मुझ जैसे अज्ञानी को एक अकादमिक विषय पर बोलने को कहा गया-तेजेंद्र शर्मा
तेजेंद्र शर्मा प्रवासी साहित्यकार है, आप लंदन में रहते है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मित्रो, मैं लन्दन वापिस आ चुका हूं।
(मुझे 14 नवंबर 2025 को गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोयडा में भारतीय हिन्दी प्राध्यापक परिषद द्वारा आयोजित एक सेमिनार में बोलने का अवसर मिला। मंच पर आसीन थे – प्रोफेसर राणा प्रताप सिंह, प्रो. नवीन लोहनी, प्रो. विनोद मिश्र, प्रो. संजीव दुबे एवं प्रो. वंदना पांडेय।)
मैं अपने वक्तव्य का एक अंश यहां आपके लिये प्रस्तुत कर रहा हूं :-
आज बहुत अजीब सा लग रहा है कि हिन्दी साहित्य के विशेषज्ञों के सामने – जो कि भारत भर के विश्वविद्यालयों से यहां गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के प्रांगण में एकत्रित हुए हैं – मुझ जैसे अज्ञानी को एक अकादमिक विषय पर बोलने को कहा गया है।
आज का विषय है – स्वाधीनता आंदोलन और हिन्दी साहित्य। मेरे हिसाब से हमें इस विषय को दो कोणों से समझने का प्रयास करना होगा। पहला कोण होगा कि क्या हिन्दी साहित्य का स्वाधीनता आंदोलन पर किसी प्रकार का कोई असर था… यानी कि क्या हिन्दी साहित्य की इतनी पहुंच थी कि वह स्वाधीनता सेनानियों तक पहुंच पाए। और दूसरा भाग होगा कि क्या उस काल का हिन्दी साहित्य स्वाधीनता आंदोलन के प्रभाव में लिखा गया।
हम जब स्कूल में पढ़ा करते थे तो देश प्रेम की दो रचनाएं अवश्य रटने को मिलती थीं… पहली श्याम नारायण पांडेय जी की – रण बीच चौकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के कोड़े से पड़ गया हवा का पाला था। दूसरी कविता सुभद्रा कुमारी चौहान जी की – बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, ख़ूब लड़ी मरदानी वो तो झांसी वाली रानी थी।
हमने ये कविताएं अपने स्कूल में पढ़ी थीं मगर ये कविताएं हमने कभी किसी स्वतंत्रता सेनानी के मुख से कभी नहीं सुनीं।
हमें इस सेमिनार के आने वाले सत्रों में इस बात पर भी ग़ौर करना होगा कि स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में किसी भी पत्रिका की कितनी प्रतियां छपती थीं और उन्हें लोगों तक पहुंचाने का क्या तरीका था। सोशल मीडिया तो उस ज़माने में था नहीं। यही बात हमें उस समय के समाचारपत्रों के बारे में भी पता लगानी होगी। यदि बात को स्वतंत्रता सेनानियों तक पहुंचाने का ज़रिया ही नहीं तो बात पहुंचेगी कैसे ?
