एक गीत का देश बन जाना : “वंदे मातरम्” की वैचारिकी

एक गीत का देश बन जाना : “वंदे मातरम्” की वैचारिकी

वंदे मातरम्” की 150 वीं जयंती 7 नवंबर , 2025 से 7 नवंबर , 2026 तक मनायी जाएगी

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

“वंदे मातरम्”—इन दो शब्दों में एक समूचे सभ्यतागत आत्मबोध की धड़कन है। यह गीत जब उच्चरित होता है तो उसमें न किसी साम्राज्य का गर्व है, न किसी सत्ता की आकांक्षा; उसमें केवल एक ऐसी मातृभूमि की मोहिनी आभा है जो अपनी मिट्टी की महक, अपने खेतों की लहर, अपने जनसमूह की साँसों और अपने लोकजीवन की अनन्त छवियों को एक ही स्वर में बाँध लेती है। “वंदे मातरम्” का सौंदर्य इस बात में नहीं कि इसे राष्ट्रीय गीत कहा गया; इसका सौंदर्य इस बात में है कि यह भारतीय मन की वह स्वाभाविकता है जो प्रशंसा से पहले प्रेम को रखता है और प्रेम से पहले पहचान को।

जब बंकिमचंद्र ने इसे रचा तब वह खेतों में लहलहाती धान की बालियों का अवतरण था, वह अरण्य की छाया में गूँजता पवन था, वह भारद्वाजों और कोकिलों की स्वर-लहरी थी। यह गीत प्रकृति को राष्ट्र और प्रकृति-जीवन को आत्मा मानता है। इसकी भारतीयता इस बात से नहीं मापी जाती कि भारत शब्द कितनी बार आता है बल्कि इस बात से मापी जाती है कि मातृभूमि को प्रकृति की भाषा में कैसे अनुभव किया जाता है—यहाँ राष्ट्र कोई राजनीतिक अवधारणा नहीं बल्कि एक स्नेहिल दृश्य है: धरती माँ है, खेत उसके अंग हैं, जल उसका प्राण है, वृक्ष उसका शृंगार हैं और इस माँ के लिए समर्पण किसी नागरिक का नहीं बल्कि संतान का है।

इस गीत का सांस्कृतिक सौंदर्य इसी जीवित छवि में है। भारतीय संस्कृति में धरती को माता कहा जाना कोई कलात्मक रूपक नहीं बल्कि प्राचीनतम अनुभव-संपदा है। वैदिक ऋषि भी इसे ‘माता भूमिः’ कहकर पुकारते हैं। भारतीय परंपरा में वृक्ष, नदी, पर्वत—ये सभी जड़ नहीं बल्कि चेतना से ओत-प्रोत जीवन-रूप हैं। इसलिए वंदे मातरम् में जो ‘सुजलाम् सुफलाम्’ की छवि आती है, वह मात्र भौगोलिक वर्णन नहीं बल्कि एक सभ्यता की दीर्घ स्मृति है, जहाँ किसान का श्रम, स्त्री का गीत, ऋतु का परिवर्तन और प्रकृति की दानशीलता—सब एक ही सांस्कृतिक लय में बँधे रहते हैं।

वंदे मातरम् के सौंदर्य को समझने का अर्थ है उसकी ‘लोक चेतना’ को पढ़ पाना। यह गीत किसी महल, किसी विद्वान सभा या किसी राजकीय कक्ष की देन नहीं; यह गाँवों की साँस में बसा हुआ गीत है। खेतों की भाषा में, पगडंडी की सरलता में, तालाब के किनारे की नीरवता में, धान की महक में।

यह गीत भारतीय लोक के उसी संसार से उपजा है जहाँ मातृभूमि का अर्थ केवल जन्मस्थान नहीं बल्कि जीवन का वह विस्तार है जो मनुष्य को अपनेपन का नैसर्गिक अधिकार देता है। इसलिए वंदे मातरम् का स्वर जब उठता है तो उसमें किसी भव्यता का आग्रह नहीं—उसमें एक सहज आत्मीयता है जैसे कोई पुत्र अपनी माँ के चरण छू ले, बिना किसी औपचारिकता, बिना किसी प्रदर्शन के।

