लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिवस पर शत शत नमन !
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत-पाकिस्तान युद्ध खत्म हुए अभी चार दिन ही हुए थे। माहौल तनाव का था, लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदान में हजारों लोगों के बीच जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री खड़े हुए, तो उनकी वाणी में आत्मविश्वास और चेहरे पर सुकून था। तालियों की गूंज थमी नहीं थी, तभी उन्होंने मुस्कराते हुए कहा—“सदर अयूब कहते थे कि वो दिल्ली तक पैदल पहुंच जाएंगे। लेकिन मैंने सोचा कि उन्हें क्यों कष्ट दिया जाए, हम ही लाहौर जाकर उनका स्वागत कर लेते हैं।” यह सुनते ही पूरा मैदान जोश से भर उठा। यह वही शास्त्री थे, जिनकी ऊँचाई और धीमी आवाज का मज़ाक अयूब खाँ कभी उड़ाया करते थे।
अयूब खाँ का अहंकार और शास्त्री का व्यंग्य
पाकिस्तान के फ़ील्ड मार्शल अयूब खाँ का स्वभाव था कि वो लोगों का आंकलन उनके कद-काठी से करते थे। साल भर पहले उन्होंने शास्त्रीजी के व्यक्तित्व का मज़ाक उड़ाया था। लेकिन 1965 की जंग के बाद वही अयूब खाँ हताश और निराश नजर आने लगे। दरअसल, वो मान चुके थे कि नेहरू के निधन के बाद भारत कमजोर पड़ गया है। लेकिन शास्त्री का नेतृत्व इस सोच को झुठलाने के लिए काफी था। यही कारण था कि अयूब ने अमेरिका तक पर दबाव बनाया कि शास्त्री को महत्व न दिया जाए।
जब अमेरिका ने किया अपमान
शास्त्री जी को काहिरा में गुटनिरपेक्ष सम्मेलन के लिए जाना था। उससे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने उन्हें निमंत्रण भेजा। लेकिन अयूब खाँ की सख़्त आपत्ति के चलते वह न्योता अचानक वापस ले लिया गया। कुलदीप नैयर लिखते हैं कि शास्त्री जी ने इस अपमान को कभी भुलाया नहीं। कुछ महीनों बाद जब जॉन्सन ने दोबारा उन्हें वॉशिंगटन बुलाना चाहा, तो शास्त्री जी ने साफ मना कर दिया। यह उनकी आत्मसम्मान की नीति थी—भारत झुकेगा नहीं।
भूखे पेट का संकल्प और जनता का साथ
1965 की जंग के दौरान अमेरिका ने भारत को धमकी दी कि अगर युद्ध नहीं रोका तो गेंहूँ की आपूर्ति बंद कर देंगे। भारत आत्मनिर्भर नहीं था। ऐसे में शास्त्री ने देश से अपील की—“सप्ताह में एक दिन एक वक्त का भोजन छोड़ दीजिए।” उन्होंने पहले इसे अपने घर पर आजमाया। पत्नी ललिता शास्त्री और बच्चे भूखे रहे, ताकि शास्त्री जी देख सकें कि यह संभव है। जब उन्हें विश्वास हो गया कि परिवार भूखा रह सकता है, तभी उन्होंने देश से अपील की। नतीजा यह हुआ कि लाखों भारतीयों ने शास्त्री की पुकार पर उपवास किया। यह था नेता और जनता के बीच सच्चे रिश्ते का उदाहरण।
सादगी की मिसाल
साल 1963 में जब शास्त्री जी नेहरू मंत्रिमंडल से बाहर हुए, तो आर्थिक तंगी सामने आई। घर का बिजली बिल खुद भरना पड़ता था। कुलदीप नैयर याद करते हैं कि एक शाम पूरा घर अंधेरे में डूबा था। वजह यह थी कि अतिरिक्त खर्च बचाना ज़रूरी था। सांसद की तनख्वाह से घर चलाना मुश्किल हो रहा था। तब उन्होंने अखबारों के लिए लिखना शुरू किया। ‘द हिंदू’, ‘अमृतबाजार पत्रिका’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में उनके लेख छपने लगे और उन्हें अतिरिक्त आय मिली। यही शास्त्री थे—ईमानदार, सादगी से जीने वाले।
छोटे पद पर भी बड़े संस्कार
सीपी श्रीवास्तव, उनके सचिव, बताते हैं कि शास्त्री जी अक्सर अपने अफसरों को खुद चाय परोसते थे। उनका कहना था कि “ये मेरा कमरा है, चाय सर्व करना मेरा हक़ है।” कमरे की अनावश्यक बत्ती खुद बंद कर देना उनकी आदत थी। उनका मानना था कि सार्वजनिक धन की बर्बादी पाप है। यह छोटी-छोटी बातें बताती हैं कि वो बड़े ओहदे पर भी छोटे संस्कारों को कभी नहीं भूले।
‘सुपर कम्युनिस्ट’ की उपाधि
ताशकंद सम्मेलन के दौरान रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन ने देखा कि शास्त्री जी ने बेहद हल्का खादी का कोट पहन रखा है। उन्होंने उन्हें ऊनी कोट भेंट किया। लेकिन अगले दिन फिर शास्त्री वही पुराना कोट पहने दिखे। जब पूछा गया तो उन्होंने बताया कि नया कोट उन्होंने अपने दल के एक सदस्य को दे दिया है। इस पर कोसिगिन ने कहा—“हम तो कम्युनिस्ट हैं, लेकिन शास्त्री जी तो सुपर कम्युनिस्ट हैं।” यह था शास्त्री जी का त्याग और निश्छलता।
सरकारी कार और ईमानदारी की शिक्षा
शास्त्री जी के बेटे सुनील शास्त्री याद करते हैं कि एक बार उन्होंने दोस्तों संग सरकारी इंपाला कार से सैर की। जब शास्त्री जी को पता चला तो उन्होंने ड्राइवर से किलोमीटर गिनवाया और उस दूरी का किराया अपनी जेब से सरकारी खाते में जमा कराया। बेटे को कड़ा सबक मिला कि निजी काम के लिए सरकारी चीज़ का उपयोग पाप है। यह शिक्षा उन्होंने आख़िरी सांस तक निभाई।
जनता के बीच विनम्रता
एक बार बिहार से आए लोग उनसे मिलने प्रधानमंत्री आवास पर पहुंचे। लेकिन शास्त्री जी एक कार्यक्रम में फंस गए और लोग निराश होकर लौट गए। जब उन्हें इसका पता चला तो वे खुद बस स्टॉप तक दौड़े और उन लोगों को घर वापस लेकर आए। बोले—“अगर मैं बुलाकर भी नहीं मिलता तो लोग क्या कहते?” यह विनम्रता शायद ही किसी प्रधानमंत्री में देखी गई हो।
अंतिम यात्रा और दुश्मनों का कंधा
11 जनवरी 1966 को ताशकंद में शास्त्री जी का निधन हुआ। उनके पार्थिव शरीर को कंधा देने वालों में वही अयूब खाँ भी थे, जिन्होंने कभी उनका मज़ाक उड़ाया था। सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन भी उनके साथ थे। इतिहास में कम ही ऐसा हुआ है कि दुश्मन भी दोस्त बनकर अंतिम विदाई दें। शास्त्री की जिंदगी खुली किताब थी—न धन, न संपत्ति, न लालच। केवल ईमानदारी और सच्चाई।