हाँ एक उर्दू की ग़ज़ल का एक शेर हमें याद रहता है – “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है… देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है।” यह ग़ज़ल 1921 में पटना के बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा उर्दू में लिखी गई थी।
भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान इसे स्वतंत्रता संग्राम के नारे के रूप में लोकप्रिय बनाने का पूरा श्रेय राम प्रसाद बिस्मिल को दिया जाता है। इस कविता को सर्वप्रथम दैनिक समाचार-पत्र “सबह” में प्रकाशित किया गया था, जो कि स्वतंत्रता सेनानियों जैसे अशफाक-उल्ला ख़ान, शहीद भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद से संबंध था। यानी कि शायर बिस्मिल और स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल ने इस शेर को स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख नारा बना दिया।
ठीक इसी तरह कवि वंशीधर शुक्ल के गीत – “क़दम-क़दम बढ़ाए जा / ख़ुशी के गीत गाए जा / ये ज़िन्दगी है क़ौम की / तू क़ौम पर लुटाए जा ” की पहली चार पंक्तियां लेकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज के कप्तान रामसिंह ने एक नया गीत रचा और उसकी धुन भी स्वयं बनाई। यही गीत आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों के लिये तो मार्चिंग गीत बना ही उसके साथ-साथ आम भारतीय में भी स्वतंत्रता की भावना भर देता था।

मुझे बोलने के लिये दस मिनट दिये गये हैं और मैंने संजीव दुबे को यह वादा किया था कि मेरे दस मिनट का अर्थ होगा 9 मिनट 59 सेकंड। मेरी बीबीसी रेडियो की ट्रेनिंग ने मुझे यही सिखाया है कि माइक पर समय का सम्मान कैसे किया जाता है। इसलिये मैं साहित्यिक विभूतियों की कविताओं से उदाहरण ना देकर अपने समय को बचा रहा हूं। यह काम अन्य वक्ता अवश्य करेंगे।
मेरा मानना है कि साहित्य मूलतः अपने स्वभाव में एलीटिस्ट है। इसकी पहली शर्त है कि आपको लिखना पढ़ना आना चाहिये। इस मामले में मैं हिन्दी फ़िल्मों को हिन्दी साहित्य की तुलना में अधिक सक्षम मानता हूं। सिनेमा के माध्यम से बात आम जनता तक पहुंचाई जा सकती है जिन्हें हिन्दी एक बोली की तरह भी आती हो तो वे बात को समझ सकते हैं। आज भी हिन्दी के प्रचार प्रसार में हिन्दी सिनेमा और टीवी कार्यक्रम हिन्दी साहित्य के मुकाबले अधिक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
इस मामले में कवि प्रदीप का नाम प्रमुखता से सामने आता है। 1940 में ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में उन्होंने फिल्म ‘बंधन’ के लिए एक गीत लिखा। यूं तो फिल्म बंधन में उनके रचित सभी गीत लोकप्रिय हुए, लेकिन ‘चल चल रे नौजवान…’ के बोल वाले गीत ने आजादी के दीवानों में एक नया जोश भरने का काम किया। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था और हर प्रभात फेरी में इस देश भक्ति के गीत को गाया जाता था। इस गीत ने भारतीय जनमानस पर जादू-सा प्रभाव डाला था। यह राष्ट्रीय गीत बन गया था।
उन्नीस सौ चालीस के दशक में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अंग्रेज सरकार के विरुद्ध ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ अपने चरम पर था। वर्ष 1943 में प्रदर्शित फिल्म ‘किस्मत’ में प्रदीप के लिखे गीत ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ जैसे गीतों ने जहां एक ओर स्वतंत्रता सेनानियों को झकझोरा, वहीं अंग्रेजों की तिरछी नजर के भी वह शिकार हुए। प्रदीप का रचित यह गीत ‘दूर हटो ए दुनिया वालो’ एक तरह से अंग्रेज़ सरकार पर सीधा प्रहार था।
राजा मेहँदी अली ख़ान ने फ़िल्म शहीद के लिये एक गीत लिखा था “वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों…” ये फ़िल्म यूं तो 1948 में रिलीज़ हुई मगर गीत उससे बहुत पहले लिखा जा चुका था।
हमें स्वतंत्रता के बाद का पंडित जवाहर लाल नेहरू जी का एक प्रसंग याद आता है। एक बार संसद में चलते हुए नेहरू जी लड़खड़ा गए थे और इससे पहले कि वे गिरते उनके पीछे चल रहे रामधारी सिंह दिनकर जी ने उन्हें संभाल लिया। नेहरू जी ने उन्हें धन्यवाद करते हुए कहा “अच्छा हुआ आपने संभाल लिया वरना मैं गिर जाता।”
दिनकर जी ने जवाब दिया – “जब-जब राजनीति लड़खड़ाती है तब-तब साहित्य उसे संभाल लेता है।”



बहुत ही सारगर्भित, ज्ञानवर्धक तथा रोचक