यूपीएससी में हिन्दी माध्यम वालों का दस वर्षों से क्यों गिर रहा सफलता का ग्राफ

यूपीएससी में हिन्दी माध्यम वालों का दस वर्षों से क्यों गिर रहा सफलता का ग्राफ

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

यूपीएससी में हिन्दी मीडियम के कैंडिडेट्स की सफलता की बात करें तो निराशा ही हाथ लगती है. 2021 की सिविल सेवा परीक्षा में 685 कैंडिडेट पास हुए थे. राजस्थान के रवि कुमार सिहाग हिन्दी मीडियम से परीक्षा देने वालों में टॉपर बने थे. उनकी रैंकिंग 18वीं थी. 22वीं रैंक के साथ सुनील कुमार धनवंता हिंदी मीडियम के दूसरे टॉपर थे. इन दो सफलताओं ने कुछ आस जगाई थी.

आखिरकार सात साल के बाद हिन्दी मीडियम के दो कैंडिडेट टॉप 25 में पहुंचे थे. उससे पहले 2014 में निशांत कुमार जैन को 13वां स्थान मिला था, जो हिन्दी मीडियम से थे. आखिरकार ऐसा क्या है, जो यूपीएससी में हिन्दी मीडियम के कैंडिडेट्स सफलता के लिए तरस जा रहे हैं. हिन्दी भाषी राज्यों से इतने सारे अभ्यार्थी होने के बावजूद अंतिम दौर में वे क्यों पिछड़ जाते हैं? इन्हीं सवालों के जवाब हम जानने की कोशिश करते हैं.

सरकारी स्कूलों में एजुकेशन सिस्टम में गिरावट

एक्सपर्ट्स की मानें तो 1990 के बाद सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में गिरावट आनी शुरू हो गई थी. नींव ही कमजोर होने लगी. 12वीं तक के सब्जेक्ट्स पर छात्रों की पकड़ कमजोर होने लगी. इस वजह से हिन्दी मीडियम वाले युवाओं का बेस नहीं बन पाया. 2005 से ही हिन्दी मीडियम के कैंडिडेट्स की परफॉरमेंस कमजोर होने लगी.

2011 में सी-सैट ने डाला था बड़ा अंतर

यूपीएससी ने 2011 में प्रारंभिक परीक्षा में सी-सैट यानी कॉमन सिविल सर्विसेस एप्टीट्यूड टेस्ट को शामिल किया था. यह हिन्दी मीडियम के छात्रों के पिछड़ने का अहम कारण बना. कॉमन सिविल सर्विसेस एप्टीट्यूड टेस्ट शामिल करने से 400 अंकों का जीएस और 200 अंकों का सी-सैट होता है. छात्रों ने बताया कि वे अंग्रेजी कंप्रीहेंशन के सवालों में फंस जाते हैं और इसे समझने में ही काफी समय निकल जाता है.

 हिन्दी पर व्यापक पकड़ नहीं

एक वजह यह भी बताई जा रही है कि देश में हिंदी भाषी युवाओं की संख्या तो करोड़ों में हैं, लेकिन हिन्दी में व्यापक रूप से पकड़ व अच्छा लिखने वालों की संख्या काफी कम है. यही वजह है कि यूपीएससी में हिन्दीभाषी छात्रों का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं देखा जाता.

 एआई से फायदा तो हुआ पर यह पर्याप्त नहीं

हिन्दी मीडियम के छात्र एआई से कुछ फायदा उठा रहे हैं, पर यह पर्याप्त नहीं है. इससे छात्रों को दूर-दराज के क्षेत्रों में भी स्टडी मैटेरियल उपलब्ध हो पा रहा है. साथ ही अनुवाद की सुविधा होने से वे इंग्लिश मीडियम के स्टडी मैटेरियल्स को समझ पाते हैं. हालांकि इससे अब भी कम ही युवा लाभ उठा पाते हैं.

सी-सैट की जगह क्वालीफाइंग पेपर से मिली कुछ राहत

सी-सैट यानी कॉमन सिविल सर्विसेस एप्टीट्यूड टेस्ट का शुरू से ही विरोध किया जा रहा था. आंदोलन भी हुए. उससे हिन्दी मीडियम के रिजल्ट में लगातार कमी देखी गई. इसके बाद यूपीएससी ने इसे क्वालीफाइंग पेपर बना दिया. इससे हिन्दी मीडियम के छात्रों को कुछ राहत मिली. हालांकि इसे कोई बड़ा अंतर नहीं आया.

