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पूर्वाेत्तर भारत में हिंदी भाषियों की बढ़ती संख्या के क्या मायने हैं? - श्रीनारद मीडिया

पूर्वाेत्तर भारत में हिंदी भाषियों की बढ़ती संख्या के क्या मायने हैं?

पूर्वाेत्तर भारत में हिंदी भाषियों की बढ़ती संख्या के क्या मायने हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते दिनों असम के एक प्रमुख समाचार पत्र द्वारा आयोजित कार्यक्रम में वर्चुअल रूप से हिस्सा लिया था। इसमें उन्होंने प्रमुख भारतीय भाषाओं को रोजगारपरक बनाने और उसके व्यावहारिक पक्ष को व्यावसायिकता से जोड़ने पर बल दिया था। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि राजभाषा हिंदी व्यावसायिकता और व्यावहारिकता की धूरी बनकर रोजगार सृजन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे।

देखा जाए तो वर्तमान में हिंदी अकेली ऐसी सामथ्र्यवान भाषा है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में विपणन माध्यम का मजबूत आधार बन कर उभरी है। इसके सामथ्र्य और योग्यता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि पेशेवर रवैया अपनाते हुए इसे विपणन बाजार का हिस्सा बनाया जाए। जाहिर है इसके लिए सघन नीति और दूरदर्शी दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी।

अनेक राज्यों में इसके जरिए रोजगार सृजन के अवसरों की तलाश शुरू हो चुकी है। जिस तरह वैश्विक बाजार में यह भाषा अपने कदम मजबूत कर रही है उसे देखते हुए घरेलू बाजार में भी इसे व्यापार का माध्यम बनाना आवश्यक होगा। विश्व की तीसरी सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा के रूप में इसने अपनी वैश्विक स्थिति तो मजबूत कर ली, परंतु उत्तर पूर्व के अपने ही प्रांतों में यह पिछड़ गई। अपनी ऐतिहासिक यात्र में अनन्य बाधाओं को पार करते हुए दशकों पहले इसने पूर्वाेत्तर की धरती पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर ली थी।

तब से लेकर अब तक यहां असंख्य साहित्य हिंदी भाषा में सृजित किए जा चुके हैं। इससे जुड़े स्तरीय शोध कार्य और साहित्य विस्तार पर अपेक्षित परिणाम भी प्राप्त हुए हैं। कालक्रम में यह परिमार्जित और परिष्कृत भी होती रही, लेकिन सांस्थानिक रूप से कभी यह व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा नहीं बन पाई। दरअसल इस मसले पर कभी भी सुनियोजित तरीके से विचार ही नहीं किया गया।

इस बीच वर्तमान केंद्र सरकार के निर्देशों के अनुपालन में पूवरेत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में हिंदी के शिक्षण अवसरों को बढ़ाने पर जोर दिया गया है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पेशेगत क्षेत्र में इसके जरिए रोजगार की रस्साकसी शुरू हो चुकी है। उधर बीते दिनों मिजोरम की विधानसभा में इस बात को लेकर चर्चा गर्म रही कि राज्य में हिंदी शिक्षकों की वर्तमान संख्या बढ़ाई जाए,

ताकि प्राथमिक स्तर पर राष्ट्रभाषा सीखने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए जाएं और भविष्य में इसे व्यावसायिक गतिविधियों से जोड़ा जा सके। उल्लेखनीय है कि मिजोरम में समग्र शिक्षा योजना के तहत हिंदी शिक्षकों के लिए 855 पद स्वीकारें गए हैं। इससे सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में हिंदी शिक्षकों की आवश्यकता को पूरा किया जा सकेगा। अगर समय रहते इन पदों पर नियुक्ति कर ली जाए तो हिंदी की व्यावसायिक संभावनाओं के नए मार्ग खोले जा सकेंगे।

हिंदी का बढ़ता दायरा : देश में हुई अंतिम जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाया जाए तो देशभर में लगभग 43.63 प्रतिशत जनता की पहली भाषा हिंदी है। यानी लगभग 12 वर्ष पहले देश के 125 करोड़ लोगों में से करीब 53 करोड़ लोग हिंदी को ही मातृभाषा मानते थे। इस जनगणना रिपोर्ट से यह भी पता चला कि पूर्वाेत्तर भारत में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं रह गया है जहां के लोग हिंदी न समझते हों। बेशक पूवरेत्तर एक अहिंदी भाषी क्षेत्र है, बावजूद इसके पेशेगत तौर पर हिंदी की उपादेयता से इन्कार नहीं किया जा सकता। इस क्षेत्र के प्रत्येक राज्य में अलग अलग भाषाएं प्रचलित हैं। भाषाओं की प्रयोगशाला माने जाने वाले इस क्षेत्र ने लगभग 200 बोलियों के प्रचलित स्वरूप को स्थान दिया है। बावजूद इसके हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में पूवरेत्तर के फलक पर तेजी से उतर रही है।

उल्लेखनीय है कि असम में राजस्थान और हरियाणा से बड़ी संख्या में आए हुए व्यापारी वर्ग तथा उत्तर प्रदेश और बिहार से लाखों की संख्या में मजदूर हिंदी को रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं। विविध प्रकार के कारोबारी, रिक्शाचालक, अनेक उद्यमों में कार्यरत कामगार समेत केंद्र सरकार के कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारियों के मध्य हंिदूी का प्रयोग होता रहा है। तो फिर क्यों न कारपोरेट और बड़े व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में भी इसे शामिल किया जाए।

उल्लेखनीय है कि हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग पूर्वाेत्तर में दूरस्थ अंचलों तक फैल हुए हैं। ये लोग स्थानीय जनसमुदाय की रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो गए हैं। इन्हीं के साथ हिंदी का जनसंचार भी (आडियो, वीडियो, टीवी, फिल्म आदि) विस्तृत होता जा रहा है। हिंदी भाषा का प्रयोग अधिकांश प्रवासी हिंदी भाषियों द्वारा आपस में किया जाता है। सवाल यह है कि जब इस क्षेत्र में हिंदी इतने बड़े स्तर पर बोली, सुनी और उपयोग में लाई जा रही है तो उससे जुड़े व्यावसायिक निहितार्थ क्यों नहीं तलाशे जा रहे। विश्वविद्यालयों में प्रोफेशनल कोर्स का माध्यम बनाकर इसे ऐच्छिक रूप से पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए। केवल तभी बात बनेगी।

समय आ गया है कि अब पूर्वाेत्तर में हिंदी पढ़ने वाले छात्रों के नए अवसर सृजित किए जाएं। इसके व्यावसायिक हितों की समय रहते पहचान की जाए। पूर्वाग्रह इसकी राह में बाधा न बने, इसके लिए प्रयास करने होंगे। इस धारणा को स्वीकार करना होगा कि भाषा का निर्माण संस्थान या सरकारें नहीं, बल्कि आम लोग करते हैं। इसके विस्तार के लिए ऐसा परिवेश निर्मित करना होगा, ताकि अधिक से अधिक लोग इसे जीविकोपार्जन का माध्यम बना सकें।

 

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