अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा या नहीं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा या नहीं? इस सवाल पर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं। एएमयू मामले में कई दिनों की तीखी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा।

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ ने आठ दिनों तक प्रतिद्वंद्वी पक्षों की दलीलें सुनीं। इस पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं।एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला पिछले कई दशकों से कानूनी चक्रव्यूह में उलझा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी, 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजा था। ऐसा ही एक संदर्भ 1981 में भी दिया गया था।

अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामला

एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में 1967 में शीर्ष न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय यूनिवर्सिटी थी, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। हालांकि, जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया तो इस संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा वापस मिल गया, लेकिन जनवरी 2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एएमयू यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाले प्रावधान को रद्द कर दिया था।

UPA सरकार ने दायर की थी अपील

केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर की, जबकि यूनिवर्सिटी ने भी अलग से याचिका दायर की थी।

वहीं, साल 2016 में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वह पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले लेगी। दरअसल, सरकार ने अजीज बाशा मामले में कोर्ट के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्त पोषित एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है।

केंद्र सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट में अपनी बहस पूरी कर ली। केंद्र ने कहा कि एएमयू न तो अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय है और न ही उनके द्वारा प्रशासित होता है। केंद्र की ओर से बहस करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कोर्ट को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को सामाजिक न्याय और बराबरी के आधार पर परखना चाहिए।

उन्होंने कहा एएमयू की अल्पसंख्यक दर्जा होने की दलील स्वीकारने से एससी, एसटी, पिछड़ा और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग जिसे आरक्षण मिलना चाहिए, उन्हें वहां आरक्षण नहीं मिलेगा और जिनके पास पैसा और सब चीजें होंगी उन्हें सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण मिलेगा। इसलिए अल्पसंख्यक दर्जे को कड़ी कसौटी पर परखा जाना चाहिए।हालांकि, पीठ ने उनकी इस दलील पर कहा कि संविधान का अनुच्छेद 30 (अल्पसंख्यकों को पसंद के संस्थान स्थापित करने और प्रबंधन की स्वतंत्रता) इसका अधिकार देता है। मेहता ने कहा इसीलिए कोर्ट को अल्पसंख्यक दर्जे को कड़ाई से परखने की जरूरत है।

वकील ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का विरोध किया

इसके अलावा एएमयू में पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में मुसलमानों को 50 फीसद आरक्षण देने के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर मुकदमा जीतने वाले पक्षकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने भी एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का विरोध किया। द्विवेदी ने कहा कि कोर्ट को पहले यह तय करना चाहिए कि 1920 में जब एएमयू एक्ट बना और विश्वव्दियालय स्थापित हुआ, उस समय क्या मुसलमाना अल्पसंख्यक थे।

अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करनी चाहिए

द्विवेदी ने कोर्ट से आग्रह किया कि कोर्ट को अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करनी चाहिए। कोर्ट यह तय करे कि अनुच्छदे 30 के तहत किसे अल्पसंख्यक माना जाएगा। द्विवेदी ने एएमयू की स्थापना और एएमयू की कोर कमेटी में शामिल लोगों पर दो नेशन थ्योरी की वकालत करने और पाकिस्तान की सरपरस्ती के भी आरोप लगाए।

सर सैयद पर दो राष्ट्र थ्योरी की वकालत करने का आरोप

उन्होंने सर सैयद खान पर दो राष्ट्र की थ्योरी की वकालत करने के भी आरोप लगाए। कहा इसी थ्योरी को फिर इकबाल और जिन्ना ने आगे बढ़ाया। सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ आजकल एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुनवाई कर रही है।

एएमयू का गठन 1920 के एक्ट से हुआ था

मंगलवार को केंद्र सरकार की ओर से बहस करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कोर्ट को ध्यान देना चाहिए कि एएमयू का गठन 1920 के एक्ट से हुआ था। एएमयू न तो अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित किया गया था और न ही उनके द्वारा प्रशासित होता है। मेहता ने अपनी दलीलों के समर्थन में एएमयू एक्ट में समय समय पर हुए संशोधनों का जिक्र करते हुए उन संशोधनों के दौरान संसद में हुई बहस का कोर्ट में हवाला दिया।

एएमयू पर संविधान सभा की बहस का भी जिक्र

साथ ही एएमयू पर संविधान सभा की बहस का भी जिक्र किया और कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है बल्कि राष्ट्रीय महत्व का देश का बेहतरीन संस्थान है। उन्होंने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित करने के परिणाम बताते हुए कहा कि संविधान का अनुच्छेद 15 (1) कहता है कि राज्य किसी के भी साथ जाति, धर्म, भाषा, जन्मस्थान, वर्ण के आधार पर भेद नहीं करेगा।

अनुच्छेद 15(5) विशेष उपबंध कर सकता

इसी अनुच्छेद का खंड पांच है जिसे पहले अपवाद कहा जाता था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे अपने फैसले में विस्तारित बराबरी कहा है। मालूम हो कि अनुच्छेद 15(5) कहता है कि राज्य एससी एसटी और पिछड़ों आदि को बराबरी पर लाने के लिए विशेष उपबंध कर सकता है। ज्ञात हो कि इसी उपबंध के तहत आरक्षण लागू होता है।

एएमयू और ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन की ओर से दलील

तुषार मेहता ने कहा एएमयू और ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन की ओर से दलील दी गई थी कि हम किसकी मांग कर रहे हैं सिर्फ थोड़े से आरक्षण की। मेहता ने कहा कि लेकिन अगर उन्हीं की दलीलें देखी जाएं तो एएमयू में बिना आरक्षण के 70-80 फीसद मुस्लिम छात्र पढ़ते हैं। नियम के मुताबिक डिग्री कॉलेज में 25 फीसद सीटें इंटरनल छात्रों से भरी जाती हैं और 50 फीसद सीटों पर मुसलमानों का आरक्षण लागू कर दिया जाएगा तो खुली सीटें तो सिर्फ 25 फीसद ही बचेंगी।

ऐसे में सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण मिलेगा

एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित करने का नतीजा होगा कि जो लोग आरक्षण पाने की पात्रता रखते हैं जैसे एससी, एसटी, ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, उन्हें आरक्षण नहीं मिलेगा और जिनके पास पैसा और बाकी सबकुछ है उन्हें सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण मिलेगा।

मेहता ने कहा कि कोर्ट को अनुच्छेद 15 (5) के आखिरी भाग पर ध्यान देना चाहिए। यह भाग अल्पसंख्यक संस्थानों के अलावा बाकी संस्थानों में एससी एसटी ओबीसी और ईडब्लूएस आरक्षण लागू करने की बात करता है ऐसे में कोर्ट को अल्पसंख्यक दर्जे को कड़ी कसौटी पर परखना चाहिए। मेहता की दलीलें पूरी होने के बाद राकेश द्विवेदी ने बहस शुरू की।

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