मूल निवासी दिवस मनाने का चलन उपजा क्यों व कहां से?

मूल निवासी दिवस मनाने का चलन उपजा क्यों व कहां से?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय दलित और जनजातीय समाज में इन दिनों एक शब्द चलाया जा रहा है- मूल निवासी दिवस। दरअसल नौ अगस्त मूलत: पश्चिम के तथाकथित बुद्धिजीवी और प्रगतिशील समाज द्वारा किए गए बर्बर नरसंहार का दिन है, जिसे उसी पीड़ित व दमित जनजातीय समाज द्वारा गौरव दिवस रूप में मनवा लेने का षड्यंत्र है यह। आश्चर्य यह है कि पश्चिम जगत अपने विमर्श गढ़ लेने में माहिर छद्म बुद्धिजीवियों के भरोसे जनजातीय समाज के नरसंहार के इस दिन को जनजातीय समाज द्वारा ही गौरव दिवस के रूप में मनवाने के आपराधिक अभियान में सफल भी होता दिख रहा है।

आज का दिन अमेरिका, जर्मनी, स्पेन सहित उन सभी पश्चिमी देशों में बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा पश्चाताप, दुख और क्षमाप्रार्थना का दिन होना चाहिए। इस दिन यूरोपीय आक्रमणकारियों को उन देशों के मूल निवासियों से क्षमा मांगनी चाहिए जिनको उन्होंने बर्बरतापूर्वक नरसंहार करके उन्हें उनके मूल निवास से खदेड़ दिया था। पश्चिमी बौद्धिक जगत का प्रताप देखिए कि हुआ ठीक इसके विपरीत, उन्होंने इस दिन के मंतव्य व आशय को ही पूरी तरह से उलट दिया। हम भारतीय भी इस थोथे विमर्श में फंस गए। आज जिस ‘वल्र्ड इंडीजेनस डे’ का आयोजन किया जाता है, उसका हमसे तो कोई सरोकार ही नहीं है।

यदि जनजातीय दिवस मनाना ही है तो हमारे पास हजारों ऐसे जनजातीय योद्धाओं का समृद्ध इतिहास है जिन्होंने हमारे समूचे भारतीय समाज के लिए कई गौरवमयी अभियान चलाए। वस्तुत: इस पूरे मामले की जड़ बाबा साहब आंबेडकर के मत परिवर्तन के समय दो मतों- इस्लाम एवं ईसाई में व वामपंथ में उपजी निराशा में है। उन्होंने अपने अनुयायियों को इस्लाम व ईसाई मत से दूर ही रहने को कहा। किंतु आज मूल निवासीवाद के नाम पर भारत का दलित और जनजातीय समाज पश्चिमी व इस्लामिक षड्यंत्र का शिकार हो रहा है।

एकमुश्त मत परिवर्तन की आस में बैठे ईसाई मत प्रचारक व मुस्लिम नेता तक बहुत हताश हो गए थे, जब बाबा साहब आंबेडकर ने भारतीय भूमि पर जन्मे व भारतीय दर्शन आधारित धर्म में ही जाने का निर्णय लिया था। पश्चिमी ईसाई धर्म प्रचारकों के इसी षड्यंत्र का अगला क्रम है मूल निवासीवाद का जन्म! भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़ने व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूल निवासीवाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है। इस पश्चिमी षड्यंत्र के कुप्रभाव में आकर कुछ दलित व जनजातीय नेताओं ने अपने आंदोलनों में यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि भारत के मूल निवासियों (दलितों) पर बाहर से आकर आर्यो ने हमला किया और उन्हें अपना गुलाम बनाकर हिंदू वर्ण व्यवस्था को लागू किया।

यह मूल निवासी दिवस मनाने का चलन उपजा क्यों व कहां से? यह दिवस पश्चिम के गोरों की देन है। कोलंबस दिवस के रूप में भी मनाए जाने वाले इस दिन को अंग्रेजों के अपराध बोध को स्वीकार करने के दिवस के रूप में मनाया जाता है। अमेरिका से वहां के मूल निवासियों को बर्बरतापूर्वक समाप्त कर देने की कहानी के पश्चिमी पश्चाताप दिवस का नाम है मूल निवासी दिवस। इस दिवस के मूल में अमेरिका के मूल निवासियों पर जो बर्बर और पाशविक अत्याचार हुए और उनकी सैकड़ों जातियों को जिस प्रकार समाप्त कर दिया गया, वह मानव सभ्यता के शर्मनाक अध्यायों में शीर्ष पर है।

यह सिद्ध तथ्य है कि भारत में जो भी जातिगत विद्वेष और भेदभाव चला वह जाति व जन्म आधारित है, क्षेत्र आधारित नहीं। वस्तुत: इस मूल निवासी के फंडे पर आधारित यह नई विभाजनकारी रेखा एक नए षड्यंत्र के तहत भारत में लाई जा रही है जिससे भारत को पूरी तरह से सावधान रहने की आवश्यकता है।

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