आपातकाल क्यों और कैसे लगा?

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@आपातकाल के 50 वर्ष

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वाधीन भारत के इतिहास में काले अध्याय के तौर पर कुख्यात आपातकाल को ठीक पचास साल पहले इंदिरा गांधी की अगुआई वाली सरकार ने देश पर थोप दिया था। इसके बाद जैसे समूचा देश ही जेल के रूप में तब्दील हो गया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, करीब 35 हजार लोग मीसा और लगभग 75 हजार लोग डीआरआई के तहत गिरफ्तार कर लिए गए।

न्यायपालिका के अधिकार सीमित कर दिए गए। जबरदस्ती नसबंदी कराई जाने लगी। दिल्ली के तुर्कमान गेट की सफाई करने के नाम पर बुलडोजर चलाकर कई घर जमींदोज कर दिए गए। विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां चलाईं। उस गोलीबारी में कितने लोग मारे गए, किसी भी सरकार ने आज तक आधिकारिक आंकड़ा जारी नहीं किया है।

अघोषित आपातकाल का आरोप जब कांग्रेस लगाती है तो प्रकारांतर से वह भी स्वीकार करती है कि आपातकाल गलत था। हालांकि अपनी इस गलती को अब तक वह सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं कर पाई है। आपातकाल के दौरान जेलों में बंद रहे लोगों के लिए कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की गैर कांग्रेसी सरकारों ने पेंशन की शुरूआत की। लेकिन जैसे ही इन राज्यों में कांग्रेसी सरकारें आईं, उन्होंने यह पेंशन बंद कर दी। इसका मतलब यह है कि वह आपातकाल को अब तक सही ही मानती है।

अगर वह गलत मानती तो निश्चित तौर पर पेंशन को जारी रखती। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की सरकारें लौट आई हैं, लिहाजा वहां एक बार फिर पेंशन शुरू हो रही है, लेकिन कर्नाटक में अब भी पेंशन बंद है। जाहिर है कि ऐसा करके कांग्रेस मानती है कि आपातकाल सही था। अगर वह सही था तो फिर देश में अघोषित आपातकाल की चर्चा में उसके शामिल होने को सही कैसे ठहराया जा सकता है।

आपातकाल क्यों लगा, इस दौरान सरकार ने संविधान के तहत मिले जीवन के अधिकार तक को मुल्तवी क्यों कर दिया? इन सवालों के जवाब बार-बार दिए जा चुके हैं। बारह जून 1975 को दो घटनाएं ऐसी घटीं, जिसने इंदिरा गांधी को हिला दिया। इसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के रायबरेली के चुनाव में सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल के आरोप को सही पाते हुए इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द कर दिया था। इसके साथ ही इसी दिन गुजरात में कांग्रेसी चिमन भाई पटेल की सरकार चुनावों में हार गई।

इसके बाद इंदिरा गांधी को लगा कि उनकी सत्ता को बड़ी चुनौती मिली है। बेशक सिन्हा ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए बीस दिनों का समय दिया, लेकिन इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने इस फैसले से बचाव का समानांतर रास्ता खोज लिया। सुप्रीम कोर्ट ने सिन्हा के फैसले पर रोक तो लगा दी, लेकिन इंदिरा गांधी को संसद में वोटिंग में हिस्सा लेने से रोक दिया।

इसके बाद सिद्धार्थ शंकर रे की सलाह पर 25 जून 1975 की रात राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर से देश पर आपातकाल थोप दिया गया। हैरत की बात यह है कि इसके लिए संवैधानिक प्रक्रिया का ध्यान नहीं रखा गया। कैबिनेट की मंजूरी के बिना सीधे राष्ट्रपति का हस्ताक्षर करा लिया गया और कैबिनेट की रस्मी बैठक अगले दिन यानी छब्बीस जून को हुई। दिलचस्प यह है कि नियम-प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए समूचे देश को जेल बना देने वाले आपातकाल को गांधी जी के रचनात्मक शिष्य विनोबा भावे ने अनुशासन पर्व कहा था।

आपातकाल की पूर्व पीठिका में गुजरात से शुरू छात्रों के आंदोलन का पहले बिहार पहुंचना, उसमें जयप्रकाश नारायण का कूदना और सत्ता के साथ उनका व्यवस्था बदलने की अपील करना जैसी बड़ी वजहें रहीं। इक्कीस महीने तक देश पर लागू रहे आपातकाल ने लाखों लोगों को जैसे पिंजरे में कैद कर दिया। पुलिस की निरंकुशता बढ़ गई। न्याय व्यवस्था पंगु हो गई, नौकरशाही हावी रही।

इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी की शह पर मनमानियां हुईं। प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई। इसकी वजह से सतह के तथ्य सामने नहीं आ पा रहे थे। देश के तमाम विपक्षी नेता जेलों में ठूंस दिए गए। इक्कीस महीने बाद जब आपातकाल हटा और देश में चुनाव हुए तो समूचे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया।

इंदिरा गांधी की सहयोगी रहीं पुपुल जयकर ने लिखा है कि आपातकाल के आखिरी दिनों में इंदिरा गांधी आध्यात्मिक गुरू जे कृष्णमूर्ति से मिलीं। उसके बाद उन्होंने देश से आपातकाल हटाने और चुनाव कराने का फैसला लिया। आपातकाल के बाद 1977 के आम चुनावों में विपक्षी दलों के मोर्चे जनता पार्टी ने चुनाव जीता और देश से आपातकाल की काली छाया हटी। इंदिरा और उनकी कांग्रेस को कीमत चुकानी पड़ी। उनकी संसदीय लाज दक्षिण के राज्यों ने रखी।

आपातकाल का एक संदेश यह है कि अब कोई भी सरकार देश में दोबारा आपातकाल लागू करने की कोशिश नहीं कर सकती। अघोषित आपातकाल के आरोपों का बार –बार सामना करने वाले प्रधानमंत्री मोदी कई बार इस तथ्य को दोहरा चुके हैं। आपाताकाल ने देश को अनुशासन में कितना ढाला, इसे लेकर शोध हो सकता है। लेकिन यह सच है कि घोषित तौर पर उसने नागरिक अधिकारों की हत्या की। भारत में चाहे जो भी शासन तंत्र रहे हों, लेकिन जीवन के अधिकार को राज सत्ता ने कभी अस्वीकार नहीं किया। लेकिन इंदिरा सरकार ने ऐसा किया।

आपातकाल का दूसरा संदेश यह है कि तानाशाही वाली राजनीति लोकतांत्रिक समाज में नहीं चल सकती। राजनेता को जनता के सामने झुकना पड़ेगा। अन्यथा, उसका हश्र इंदिरा जैसा ही होगा। यह बात और है कि महज ढाई साल पहले राजनीतिक खलनायिका बनी इंदिरा को इसी देश की जनता ने सिर आंखों पर बैठाया। उनकी तानाशाही को महज ढाई साल बाद ही भूल गई और 1980 के चुनावों में देश की सत्ता सौंप दी।

आपातकाल ने देश को व्यवस्था परिवर्तन का मौका दिया था। जनता ने विपक्षी खेमे को सत्ता इसी बदलाव की उम्मीद के साथ सौंपी थी। लेकिन वह महज सत्ता परिवर्तन रहा, व्यवस्था परिवर्तन नहीं। उसी दौर के उभरे नेता आज जातिवादी राजनीति के महान पैरोकार बन चुके हैं। उन पर भ्रष्टाचार और कदाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं, उन्हें सजाएं हुई हैं। वे आज बड़े और व्यापक भारतीय समाज की बजाय अपनी जातियों के नेता बने हुए हैं।

चंद्रशेखर ने जेपी को उनके आंदोलन के दौरान एक चिट्ठी लिखकर चेताया था कि जो नेता उनके साथ आ रहे हैं, दरअसल वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए नहीं, सत्ता की चाहत के लिए आ रहे हैं। भविष्य में वे अपनी-अपनी जातियों के नेता साबित होंगे। चंद्रशेखर की बात सही साबित हुई। इतनी कि आखिरी दिनों में उन्हें भी अपना राजनीतिक रसूख बनाए और बचाए रखने के लिए इन्हीं जातिवादी नेताओं का सहारा लेना पड़ा।

आपातकाल जनता और राजनेता, दोनों वर्गों के लिए बड़ी सीख का सबब है। जनता को समझना होगा कि व्यवस्था परिवर्तन की बात करने वाले नेताओं पर उसे ठोक-बजाकर भरोसा करना होगा। इसी तरह राजनीति को सोचना होगा कि अगर वह तानाशाह बनी तो उसका भी हश्र इंदिरा जैसा हो सकता है।

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