भारत की खनन क्षमता से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

खनिज (Minerals) बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन हैं जो मूलभूत उद्योगों के लिये आवश्यक कच्चे माल के रूप में कार्य करते हैं। किसी राष्ट्र के समग्र औद्योगिक विकास के लिये खनन उद्योग का विकास आवश्यक है।

भारत के खनन उद्योग (mining industry) में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि और विदेशी मुद्रा आय अर्जन को उल्लेखनीय रूप से प्रभावित करने तथा भवन, अवसंरचना, मोटर वाहन एवं बिजली जैसे उद्योगों को उचित दरों पर आवश्यक कच्चे माल उपलब्ध कराने के माध्यम से प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त देने की क्षमता है।

मज़बूत घरेलू मांग और वैश्विक विनिर्माताओं के बीच अपने संयंत्रों को भारत में स्थानांतरित करने की बढ़ती रुचि के साथ, भारत के पास विनिर्माण के लिये एक वैश्विक केंद्र के रूप में उभरने का एक व्यापक अवसर मौजूद है। खनिजों और धातुओं के मामले में भारत की विशाल क्षमता देश के आकर्षण को बढ़ाती है। हालाँकि भारत के विशाल खनिज भंडार के बावजूद इसका खनन क्षेत्र अभी भी लीगेसी संबंधी मुद्दों (legacy issues : पूर्व के निर्णय, कृत्यों आदि के परिणामस्वरूप वर्तमान परिदृश्य) से प्रभावित है।

भारत के खनन क्षेत्र का वर्तमान परिदृश्य:  

  • निजीकरण का संक्षिप्त इतिहास:
    • नब्बे के दशक की शुरुआत के भारत के आर्थिक उदारीकरण (economic liberalisation) और राष्ट्रीय खनिज नीति (National Mineral Policy),1993 ने भारत में खनिज अन्वेषण के लिये निजी निवेश का मार्ग प्रशस्त किया है।
      • नए मानदंडों के अनुसार, निजी कंपनियाँ ‘पहले आओ पहले पाओ’ (FCFS) प्रणाली के तहत भारत में अन्वेषण परमिट के लिये आवेदन कर सकती हैं, जिससे उन्हें किसी भी खोजे गए खनिज का पता लगाने और फिर उसका खनन करने या बिक्री करने का अधिकार प्राप्त होता है।
    • 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत कार्यसमूह की वर्ष 2011 की एक रिपोर्ट में खनिज अन्वेषण के क्षेत्र में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने में FCFS प्रणाली के महत्त्व को रेखांकित किया गया।
      • हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2012 के अपने निर्णय में कहा कि प्राकृतिक संसाधन आवंटन की FCFS पद्धति हेरफेर, पक्षपात एवं दुरुपयोग के लिये अतिसंवेदनशील है। इसमें आगे कहा गया कि उच्च जोखिम और उच्च निवेश के साथ, नीलामी निजी निवेश को बाधित करेगी। 
    • खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 (MMDR Act) में वर्ष 2015 के संशोधन ने खनिज आवंटन के लिये FCFS के आधार को नीलामी से प्रतिस्थापित कर दिया।
  • भारतीय अर्थव्यवस्था में योगदान: 
    • खनिज खनन (Mineral mining) आर्थिक विकास पर प्रभाव डालने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है।
    • रोज़गार सृजन के मामले में यह कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 11 मिलियन लोगों को रोज़गार प्रदान करता है और लगभग 55 मिलियन लोगों की आजीविका बनाए रखता है।
  • खनन क्षेत्र में भारत के लिये अवसर:
    • भारत लौह अयस्क उत्पादन के मामले में विश्व स्तर पर चौथे स्थान पर है और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है (वर्ष 2021)।
      • भारत में संयुक्त एल्युमीनियम उत्पादन (प्राथमिक एवं द्वितीयक) वित्त वर्ष 2021 में 4.1 मीट्रिक टन प्रति वर्ष के स्तर पर था; इस प्रकार भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया।
    • वर्ष 2023 में भारत में विस्तारित विद्युतीकरण और समग्र आर्थिक विकास के कारण खनिज की मांग 3% तक बढ़ने की संभावना है।
      • भारत इस्पात एवं एल्युमिना के मामले में उत्पादन एवं रूपांतरण लागत (production and conversion costs) में उचित लाभ की स्थिति रखता है। इसकी रणनीतिक अवस्थिति विकसित देशों के साथ-साथ तेज़ी से विकास कर रहे एशियाई बाज़ारों में निर्यात संभावनाओं को सक्षम बनाती है।

