Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
अंतरराष्‍ट्रीय कुल्‍लू दशहरा का आयोध्‍या से है नाता, साढ़े तीन सौ साल से पुराना है इतिहास. - श्रीनारद मीडिया

अंतरराष्‍ट्रीय कुल्‍लू दशहरा का आयोध्‍या से है नाता, साढ़े तीन सौ साल से पुराना है इतिहास.

अंतरराष्‍ट्रीय कुल्‍लू दशहरा का आयोध्‍या से है नाता, साढ़े तीन सौ साल से पुराना है इतिहास.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आयोध्या से कुल्लू लाए गए भगवान रघुनाथ जी का देवभूमि कुल्लू से भी अटूट व गहरा नाता है। कुल्लू दशहरा का इतिहास साढ़े तीन सौ वर्ष से अधिक पुराना है। दशहरा के आयोजन के पीछे भी एक रोचक घटना का वर्णन मिलता है। इसका आयोजन 17वीं सदी में कुल्लू के राजा जगत सिंह के शासनकाल में आरंभ हुआ। राजा जगत सिंह ने वर्ष 1637 से 1662 ईस्वी तक शासन किया। उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी।

कहा जाता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था। उस गरीब ब्राह्मण ने राजा जगत सिंह की किसी गलतफहमी के कारण आत्मदाह कर लिया। गरीब ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा जगत सिंह को लगा। इससे राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था।

jagran

राजा को दी थी भगवान राम चंद्र की मूर्ति लाने की सलाह

असाध्य रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाएं। इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी। इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था।

पकड़े जाने पर भारी हो गई मूर्ति

बताया जाता है कि बड़े जतन से जब मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो वहां उन्हें पकड़ लिया गया। उस समय ऐसा करिश्मा हुआ कि जब आयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वह इतनी भारी हो गई कि कइयों के उठाने से नहीं उठी और जब यहां के पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई। ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या वालों ने मूर्ति को कुल्लू लाने दिया।

jagran

इस तरह शुरू हुआ उत्‍सव

सबसे पहले इस मूर्ति का पड़ाव मंडी-कुल्लू की सीमा पर मकराहड़ में हुआ। कुछ वर्ष यहां पर दशहरा उत्सव यहां पर मनाया गया। इसके बाद मूर्ति को मणिकर्ण के मंदिर में स्थापित किया गया, जहां भी कुछ वर्ष उत्सव मनाया गया, इसके बाद नग्गर के ठावा में मूर्ति रखी गई, वहां भी दशहरा मनाया गया। बाद में रघुनाथ की मूर्ति को कुल्लू में स्थापित किया गया और उनके आगमन में राजा जगत सिंह ने यहां के सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया,

जिन्होंने भगवान रघुनाथ को सबसे बड़ा मान लिया। साथ ही राजा ने भी अपना राजपाठ त्याग कर भगवान को अर्पण कर दिए और स्वयं उनके मुख्य सेवक बन गए, यह परंपरा आज भी कायम है, जिसमें राज परिवार का सदस्य रघुनाथ जी का छड़ीबरदार होता है। इसके बाद से ही देव मिलन का प्रतीक देवमहाकुंभ दशहरा उत्सव आरंभ हुआ।

जिसमें प्राचीन काल से लेकर ही घाटी के सैकड़ों देवी-देवता आकर रघुनाथ के दरबार में हाजिरी भरने लगे। पुराने समय से ही अठारह करडू की सौह ढालपुर मैदान में  दशहरा अपनी विशिष्ट परंपरा के साथ मनाया जाता है। माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं।

1660 में कुल्‍लू में स्‍थापित की थीं मूर्तियां

1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया। राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने। कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना ईष्ट मान लिया। इससे राजा को कुष्‍ठ रोग से मुक्ति मिल गई और फिर दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई। श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की। आज भी यह परंपरा जीवित है।

कुल्लू का राजपरिवार

देश की आजादी के बाद भले ही रियासतें समाप्त हो गई हों, लेकिन कुल्लू घाटी में आज भी राज परिवार का महत्व बरकरार है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यहां का कुल्लू दशहरा है, जिसमें भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार राजपरिवार के सदस्य होते हैं और उन्हीं के द्वारा उत्सव के सभी आयोजन किए जाते हैं। वर्तमान में महेश्वर सिंह छड़ीबरदार हैं, जिन्हें स्थानीय लोग आज भी राजा साहब कहकर ही संबोधित करते हैं।

1921-1960 तक भगवंत सिंह गद्दी पर बैठे, जिनके बाद महेंद्र सिंह और अब उनके पुत्र महेश्वर सिंह उत्तराधिकारी हैं। दशहरा उत्सव के पहले दिन रघुनाथपुर से जब भगवान रघुनाथ की शोभायात्रा निकलती है तो सबसे आगे पालकी में भगवान रघुनाथ जी आते हैं और उसके बाद मुख्य छड़ीबरदार महेश्वर सिंह और उनके साथ उनका परिवार चलता है।

Leave a Reply

error: Content is protected !!