जन-जीवन की दृष्टि से यह गीत एक रूपक नहीं बल्कि अनुभव है। भारतीय जन कभी भी राष्ट्र को सूखे राजनीतिक सिद्धांत के रूप में नहीं देखता; उसके लिए राष्ट्र-भाव का वही अर्थ है जो जीवन के अन्य उत्सवों का—सरल, सहज, निस्पृह। वंदे मातरम् में जब ‘शस्य-श्यामलाम्’ कहा गया तो वह केवल सौंदर्य नहीं बल्कि श्रम की स्मृति है; किसान के हाथों की मैल और घाम की तपन उस सौंदर्य को सबल बनाती है। ‘मलयज-शीतलाम्’ प्रकृति के वात्सल्य का अनुभव है; वह सांत्वना है, श्रम की थकान पर धरती की शीतल थपकी।

लोक की दृष्टि से यह गीत सभ्यता के उसी केन्द्र को छूता है जहाँ गीत और भूमि अलग नहीं होते। भारतीय लोकगीतों में धरती ‘अम्मा’ है, ‘मइया’ है, ‘धरणी’ है। रानी, देवी, धरणी—सभी छवियाँ एक ही मातृ-भाव में प्रकट होती हैं। वंदे मातरम् इसी लोक-परंपरा का संवर्धित काव्य है। इसलिए इसमें लोक-अनुभूतियों का विस्तार है, शास्त्रीय छंद की गरिमा है और सरलतम प्रतीकों की शक्ति भी।

जहाँ पश्चिमी वैचारिकता राष्ट्र को अनुबंध, कानून, नागरिकता और संवैधानिक कर्तव्य के आधार पर परिभाषित करती है, वहीं वंदे मातरम् भारतीयता को ‘संबंध’ के रूप में देखता है। पश्चिम के लिए भूमि ‘टेरिटरी’ है; भारत के लिए भूमि ‘माँ’ है। पश्चिम के लिए राष्ट्र एक संरचना है; भारत के लिए राष्ट्र एक स्मृति है।

पश्चिम के लिए देश एक मानचित्र है; भारत के लिए देश एक भाव है। इसीलिए वंदे मातरम् का सौंदर्य पश्चिमी दृष्टि से केवल काव्य नहीं बल्कि एक ‘भावनात्मक संसार’ है जो तर्क से नहीं, संवेदना से समझा जाता है।

भारतीयता का सार यही है—राष्ट्र का अनुभव व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर आंतरिक हो जाता है। इस गीत का सौंदर्य किसी बाहरी अलंकरण या उन्नत भाषिक कौशल में नहीं बल्कि इस आंतरिकता में है। वंदे मातरम् में शब्द कम हैं पर अर्थ अपार। इसमें छवि है, पर वह किसी संवैधानिक प्रयोजन के लिए निर्मित नहीं; वह अपने-आप प्रस्फुटित होती है, जैसे खेत में धान की बालियाँ स्वाभाविक रूप से निकल आती हैं।

यह गीत भारतीय सौंदर्यबोध को उस स्तर पर छूता है जहाँ प्रकृति और मनुष्य के बीच कोई विभाजन नहीं; दोनों मिलकर एक ही जीवन-राग रचते हैं। गीत की ध्वनि में वही राग है—प्रकृति का, भूमि का, जन का, इतिहास का, भविष्य का। यह किसी एक युग का गीत नहीं बल्कि समय के साथ बहती हुई एक दीर्घ नदी है जिसका स्रोत भारतीय आत्मा की अदम्य आस्था में है।

वंदे मातरम् को समझना उसके राजनीतिक इतिहास को समझना नहीं बल्कि उसके सांस्कृतिक अर्थ को पहचानना है। यह गीत न केवल स्वाधीनता का प्रथम राग बना बल्कि स्वत्व के आग्रह का भी। भारतीय मन जब अपनी अस्मिता की खोज में था, तब यह गीत उसके लिए किसी शस्त्र से कम नहीं था और आज भी, जब इसे गाया जाता है तो यह कोई पुराना गान नहीं लगता; यह मानो मनुष्य की स्मृति में अंकित किसी प्राचीन ऊषा का पुनर्जागरण हो।

यह गीत केवल माँ की वंदना नहीं बल्कि मनुष्य और मातृभूमि के बीच उस सूक्ष्म संवाद का उद् घाटन है जो भारतीयता की सबसे गहरी जड़ है। वंदे मातरम् में भूगोल सौंदर्य बन जाता है, इतिहास भाव बन जाता है, और राष्ट्र माँ बन जाता है। यही इसकी मार्मिकता है, यही इसकी सार्वकालिकता और यही इसका वह सौंदर्य है जिसे केवल भारतीय अनुभव-परंपरा ही पूरी तरह समझ सकती है।

आभार~ परिचय दास

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