छुट्टियों में क्या करते हैं जज साहब ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वकेशन शब्द वेकेट यानी खाली होने से लिया गया शब्द है। वेकेशन और लीव दोनों अलग-अलग चीज है। वेकेशन वो होता है जब पूरा का पूरा संस्थान खाली हो जाता है। ये वेकेशन स्कूलों में और शिक्षण संस्थान में होती है या फिर कोर्ट में होती है। स्कूल में बच्चें पढ़ते हैं और उनकी गर्मियों और सर्दियों की छुट्टियां होती है। कॉलेज में भी ये छुट्टियां होती है। लेकिन ये छुट्टियां बच्चों के लिए जिस तरह से होती है उस तरह से शिक्षकों के लिए नहीं होती है। लेकिन कोर्ट में भी वेकेशन होती है। वेकेशन यानी पूरे संस्थान में कोई काम नहीं होता है और वो बंद रहता है। लेकिन वेकेशन बेंच होती है जो इस दौरान काम करती है।

कानून मंत्री ने वास्तव में क्या कहा?

पेंडेंसी से संबंधित सवालों के जवाब में रिजिजू ने कहा कि जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति पर “नई प्रणाली” विकसित नहीं हो जाती, तब तक इस मुद्दे को हल नहीं किया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि “भारत के लोगों के बीच यह भावना है कि अदालतों को मिलने वाली लंबी छुट्टी न्याय चाहने वालों के लिए बहुत सुविधाजनक नहीं है” और यह उनका “दायित्व और कर्तव्य है कि वे इस सदन के संदेश या भावना को लोगों तक पहुंचाएं।

कोर्ट में वेकेशन क्या होते हैं?

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक कामकाज के लिए एक वर्ष में 193 कार्य दिवस होते हैं, जबकि उच्च न्यायालय लगभग 210 वर्किंग डे होते हैं। ट्रायल कोर्ट 245 दिनों के लिए कार्य करते हैं। उच्च न्यायालयों के पास सेवा नियमों के अनुसार अपने कैलेंडर की संरचना करने की शक्ति है। सुप्रीम कोर्ट अपनी वार्षिक गर्मी की छुट्टी होती है जो आम तौर पर सात सप्ताह के लिए होता है। यह मई के अंत में शुरू होता है और अदालत जुलाई में फिर से खुलती है।

अदालत में दशहरा और दिवाली के लिए एक-एक सप्ताह का अवकाश होती है और दिसंबर के अंत में दो सप्ताह का अवकाश होता है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट की बात की जाए तो वहां महीने में सिर्फ पांच-छह दिन सुनवाई होती है यानी साल में करीब 60 से 70 दिन। वहीं ऑस्ट्रेलिया में महीने में दो-दो हफ्ते सुनवाई के लिए होते हैं।

अदालती अवकाश की आलोचना क्यों की जाती है?

कानून मंत्री की अदालती छुट्टियों की आलोचना कोई नई नहीं है। मामलों की बढ़ती लंबितता और न्यायिक कार्यवाही की धीमी गति के आलोक में जैसा कि रिजिजू ने कहा कि लगातार छुट्टियां बढ़ाना अच्छा दृष्टिकोण नहीं है। एक सामान्य मुकदमेबाज के लिए, छुट्टी का मतलब मामलों को सूचीबद्ध करने में और अपरिहार्य देरी है। ग्रीष्म अवकाश शायद इसलिए शुरू हुआ क्योंकि भारत के संघीय न्यायालय के यूरोपीय न्यायाधीशों ने भारतीय ग्रीष्मकाल को बहुत गर्म पाया – और क्रिसमस के लिए शीतकालीन अवकाश लिया।

2000 में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों की सिफारिश करने के लिए स्थापित न्यायमूर्ति मालिमथ समिति ने सुझाव दिया कि लंबित मामलों को ध्यान में रखते हुए छुट्टी की अवधि को 21 दिनों तक कम किया जाना चाहिए। इसने सुझाव दिया कि सर्वोच्च न्यायालय 206 दिनों के लिए और उच्च न्यायालयों को हर साल 231 दिनों का कार्य दिवस होना चाहिए। अपनी 230 वीं रिपोर्ट में 2009 में न्यायमूर्ति ए आर लक्ष्मणन की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग ने इस प्रणाली में सुधार का आह्वान किया।

रिपोर्ट में कहा गया है, न्यायपालिका में छुट्टियों को कम से कम 10 से 15 दिनों तक कम किया जाना चाहिए और अदालत के कामकाज के घंटे कम से कम आधे घंटे बढ़ाए जाने चाहिए। 2014 में जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए नियमों को अधिसूचित किया, तो उसने कहा कि ग्रीष्मकालीन अवकाश की अवधि पहले के 10-सप्ताह की अवधि से सात सप्ताह से अधिक नहीं होगी। अतीत में भारत के मुख्य न्यायाधीशों ने आलोचना को ध्यान में रखते हुए अवकाश चक्रों में सुधार करने का प्रयास किया है।

2014 में जब लंबित मामलों की संख्या 2 करोड़ के स्तर पर पहुंच गई थी, तब सीजेआई आरएम लोढ़ा ने सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालयों और ट्रायल कोर्ट को साल भर खुला रखने का सुझाव दिया था। सीजेआई लोढ़ा ने सुझाव दिया कि व्यक्तिगत न्यायाधीशों के कार्यक्रम वर्ष की शुरुआत में मांगे जाने चाहिए और उसी के अनुसार कैलेंडर की योजना बनाई जानी चाहिए। पूर्व सीजेआई टीएस ठाकुर ने भी छुट्टियों के दौरान अदालत आयोजित करने का सुझाव दिया, अगर पक्ष और वकील परस्पर सहमत हों। वह प्रस्ताव भी अमल में नहीं आया।

क्या छुट्टियों में भी जज काम करते हैं?

वैसे ये आम धारणा बनी हुई है कि कोर्ट में काफी छुट्टी रहती है। खासकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बहुत ज्यादा छुट्टी रहती है। लेकिन यहां ये समझना भी जरूरी है कि छुट्टी का मतलब केवल ये है कि जज उस दिन कोर्ट में सुनवाई के लिए नहीं बैठते हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस होली, दिवाली और गर्मी की लंबी छुट्टियों के दौरान तमाम मामलों में चैंबर में या घर पर बने दफ्तर में बैठकर जजमेंट लिखवाते हैं।

उन तमाम जजमेंट को लिखवाने से पहले उन्हें पूरे केस की फाइल और तमाम जिरह को देखना होता है औऱ मामले से संबंधित तमाम पुराने जजमेंट पढ़ने होते हैं। वजह साफ है कि हर फैसले का दूरगामी असर होता है, इसलिए उससे पहले उस पर चिंतन मनन होता है। उसे लिखवाने के बाद एक-एक लाइन को दोबारा जस्टिस पैनी नजर से देखते हैं ताकि कोई तकनीकि या मानवीय या कानूनी चूक न रह जाए।

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