जयशंकर प्रसाद: सौंदर्य, स्वप्न और मनुष्य का अक्षय स्वर

जयशंकर प्रसाद: सौंदर्य, स्वप्न और मनुष्य का अक्षय स्वर

पुण्य तिथि पर विशेष

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जयशंकर प्रसाद के नाम में जैसे कोई शांत संगीत बसता है—एक ऐसा संगीत, जो शब्दों में नहीं, बल्कि उनके बीच के मौन में गूंजता है। उनकी पुण्यतिथि पर यह मौन और अधिक स्पष्ट हो उठता है, मानो वह स्वयं समय की शिराओं में बहता हुआ हमारे पास आता हो और कहता हो कि साहित्य किसी देशकाल में नहीं बसता; वह मनुष्य की भीतरी आकांक्षा में जन्म लेता है, और वहीं अमर रहता है। प्रसाद इसी अमरता के कवि थे—एक ऐसे कवि, जिनकी देह भले समय ने हर ली हो पर जिनकी लेखकीय दृष्टि आज भी लगातार आलोकित करती है।

प्रसाद के भीतर एक अद्भुत कोमलता थी, जो किसी मृदु वर्षा की तरह उतरती थी। वह कोमलता उनके शब्दों में नहीं बल्कि उनकी दृष्टि में थी; यह दृष्टि अपने समय के संघर्षों को देखकर भी कठोर नहीं होती थी। उसमें एक आश्वस्त करने वाली गरिमा थी—कभी चंद्रगहना की नरम घास पर बिखरी हवा की तरह, कभी किसी प्राचीन मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा हुआ शांत संन्यासी, कभी किसी स्त्री की आँखों में छिपी हुई प्रतीक्षा। प्रसाद ने साहित्य को इसी दृष्टि के सहारे विस्तार दिया—एक ऐसा विस्तार, जिसमें संघर्ष भी था, स्वप्न भी था और मनुष्य की नसों में बहते हुए सौंदर्य का धीमा-सा संगीत भी।

उनकी काव्य-यात्रा इस बात की प्रमाण है कि कविता केवल भाषा का कौशल नहीं होती; वह दृष्टि का पुनर्जन्म होती है। प्रसाद इस पुनर्जन्म के सबसे स्वच्छ और सर्वाधिक संवेदनशील कवि थे। उनकी सौंदर्य-दृष्टि न रोमानी पलायन थी, न काल्पनिक चमत्कार; वह एक सुस्पष्ट अनुभूति थी—उन अनुभूतियों की, जिनमें मनुष्य कभी पराधीन नहीं होता। उन्होंने सौंदर्य को एक ऐसा आयाम दिया, जिसमें आत्मा और प्रकृति के बीच कोई भेदरेखा नहीं रहती, और दोनों एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हो उठते हैं।

उनका नाटक-साहित्य भारतीय रंगमंच की भाषा को जैसे एक नई ऊँचाई दे गया। जब वे इतिहास और मिथक को मंच पर लाते थे तो उनके पात्र केवल ऐतिहासिक या पौराणिक व्यक्तित्व नहीं रह जाते; वे संवेदनशील मनुष्य बनकर हमारी भावनाओं के बीच प्रवेश करते। वे अपने समय की बनावट में गहरे धँसे हुए थे पर उनकी अभिव्यक्ति के क्षणों में उस समय का बंधन टूट जाता था और वह मनुष्य की सार्वभौमिकता में बदल जाता था। यही प्रसाद की कलात्मकता थी—वे इतिहास की धूल से मनुष्य की आभा को बाहर निकाल लेते थे।

कविता, नाटक, कथा—हर विधा को उन्होंने उस शांति से भरा जो केवल किसी साधना से आ सकती है। यह साधना कोई प्रपंच नहीं थी—यह उनकी भीतरी लय थी। उनके भीतर से जिस भाषा का जन्म होता, वह उतनी ही पवित्र होती, जितनी कि किसी आरती की लौ में झिलमिलाहट। शायद इसीलिए उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए कभी लगता ही नहीं कि वे प्रयास कर रहे हैं;

