नौकरियों का सृजन कैसे होगा?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
बेरोजगारी दर दिसंबर में चार महीने के उच्च स्तर 7.9 फीसद पर पहुंच गयी, जिसमें शहरी बेरोजगारी 9.3 फीसदी है. यह दिखाता है कि कैसे निराशाजनक अर्थव्यवस्था और महामारी ने भारतीयों को बुुरी तरह प्रभावित किया है. उत्तर प्रदेश में बीते पांच वर्षों में बेरोजगारी की स्थिति सबसे बदतर हुई है. यूपी में दिसंबर, 2016 से दिसंबर 2021 के बीच श्रमबल तो 149.5 मिलियन से बढ़कर 170.7 मिलियन हो गया, पर कार्यरत लोगों का प्रतिशत इसी अवधि में 38.5 से 32.8 तक गिर गया.
नीतिगत निराशा के कई गूढ़ निहितार्थ हैं. डिग्री हासिल करना भी आज नौकरी की गारंटी नहीं है. वर्ष 2019 में 5.5 करोड़ स्नातक डिग्रीधारकों में से 90 लाख बेरोजगार थे. ऐसा लगता है कि हम जनसांख्यिकीय सामर्थ्य को बर्बाद कर रहे हैं. हमारे नीति-निर्माताओं ने भले ही लोकलुभावन कला में महारत हासिल की हो, लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या उन्होंने रोजगार सृजन जैसे बड़े सवाल पर गंभीरता से ध्यान दिया.
भारत के जनसांख्यिकीय आधिक्य को रोजगार हासिल हो, इसके लिए 2023 और 2030 के बीच नौ करोड़ गैर-कृषि रोजगार सृजित करने की दरकार है. पर, इसके लिए प्रयास करने की बजाय हमने अल्पकालिक सुधारों का रुख किया. एक दशक पहले नीति-निर्माताओं को उम्मीद थी कि जिस तरह नौकरियां आ रही हैं, उससे भारत दुनिया का ‘बैक-आॅफिस’ होगा.
अब हम उम्मीद कर रहे हैं कि ‘गिग इकोनॉमी’, जिसे नये युग के स्टार्टअप के जरिये बढ़ावा दिया जा रहा है, वह रोजगार जरूरतों को पूरा करेगा. जुलाई, 2021 तक देश में 53,000 से अधिक मान्यताप्राप्त स्टार्टअप थे, जिन्होंने 5.7 लाख नौकरियां पैदा की. लेकिन, इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में कमी आती गयी. वर्ष 2020 का एक सरकारी सर्वे कहता है कि 31 मार्च, 2017 तक सार्वजनिक उद्यमों में 11.3 लाख कर्मचारी थे, जो 2019 तक घटकर 10.3 लाख रह गये. दरअसल, यह भारत में युवा होने की त्रासदी है. नौकरी पाना आज तल्ख प्रतिकूलताओं से एक खुली मुठभेड़ है.
कई लोगों ने नौकरियों की तलाश ही छोड़ दी है. श्रमबल भागीदारी दर (एलपीआर) अगस्त, 2016 के 47.26 फीसद के मुकाबले दिसंबर, 2021 तक 40-42 फीसदी तक गिर गयी. यानी, हमारे कार्यबल के 60 फीसदी हिस्से ने मजबूरी में काम की तलाश ही छोड़ दी है. हम चाहें तो एक ऐसे राज्य के चरित्र को उभार सकते हैं, जो सार्वजनिक संपत्ति के निर्माण को बढ़ावा दे और मानव पूंजी में अपेक्षित निवेश करे.
हम जैसे-जैसे कायदे-कानूनों को आसान बनायेंगे और उत्पादन को प्रोत्साहित करेंगे, नौकरियों का भी सृजन होगा. इसके लिए बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं को विस्तार देते हुए राज्य की भूमिका को नये सिरे से गढ़ना होगा. महामारी से पहले यानी 2019 तक 20 लाख स्वास्थ्यकर्मियों की जगह खाली थी, दस लाख शिक्षक और 11.7 लाख आंगनबाड़ी सेविकाओं की रिक्तियां थीं. कुल मिलाकर 25 लाख से अधिक रिक्तियां थीं.
वर्तमान में 2.90 लाख से 4.20 लाख तक स्वास्थ्यकर्मियों के जरिये स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हो सकता है. इस संभावना को चुनावी मौसम में नये एम्स की घोषणा भर कर देने से नहीं पूरा किया जा सकता. इन क्षेत्रों में संविदाकर्मी और अनियमित कार्यबल को नियमित करना हमारा नैतिक कर्तव्य है. मसलन, दस लाख आशा वर्कर, बारह लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और दस लाख सहायकों को नियमित करना सामयिक और नौतिक दरकार है.
महज इन दो क्षेत्रों से 52 लाख नौकरियों का रास्ता निकाला जा सकता है. शहरी क्षेत्र में श्रमशक्ति को कुशल बनाने की जरूरत है. एक राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी योजना और सार्वजनिक संपत्ति बनाने पर जोर देने से हमें श्रम कौशल में सुधार, प्रमाणन और आय सहायता प्रदान करने में मदद मिलेगी. इस तरह की योजना दो करोड़ शहरी अनियमित श्रमिकों को 300 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी दर पर सौ दिनों के लिए काम दे सकती है.
इसकी लागत एक लाख करोड़ रुपये सालाना आंकी गयी है. हरित नौकरियों में पारंपरिक रूप से सार्वजनिक सेवाओं (जैसे जल संरक्षण, अपशिष्ट प्रबंधन) को हम शामिल कर सकते हैं. एक आकलन के मुताबिक, एक नगर परिषद 650 हरित नौकरियों, नगरपालिका परिषद 1,875 नौकरियों और एक पूर्ण नगर निगम 9,085 नौकरियों का सृजन कर सकता है. अन्य क्षेत्रों में 150-2500 नौकरियां नवीकरणीय क्षेत्र में उत्पन्न होंगी, जबकि अतिरिक्त 300-2000 नौकरियां अपशिष्ट प्रबंधन में, 80-1700 शहरी खेती में पैदा होंगी.
नौबत यह है कि पिछले साल मध्य प्रदेश के शिवपुरी में 8,000 युवा बेरोजगार जिला अदालत के लिए भर्ती किये जा रहे 20 चपरासी पदों के लिए आवेदक थे. इसी तरह ग्वालियर में कनिष्ठ स्तर की 15 नौकरियों के फाॅर्म लेने के लिए 11,000 बेरोजगार उमड़ पड़े. एमबीए से लेकर पीएचडी डिग्रीधारी बेरोजगार चपरासी तक की नौकरी के लिए लालयित हैं, जबकि वे न्यायिक सेवा या दूसरी अधिकारी स्तर की बहाली के लिए तैयारी कर रहे होते हैं.
यदि सही नीतियां लागू हों, तो हमारे शहर रोजगार सृजन का गढ़ बन सकते हैं. इसके लिए हमें युवाओं की जरूरतों को सीधे सुनने के लिए अधिकारियों, सांसदों और विधायकों की बैठक के साथ शहरी बेरोजगारी पर राष्ट्रीय वार्ता की तरफ बढ़ना चाहिए. जनसांख्यिकीय लाभांश भारत के लिए जनसांख्यिकीय आपदा न बन जाये, हमें रोजगार सृजन और श्रम बाजार के लिए युवाओं के कौशल विकास पर ध्यान देना होगा. अब सिर्फ लफ्फाजी से काम नहीं चलेगा.
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