कहां गए हिंदी के चौकीदार- सुधीश पचौरी
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हिंदी दिवस आता है, तो मुझे कुछ-कुछ होने लगता है। कभी गर्व महसूस करता हूं, तो कभी गर्व से अधिक शर्म। गर्व होता है कि मैं उस महान भाषा का एक मामूली सा कलमघसीट हूं, जो भारत की तो सबसे बड़ी भाषा है ही, दुनिया की तीसरे या चौथे नंबर की भाषा भी है। मगर शर्म आती है, जब कोई भी सड़क चलता आदमी मेरी हिंदी को ‘लतियाकर’ निकल जाता है और मैं उसका कुछ नहीं कर पाता।
हिंदी दिवस आते ही या तो हम दिवस मनाने लगते हैं या सप्ताह या पखवाड़ा और इन दिनों में यूं जताते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो। न किसी ने लात मारी, न हमें लगी। हिंदी दिवस आते ही हिंदी अपने राजभाषा होने पर इतराने लगती है। वह डिजाइनर कपड़े पहनने लगती है, सजने-धजने लगती है, उसकी शामें गुलजार होने लगती हैं।
हिंदी का सीजन शुरू हो जाता है, सेमिनार होने लगते हैं, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियां जमने लगती हैं, लोकार्पण होने लगते हैं, ‘लिटफेस्ट’ होने लगते हैं। जगह-जगह साहित्योत्सव होने लगते हैं, मेले लगने लगते हैं। कोई ‘बेस्ट सेलर्स’ की लिस्ट देने लगता है, तो कोई ‘टॉप टेन’ या ‘टॉप ट्वेंटी’ गिनाने लगता है। हिंदी में खुशियां बरसती रहती हैं। कोई सम्मानित हो लेता है, तो कोई कहीं माला,और कोई कहीं ताली पड़वा लेता है। कोई-कोई तो गाली को भी ताली समझ खुश हो लेता है। हिंदी की लीलाएं कहां तक गिनाऊं?
हिंदी दिवस हमें इतना ही मौका देता है कि साल में कम से कम एक दिन हिंदी भी अपनी वीणा बजा ले, अपनी ‘कैट वॉक’ करके दिखा दे और सोलह शृंगार कर सबकी भाभी बनकर दिखा दे। एक हिंदी दिवस से दूसरे हिंदी दिवस के बीच हिंदी किसी आत्ममुग्धा नायिका की तरह इतराती-इठलाती रहती है; कविता पढ़ती रहती है, कहानी-उपन्यास लिखती रहती है, सोशल मीडिया पर नाचती-गाती, रील बनाती रहती है, भाषण देती रहती है, देश के आधे से अधिक बाजार को चलाती रहती है और दूसरी भाषाओं को भी अपने बाजार में जगह देती रहती है। कल की राजभाषा अब एक बड़े ‘मल्टीप्लेक्स’ या ‘मॉल’ की शक्ल ले चुकी है, जिसमें एक ही छत के नीचे दुनिया के अधिकांश ब्रांड मिल जाते हैं।
यह हिंदी बड़े दिल वाली है। मगर इसकी उदारता कुछ स्पर्द्धियों के दिलों को सुलगाती रहती है और जो बाजार की स्पर्द्धा में उससे पीछे रह गए, उनसे यह गाली पाती रहती है। कोई इसे पानी-पूरी वाली, तो कोई मजदूरनी, कोई गोबरपट्टी वाली, तो कोई हिंदी-हिंदू-हिन्दुस्तान वाली कहकर, तो कोई ‘कम्यूनल’, जबर्दस्ती थोपी जाने वाली भाषा बताकर, तो कोई-कोई उसके बोलने वाले को डेंगू, मलेरिया कहकर, तो कोई उसके ‘डीएनए’ पर ही सवाल उठाकर धिक्कारता रहता है।
इसके बावजूद इस माता का एक भी सुपुत्र प्रतिवाद नहीं करता, बल्कि सब अपने-अपने ‘मंडी हाउस’, अपने-अपने ‘आईआईसी’ और अपने-अपने ‘हेबिटेट’ में हिंदी के नाम पर गिलास टकराकर, चीयर्स कहकर, अपनी शामें गुलजार करते रहते हैं। ऐसी है अपनी हिंदी, जो मार खाकर रोती नहीं और जिसे पिटता देख, उसके बेटे तक कुछ नहीं कहते।
जिस समाज में मां को गाली देने पर कुछ भी हो जाता हो, उसी समाज में हिंदी मां को गरियाने पर उसका एक भी पुत्र आपत्ति दर्ज न करे, तो बताइए, ऐसे पुत्रों को कोई क्या कहे? ऐसा लगता है, अपनी महान भाषा का कोई ‘केअर टेकर’ या चौकीदार नहीं है। कोई जमाना था, जब हिंदी का हर लेखक उसका स्वामी था, चौकीदार था, उसकी हिफाजत करता था, उसके मुकदमे तक लड़ता था। क्या आज हिंदी का कोई स्वामी है?
इसीलिए मैंने कहा कि जब-जब हिंदी दिवस आता है, मुझे जितना गर्व महसूस होता है, उससे अधिक शर्म महसूस होती है और मैं सोचता रहता हूं कि क्या हम हिंदी माता के वाकई ‘सुपुत्र’ हैं या कुछ और हैं? हम हैं कौन? हम हिंदी वाले हैं या कुछ और?
आभार- सुधीश पचौरी,हिंदी साहित्यकार