वे जैसे सहजता को एक कला में रूपांतरित कर देते थे। यह सहजता प्रसाद के व्यक्तित्व की मूल पहचान थी—जिसने उन्हें न केवल आधुनिक हिंदी के आधारशिला-निर्माता के रूप में स्थापित किया बल्कि उन्हें एक ऐसी ऊँचाई दी, जहाँ से साहित्य को देखने का कोण बदल जाता है।

वे अपनी रचनाओं में मनुष्य के भीतर छिपी हुई पहचान को तराशते थे। यह पहचान कभी वीरता की होती, कभी करुणा की, कभी प्रेम की, और कभी resignation की—लेकिन हर बार वह पहचान मनुष्य को अपने गूढ़तम अंतःकरण से जोड़ देती। प्रसाद मानो यह कहना चाहते थे कि साहित्य मनुष्य को अलग नहीं करता; वह उसे उसकी संपूर्णता में पुनः लौटा देता है। इस संपूर्णता में वास्तविक सौंदर्य जन्म लेता है—एक ऐसा सौंदर्य, जिसमें भाषा का विनम्र स्पर्श, विचार की कोमल परतें, और अनुभूति की गहन शांति एक साथ उपस्थित रहती हैं।

प्रसाद की पुण्यतिथि पर उनके साहित्य को याद करना, दरअसल, किसी खोए हुए समय का पुनर्निमाण करना नहीं है; यह अपनी ही संवेदनाओं को फिर से छू लेने जैसा है। उनकी रचनाएँ आज भी इसलिए प्रासंगिक हैं कि वे मनुष्य के भीतर शुद्धता और सरलता को जाग्रत करती हैं—वे उसे उसके भीतर की शरण में ले जाती हैं। यह शरण किसी पलायन का रूप नहीं; यह आत्मा का वह कक्ष है, जहां से मनुष्य फिर से अपने संसार को देखने की क्षमता प्राप्त करता है।

उनके निधन के साथ साहित्य के भीतर एक ऐसी शांति उतर आई थी, जिसे लंबे समय तक महसूस किया गया। यह शांति किसी कमी की नहीं थी; यह एक पूर्णता के बाद की निस्तब्धता थी—जैसे कोई महान वीणा अपना अंतिम स्वर छोड़कर मौन हो जाए। यह मौन आज भी जीवित है। प्रसाद की लेखनी उस मौन को भाषा देती है, और भाषा को आत्मा का स्पर्श। वे भले देह से विदा ले चुके हों, पर उनका सौंदर्य-बोध, उनका विचार, उनका मानवीय स्पर्श आज भी हमारे भीतर किसी धीमी लपट की तरह सहसा उठ जाता है।

उनकी पुण्यतिथि इस बात की स्मृति है कि साहित्यकार कभी मरते नहीं; वे अपने पाठकों के भीतर एक नई धड़कन के रूप में जन्म लेते रहते हैं। प्रसाद भी इसी रूप में जीवित हैं—साहित्य के भीतर एक उज्ज्वल, शांत, और अविनाशी स्वर की तरह। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए समय के शोर कुछ पल के लिए ठहर जाते हैं, और भीतर एक शीतल प्रवाह बहने लगता है—एक ऐसा प्रवाह, जो हमें भाषा की विनम्रता और अनुभूति की गरिमा की ओर लौटाता है।

प्रसाद की उपस्थिति इस दुनिया के लिए एक सौभाग्य थी; उनकी अनुपस्थिति भी उतनी ही अर्थपूर्ण है, क्योंकि वह अनुपस्थिति हमें उनका महत्व और अधिक गहराई से समझने देती है। वे चले गए, पर अपने पीछे जिस अलभ्य कोमलता की दुनिया छोड़ गए, वह हमारे लिए एक स्थायी आश्रय है—एक ऐसा आश्रय, जहां शब्द केवल शब्द नहीं रहते, बल्कि आत्मा की शीतल ज्योति बन जाते हैं।

और इस ज्योति में प्रसाद आज भी मुस्कुराते हैं—शांत, निर्द्वन्द्व, और वैसे ही निष्पाप, जैसे उनकी कविता की एक ताज़ा पंक्ति।