 हिन्दी मीडियम वालों के पिछड़ने हैं

  • यूपीएससी क्रैक करने वाले एक वरीय आईएएस का कहना है कि एग्जाम के पैटर्न पर डिपेंड करता है. पैटर्न ही ऐसा है कि ज्यादातर कैंडिडेट इंग्लिश मीडियम को तरजीह देते हैं.
  • हाल के वर्षों के ट्रेंड को देखें तो आईएएस क्रैक करने वाले 90 प्रतिशत कैडिडेट्स इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनजमेंट, मैथ या साइंस से आ रहे हैं. इनका मीडियम भी इंग्लिश ही रहा है.
  • आईएएफ (भारतीय विदेश सेवा), भारतीय राजस्व सेवा में कामकाज देखें तो उसका माध्यम ज्यादातर इंग्लिश होता है. अत: इन क्षेत्रों में हिन्दी मीडियम के युवाओं का सेलेक्शन काफी कठिन है.
  • इंग्लिश मीडियम में स्टडी मैटेरियल काफी अवेलेबल है. यह भी इंग्लिश मीडियम का चुनाव करने के पीछे एक अहम रीजन है.
  • कई कैंडिडेट्स बताते हैं कि इंग्लिश मीडियम में लिखने में आसानी रहती है. हिन्दी में लिखने की तुलना में इंग्लिश में स्पीड ज्यादा रहती है.
  • कोचिंग क्लासेज की बात करें तो इंग्लिश मीडियम में तैयारी कराने वाले शिक्षकों की उपलब्धता ज्यादा है. हिन्दी मीडियम के शिक्षकों की आज भी कमी है.
  • तैयारी में लगे छात्रों का कहना है कि विज्ञान, अंतरिक्ष, संविधान, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, समुद्र, अंतरराष्ट्रीय युद्ध व संबंध, विदेश नीति जैसे सब्जेक्ट्स पर इंग्लिश मीडियम में ही बेहतर स्टडी मैटेरियल आसानी से उपलब्ध है.

 2013 से खराब होती गई स्थिति

  • मेन्स का सिलेबस चेंज किए जाने के बाद से स्थिति काफी बुरी हो गई. पहले टॉप 100 में हिन्दी मीडियम के 10 से 12 कैंडिडेट तो आ भी जाते थे. 2013 के बाद से टॉप 100 में स्थान बना पाने में हिन्दी मीडियम वाले पिछड़ते चले गए. हिन्दी मीडियम के टॉपर की रैंक 107वीं थी. परीक्षा में दो दर्जन लोग ही सेलेक्ट हो पाए थे. 2014 में हिन्दी मीडियम वाले सफल छात्रों की संख्या करीब पांच प्रतिशत तक पहुंची थी. हिन्दी मीडियम के टॉपर की रैंक 13वीं थी.
  • 2015 और 2016 की सिविल सर्विस में हिंदी मीडियम वालों की सफलता देखें तो लगभग 4 से 5 प्रतिशत छात्र ही एग्जाम क्रैक कर पाए थे. 2017 और 2018 की परीक्षा में ये घटकर 2-3 प्रतिशत के बीच पहुंच गया.
  • 2018 के रिजल्ट में हिंदी मीडियम के टॉपर की रैंकिंग 337 रही. इसमें जेनरल कैटेगरी का हिन्दी मीडियम से परीक्षा देनेवाला एक भी कैंडिडेट आईएएस, आईपीएस या आईआरएस नहीं बन सका.
  • 2015 के बाद से हिंदी मीडियम से मेन्स देने वालों का जो आंकड़ा गिरा, वह 2019 और 2020 में भी गिरता ही चला गया. एक आंकड़े के मुताबिक 2015 में हिंदी मीडियम से मेन्स देने वालों की संख्या 2,439 थी. 2019 में यह घटकर 571 हुई। 2020 में 486 पहुंच गई.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

यूपीएससी और अन्य सिविल सर्विसेज की तैयारी कराने वाले डॉ कृष्णा सिंह कहते हैं कि UPSC में पिछले वर्षों में हिंदी माध्यम के छात्रो के रिजल्ट में काफी उतार चढाव देखने को मिला है. अगर हम इसके आशय को समझने की कोशिश करें तो इसके अनेक कारण हैं . 90 के बाद के दशक में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर काफी कमजोर रहा,

जिसका परिणाम यह हुआ की हिंदी माध्यम के छात्रों का कक्षा 6 से 12वीं तक विषयों पर जो पकड़ है, वो काफी कमजोर रह गया. यही UPSC का आधार है और जब यही विद्यार्थी आगे चल कर UPSC की परीक्षा में सम्मिलित हुए तो रिजल्ट खराब होना शुरू हो गया. इसी का परिणाम था की UPSC हिंदी माध्यम के छात्रों का परिणाम 2005 से ही थोड़ा बहुत खराब होने लगा .

CSAT ने हिंदी माध्यम के छात्रों की मुश्किलें और अधिक बढ़ा दीं, जिसे उनके रिजल्ट में व्यापक स्तर पर गिरावट देखने को मिला. हिंदी वालों के लिए अलग दुविधा यह भी रही कि हिंदी माध्यम में स्टडी मैटेरियल्स की कमी थी. व्यपाक पैमाने पर हिंदी माध्यम के छात्रो के लिए काम करने की जरूरत है, ताकि उनके रिजल्ट का प्रतिशत भी अंग्रेजी माध्यम के छात्रो जैसा हो और इसके लिए सतत प्रयास करने करने की जरूरत है तभी ये संभव हो सकता है.

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