया है. वर्ष 1955 में तेलुगू फिल्म ‘रोजुलू माराई’ के एक गाने में वहीदा रहमान पहली बार पर्दे पर दिखीं. उस गाने पर फिल्मकार गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए. वर्ष 1956 में ‘सीआईडी’ फिल्म से शुरू हुआ उनका सफर जारी है.

उन्होंने अब तक करीब 90 फिल्मों में काम किया है. उम्र के 85 वर्ष पूरी कर चुकीं वहीदा इस साल प्रयोगधर्मी निर्देशक अनूप सिंह की फिल्म ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ में दिखी थीं. उनकी कई ऐसी फिल्में हैं, जिन पर हिंदी सिनेमा को नाज है. पिछली सदी के 50-60 के दशक में आयीं ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘गाइड’, ‘तीसरी कसम’, ‘खामोशी’ फिल्में आज क्लासिक मानी जाती हैं. रोजी, हीराबाई, गुलाबो, शांति, राधा जैसे किरदार आज भी याद किये जाते हैं.

हिंदी सिनेमा में कहानी, गीत-संगीत की केंद्रीय भूमिका रही है. ‘मेलोड्रामा’ अभिनेता-अभिनेत्री सहारे ही पर्दे पर मूर्त होता है. उनके माध्यम से ही हम सिनेमा देखते-परखते हैं. ऐसे में इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि ‘गाइड’ और ‘तीसरी कसम’ फिल्म का सौंदर्य ‘रोजी’ और ‘हीराबाई’ के इर्द-गिर्द है. फिल्म का गीत-संगीत जिस किरदार से जुड़ा है वह एक नर्तकी है. खुद वहीदा भरतनाट्यम में प्रशिक्षित हैं.
जब मैंने उनसे पूछा कि किस तरह उन्होंने एक साथ रोजी और हीराबाई के किरदार के लिए खुद को तैयार किया, तो उन्होंने कहा कि ‘एक आर्टिस्ट के रूप में हमें समझना पड़ता है कि हीराबाई गांव की नौटंकी करती है. उसका डांस करने का अंदाज अलग है. यह क्लासिकल नहीं है. वहीं रोजी प्रोफेशनल स्टेज डांसर है.’ सिनेमा में आने से पहले वे मंच पर अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करती थीं. वहीदा अपने वालिद के कहे इस बात को याद करती हैं कि ‘हुनर नहीं खराब होता है, आदमी खराब होता है. आप जिस तरह पेश आते हैं उस तरह प्रोफेशन का नाम होता है’.

 

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