जयशंकर प्रसाद के साहित्य को संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद, स्त्रीवाद, मनोविश्लेषण, उपनिवेशवाद-विमर्श और रीडर-रिस्पॉन्स—के भीतर रखकर देखा जाता है तो उनके संपूर्ण लेखन में कई नये आयाम खुलते हैं। प्रसाद का साहित्य केवल छायावादी सौंदर्य या काव्यात्मक स्वप्न का संसार नही बल्कि एक गहन सांस्कृतिक संरचना, मनोवैज्ञानिक गहराई और प्रतीक-शिल्प का समुच्चय है, जिसे पश्चिमी थियरी एक अलग रोशनी में देखने में सक्षम बनाती है।

संरचनावादी (Structuralist) दृष्टि से प्रसाद~

संरचनावाद भाषा और साहित्य को एक सिस्टम मानता है—चिह्नों का एक विस्तार, जिसमें अर्थ उनकी विपरीतताओं से जन्म लेता है। प्रसाद की काव्य और कथा-भाषा इसी संरचना का सुंदर रूप है।

उनकी काव्य-रचना—“निशा-निशा यह अंतहीन” — में प्रकाश/अंधकार, आशा/निराशा, प्रकृति/मनुष्य, स्थिरता/चंचलता जैसी द्वंद्व-रचनाएँ देखने को मिलती हैं।

कामायनी विशेषतः एक “स्ट्रक्चरल टेक्ट्स” है—जल, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, मनु, श्रद्दा, इड़ा—ये सभी प्रतीक अर्थों की एक व्यवस्थित श्रृंखला रचते हैं। संरचनावाद कहेगा कि प्रसाद की कविता स्थिर अर्थ नहीं देती; वह सिस्टम के भीतर अर्थ की गति दिखाती है।
इस दृष्टि से कामायनी केवल एक कथा नहीं—एक प्रतीकात्मक भाषा-संरचना है।

उत्तर-संरचनावाद और डी-कंस्ट्रक्शन (Derrida)~

डेरिदा कहेंगे कि प्रसाद की भाषा “उस स्थिर अर्थ” को स्थगित करती है जिसे वे स्वयं गढ़ते हैं।
“अरुण यह मधुमय देश हमारा” में देश, सौंदर्य, प्रकृति एक आशावादी ग्लोब रचते हैं, लेकिन उसी समय कविता में एक नाजुक “अस्थिरता” रहती है—प्रसाद का “मधुमय” स्वयं समय और दुःख से चुनौती पाता है।
कामायनी में मनु की तर्कपरकता और इड़ा की वैज्ञानिकता—दोनों परस्परपूरक हैं, पर दोनों एक-दूसरे के अर्थ को अस्थिर करते हैं।

डेरिदा के अनुसार प्रसाद अपने पाठ में “अर्थों के दरारें” छोड़ते हैं—और यही उनकी भाषिक विशिष्टता है।

मनोविश्लेषणात्मक आलोचना (Freud, Jung)~
प्रसाद की रचनाएँ मनोविश्लेषण के लिए अत्यंत उर्वर हैं।

फ्रायडीय दृष्टि~
मनु—अहं (Ego)
श्रद्दा—आध्यात्मिक, मातृत्व-नुमा सुपरेगो (Superego)
इड़ा—प्रज्ञा, विज्ञान, तर्क—अहं को चुनौती देती हुई
कामायनी की समस्त यात्रा—इच्छा, दमन, सुख और अपराधबोध की मनोवैज्ञानिक गाथा है।

जुंगीय दृष्टि~
प्रसाद के पात्र “आर्कटाइप्स” हैं—मनु “मानव-आर्कटाइप,” श्रद्दा “अनिमा,” इड़ा “शैडो” का परिष्कृत रूप।
उनके नाटकों में ऐतिहासिक पात्र भी सामूहिक अवचेतना के प्रतीक बन जाते हैं।

“जुंगीय विश्लेषण” कहेगा कि प्रसाद के यहाँ इतिहास मिथक में बदल जाता है—और मिथक मनुष्य के भीतर की मूलभूत संरचनाओं को प्रकट करता है।

स्त्रीवादी समालोचना~
स्त्रीवाद प्रसाद को एक विशेष दृष्टि से देखता है—वे स्त्री को गरिमा देते हैं, परंतु उसे एक आदर्शीकृत, सौंदर्य-प्रधान, पुरुष-दृष्टि के भीतर स्थापित भी कर देते हैं।