भारत की खनन क्षमता का अन्वेषण क्यों महत्त्वपूर्ण है? 

  • सतत् परिवहन के लिये: 
    • भारत की नवयुगीन अर्थव्यवस्था के अत्यधिक खनिज गहन (mineral intensive) होने की संभावना है। चूँकि इस दशक के शेष वर्षों में भारत की EV बिक्री तेज़ी से बढ़ने वाली है इसलिये लिथियम, कोबाल्ट, निकेल और ग्रेफाइट की मांग उच्च होगी। 
    • इसके साथ ही इस्पात के रूप में लौह अयस्क, एल्युमीनियम के स्रोत के रूप में बॉक्साइट और कॉपर की मांग अधिक होगी, क्योंकि इनका उपयोग सभी प्रकार के वाहनों में किया जाता है।
  • सहज ऊर्जा संक्रमण के लिये: 
    • विशेष रूप से ऊर्जा-संक्रमण खनिजों की मांग में भारी वृद्धि होने का अनुमान है, जो आंशिक रूप से उन्नत रसायन सेल (ACC) बैटरी, सोलर पीवी मॉड्यूल, बड़े घरेलू उपकरण (white goods) और इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण के लिये प्रोडक्शन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं में भागीदारी से प्रेरित होंगे।
  • नवीकरणीय ऊर्जा के लिये: 
    • भारत का वर्ष 2030 तक 500GW गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता प्राप्ति का लक्ष्य काफी हद तक सौर एवं पवन क्षमता से पूरा किया जाएगा।
    • हालाँकि, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency- IEA) का अध्ययन है कि तटवर्ती पवन संयंत्र को गैस-संचालित बिजली संयंत्र की तुलना में 9 गुना अधिक खनिजों की आवश्यकता होती है।
    • एल्युमीनियम और कॉपर सौर ऊर्जा के लिये महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन पवन ऊर्जा को दुर्लभ मृदा तत्वों (Rare Earth Elements- REE), ज़िंक, कॉपर एवं एल्युमीनियम की आवश्यकता होती है। 
  • पारंपरिक क्षेत्रों के लिये: 
    • आवास, अवसंरचना और परिवहन क्षेत्र लौह अयस्क, बॉक्साइट, कॉपर, लाइमस्टोन, क्रोमियम, ज़िंक आदि की मांग को बढ़ावा देंगे।
    • तीव्र औद्योगिक विकास से वर्ष 2030 तक लौह अयस्क, बॉक्साइट, ज़िंक, कॉपर, निकेल आदि की घरेलू मांग दोगुनी हो जाने का अनुमान है।
    • प्राथमिक क्षेत्र में, खाद्य सुरक्षा और कृषि इनपुट के रूप में रॉक फॉस्फेट और ज़िंक पर काफी निर्भरता है।

भारत की खनन क्षमता से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ: 