श्रद्दा—त्याग, प्रेम, मातृत्व का आदर्श

इड़ा—प्रज्ञा, तर्क, ज्ञान—परंतु उनका प्रभाव मनु को भयभीत करता है

प्रसाद के नाटकों की स्त्रियाँ सुंदर हैं, कोमल हैं, किंतु उनकी स्वतंत्रता सीमित है

स्त्रीवादी थियरी कहेगी—
प्रसाद स्त्री को सम्मान देते हैं, पर उसे पुरुष की आध्यात्मिक व भावनात्मक पूरकता के रूप में परिभाषित करते हैं।
उनके साहित्य में स्त्री एक स्वायत्त अस्तित्व कम, एक प्रतीक अधिक है।

उत्तर-औपनिवेशिक (Postcolonial) आलोचना~
प्रसाद के इतिहास-नाटक और भारतीयता की भावना उत्तर-औपनिवेशिक पाठ में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी—ये नाटक यश और पराजय नहीं, सांस्कृतिक प्रतिरोध की कथा कहते हैं।
उपनिवेश के समय भारतीय अस्मिता के पुनरुत्थान का कार्य प्रसाद ने सौंदर्य और इतिहास के माध्यम से किया।

उत्तर-औपनिवेशिक विश्लेषण कहेगा कि प्रसाद “औपनिवेशिक हीनता” के विरुद्ध एक सांस्कृतिक पुनर्निर्माण करते हैं—भारतीय इतिहास को गौरवशाली बनाकर।
वे सीधे-सीधे औपनिवेशिक सत्ता पर प्रहार नहीं करते, परंतु सांस्कृतिक प्रतिरोध का अत्यंत परिष्कृत साहित्य रचते हैं।

रीडर-रिस्पॉन्स थियरी (Iser, Fish)~
पाठक की भूमिका यहाँ केंद्रीय है।
प्रसाद “गैप्स” छोड़ते हैं—पाठक को स्वयं अर्थ गढ़ना पड़ता है।
कामायनी में पाठक प्रत्येक प्रसंग का अपना “उपपाठ” बनाता है।
उनके नाटकों का प्रभाव भी पाठक या दर्शक की सांस्कृतिक स्मृति पर निर्भर है।
रीडर-रिस्पॉन्स कहेगा कि प्रसाद का साहित्य स्थिर अर्थ नहीं देता—वह पाठक के “संस्कृति, अनुभव और सौंदर्य-बोध” पर नए अर्थ रचता है।

न्यू क्रिटिसिज़्म (Close Reading)~
क्लोज़-रीडिंग में प्रसाद सबसे अधिक चमकते हैं।
उनकी इमेजरी—नील नदी की धार जैसी स्वच्छ
प्रतीक—संतुलित, सुवासित, परतदार
भाषा—संगीतात्मक और तर्कशील का संतुलन
नई समीक्षा दृष्टि से प्रसाद का लेखन टेक्स्ट की आत्मनिर्भरता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
टेक्स्ट अपने भीतर ही पूरा संसार रच देता है—बाहरी संदर्भों की आवश्यकता नहीं रहती।

संरचनावाद से उनकी प्रतीक-संरचना समझ आती है।
उत्तर-संरचनावाद से अर्थ की अस्थिरता और मौन की भूमिका खुलती है।
मनोविश्लेषण उनके मिथकीय संसार को मनोवैज्ञानिक यात्रा बनाता है।
स्त्रीवाद उनके सौंदर्य-मूल्यांकन को चुनौती देता है।
उत्तर-औपनिवेशिकता उनकी भारतीयता को सांस्कृतिक प्रतिरोध के रूप में समझती है।
रीडर-रिस्पॉन्स उनके साहित्य की बहुअर्थकता सिद्ध करता है।

जयशंकर प्रसाद केवल छायावादी कवि नहीं; वे एक ऐसे लेखक हैं जिनका साहित्य के हर फ्रेम में नए अर्थ, नए संकेत और नई सौंदर्य-दृष्टियाँ रचता है। उनकी पुण्यतिथि पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी कृति अतीत की धरोहर नहीं बल्कि हर नए सिद्धांत के लिए खुली हुई एक जीवित पाठ-भूमि है।

आभार- परिचय दास

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