  • विनियामक बाधाएँ: 
    • भारतीय कानून किसी खननकर्ता को किसी राज्य में खनिज के लिये 10 वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में खनन पट्टा रखने की अनुमति नहीं देता है।
    • हालाँकि इस सीमा को कुछ राज्यों द्वारा विस्तारित किया गया है, केंद्रीय स्तर पर यह सीमा प्रमुख कंपनियों को नीलामी में भाग लेने से बाधित करती है। 
  • अपर्याप्त खनिज अन्वेषण: 
    • पर्याप्त खनिज अन्वेषण की कमी,एक अन्य महत्त्वपूर्ण बाधा है । विशेषकर तांबा, जस्ता, सीसा, सोना, चाँदी जैसे गहराई में स्थित खनिजों (deep-seated minerals) के अन्वेषण पर भारत का व्यय काफी कम रहा है।
  • आयात पर उच्च निर्भरता: 
    • अन्वेषण के अभाव और खनन पर फोकस की कमी के कारण वर्ष 2021-22 में खनिजों एवं धातुओं के आयात पर भारत का खर्च 157 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया (जो कुल आयात का लगभग 1/4 हिस्सा है)।
  • दोहरा कराधान: 
    • लौह अयस्क और बॉक्साइट जैसे खनिजों को ‘रॉयल्टी ऑन रॉयल्टी’ के रूप में दोहरे कराधान की समस्या का सामना करना पड़ता है।
    • चूँकि रॉयल्टी औसत बिक्री मूल्य (ASP) पर देय है और कानून द्वारा इसमें रॉयल्टी की कटौती की अनुमति नहीं दी गई है जिससे खनिज उपयोगकर्ता ‘रॉयल्टी ऑन रॉयल्टी’ का भुगतान करते हैं, जो उनकी लागत प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रभावित करता है।

भारत में खनन को और अधिक अनुकूल बनाने के लिये उठाए जाने वाले संभावित कदम:

  • घरेलू अन्वेषण को प्रोत्साहन देना: 
    • हाल ही में, खान मंत्रालय ने भारत में विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लिये आवश्यक 30 अत्यंत आवश्यक खनिजों (critical minerals) की एक सूची जारी की है।
      • विंड टरबाइन, सोलर पैनल, बैटरी और इलेक्ट्रिक वाहन जैसी हरित प्रौद्योगिकियों के विनिर्माण के लिये ये आवश्यक हैं।
    • इन अत्यंत आवश्यक खनिजों के घरेलू अन्वेषण को प्रोत्साहित करना (Incentivising) वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुँचने के भारत के दीर्घकालिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • अन्वेषण मॉडल में बदलाव लाना: 
    • अन्वेषण को प्रोत्साहित करने के लिये, वर्तमान के ‘राजस्व को अधिकतम करने’ (revenue maximizing) मॉडल से ‘अन्वेषण निवेश प्रोत्साहन’ (exploration investment incentivizing) मॉडल की ओर आगे बढ़ना आवश्यक है।
    • यह भारत में छोटे अन्वेषणकर्ताओं को भी आकर्षित कर सकता है जिन्होंने कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में खनिज क्षेत्र के विकास में अच्छा योगदान दिया है।
  • निजी कंपनियों को प्रोत्साहित करना: 
    • महत्त्वपूर्ण गैर-परमाणु उपयोग रखने वाले अत्यंत आवश्यक खनिजों (जैसे दुर्लभ मृदा तत्त्व, लिथियम, टाइटेनियम, नाइओबियम आदि) के खनन में निजी भागीदारी की अनुमति दी जानी चाहिये ।
      • ऐसे गैर-विखंडनीय खनिजों को खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 की पहली अनुसूची के भाग B से हटा दिया जाना चाहिये, जो परमाणु खनिजों को सूचीबद्ध करता है।
    • अत्यंत आवश्यक खनिजों के अन्वेषण में निजी क्षेत्र के लिये अधिक अवसर का अर्थ होगा अधिक खनन दक्षता और भारत के लिये अधिक आत्मनिर्भरता, जिससे भारत के खनिज आयात बिल में कमी आएगी।
  • एक स्वतंत्र नियामक संस्था का गठन करना:

 

 

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