क्या शांति का विकल्प हैं परमाणु हथियार?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अभी कोई नहीं जानता कि रूस-यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग आखिर में किस मुकाम पर पहुंचेगी। सैन्य बल, हथियारों और परमाणु शक्ति से लैस रूस के सामने यूक्रेन ने जिस तरह की चुनौती पेश की है, उनमें दावा है कि रूस उस पर एटमी मिसाइलों से हमले की तैयारी कर चुका है।

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने लगाए जा रहे आर्थिक प्रतिबंधों के जवाब में परमाणु हथियारों की तैनाती का आदेश दिया है। इसके बाद से रूसी सेना के परमाणु निवारक बल (न्यूक्लियर डेटेरेंट फोर्सेज) हाई अलर्ट पर चले गए हैं। इन तैयारियों की देखते हुए पूरी दुनिया इस आशंका से सिहर उठी है कि 1945 के बाद कहीं एक बार फिर एटम बम न चल जाएं।

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परमाणु हमला कितनी बड़ी त्रसदी पैदा कर सकता है, इसे जापान ने साक्षात देखा, भोगा है। अब उसी जापान से इस पर विचार करने की मांग उठ रही है कि शांति के लिए परमाणु हथियार जरूरी हैं तो इस पर बात की जाए। उधर रूसी हमले को देखते हुए यूक्रेन में यह पछतावा भी दिखा है कि काश, उसने अपने सारे परमाणु हथियार रूस के हवाले न किए होते। बात अकेले रूस, यूक्रेन, जापान की नहीं है, बल्कि विश्वयुद्ध छिड़ने की आशंका के बीच पूरी दुनिया में भी यह बहस जोर पकड़ने लगी है कि अगर कोई देश एटमी ताकत से लैस दुश्मन के सामने नाटो जैसे संगठन की ओर से पर्याप्त मदद नहीं मिलने पर घुटने टेकने को मजबूर होता है तो क्या इससे बेहतर नहीं होगा कि वह अपने यहां परमाणु हथियार बनाए रखे?

जब कभी भी परमाणु हथियारों के औचित्य का मसला उठता है तो जापान को एक मिसाल के रूप में पेश किया जाता है। बताया जाता है कि परमाणु हथियारों का जखीरा रखना और एटमी जंग को छेड़ना असल में मानवता के खिलाफ एक ऐसा अपराध है, जिसकी कोई माफी नहीं हो सकती। इससे प्रेरणा पाकर कई देशों ने अपने परमाणु हथियार कार्यक्रमों पर रोक लगाई है, उनकी संख्या में कटौती की है और इस आश्वासन के तहत परमाणु हथियार त्याग दिए हैं कि किसी दुश्मन के आक्रमण की स्थिति में उसकी मदद की जाएगी।

हालांकि यूक्रेन की हालत ने जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एबी तक को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया है कि उनके देश को परमाणु हथियारों पर सक्रिय बहस शुरू करनी चाहिए। नाटो की तरह एक संभावित ‘न्यूक्लियर-शेयरिंग’ कार्यक्रम शुरू करने की वकालत करते हुए एबी ने साफ कहा है कि अगर यूक्रेन ने सोवियत संघ से अलग होने के वक्त एक सुरक्षा गारंटी (प्रतिरोधक शक्ति) के रूप में कुछ परमाणु हथियार रख लिए होते तो शायद आज रूस उस पर इस तरह हमलावर नहीं होता।

न्यूक्लियर-शेयरिंग व्यवस्था : आज अगर प्रतिरोधक शक्ति के तौर पर परमाणु हथियार की बात उठ रही है तो इसका एक पहलू परमाणु हथियार-विहीन देशों की जरूरत पड़ने पर मदद और दूसरे देशों के दखल की शक्ति कमजोर पड़ने से जुड़ा हुआ है। पूछा जा रहा है कि जिस तरह के हालात का सामना आज यूक्रेन कर रहा है, भविष्य में यदि कभी ताइवान को ऐसी ही स्थितियों से दो-चार होना पड़ा तो क्या होगा?

खास तौर से वे देश जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत कर रखे हैं, क्या उन्हें इसी तरह निरुपाय छोड़ दिया जाएगा? निश्चय ही यूक्रेन का उदाहरण कई मामलों में कसौटी के रूप में लिया जाता रहेगा। इसमें सबसे अहम कसौटी यह होगी कि अगर कोई देश परमाणु हथियार बनाने की क्षमता होते हुए ही दुनिया में शांति कायम रखने के संकल्प के साथ एटमी हथियारों से परहेज बरतता है तो उसके पास अपने बचाव के क्या उपाय या साधन होंगे?

जाहिर है जापान जैसे देश जो गैर-परमाणु सिद्धांतों पर अडिग रहे हैं, अब इसे लेकर संजीदा हो सकते हैं कि दुनिया को सुरक्षित बनाने, शांति कायम रखने और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए परमाणु विकल्प छोड़ने के बजाय उसे अपनाना ज्यादा समझदारी भरा फैसला हो सकता है। इन संदर्भो में अगर एशिया की ही बात करें तो चीन के आक्रामक रुख और उत्तर कोरिया के एटमी कार्यक्रम इस जरूरत को फौरी तौर पर रेखांकित करते हैं।

इसमें शिंजो एबी के सुझाए गए विकल्प को लेकर चर्चा हो सकती है, जिसमें उन्होंने नाटो की न्यूक्लियर-शेयरिंग व्यवस्था का हवाला दिया है। यानी आवश्यकता महसूस होने पर उस देश के साथ हथियार बनाने के मकसद से परमाणु तकनीक हस्तांतरित की जा सकती है, जो वैसे तो परमाणु अप्रसार के सिद्धांतों को मानता है और उनका पालन करता है, लेकिन दुश्मन देशों के मुकाबले के लिए उसे परमाणु हथियारों की जरूरत है। इन चर्चाओं को ध्यान में रखें तो समझ में आ जाता है कि आखिर भारत ने परमाणु प्रतिरोध का अपना विकल्प क्यों नहीं छोड़ा और पोखरण की धरती पर क्यों दो बार परमाणु परीक्षण किए।

भारत का परमाणु प्रतिरोध : इस समूचे परिदृश्य में भारत को लाया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि सीमाओं की रक्षा और शांति कायम रखने के लिए परमाणु प्रतिरोध क्यों जरूरी है? हमारे देश के संदर्भ में यह प्रसंग इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उसके दो प्रमुख पड़ोसी देश-पाकिस्तान और चीन परमाणु संपन्न मुल्क हैं। चीन न सिर्फ गिनती में हमसे आगे है, बल्कि उसने जिस तरह अपने यूमेन शहर के पास रेगिस्तान में सौ से अधिक (119) मिसाइल साइलोज (मिसाइल रखने के ठिकाने) बनाए हैं,

उसने भारत की चिंताएं काफी ज्यादा बढ़ा दी है। दावा है कि चीन इन ठिकानों का इस्तेमाल तरल ईंधन वाली अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों को रखने के लिए कर रहा है। परमाणु हथियारों से लैस ये मिसाइलें लंबी दूरी तक मार कर सकती हैं। जिस देश के पास परमाणु संपन्न बैलिस्टिक मिसाइलें होती हैं, वह उनके बल पर शत्रु पड़ोसियों के हमलावर रुख को शांत करने में कामयाब हो सकता है।

हालांकि चीन-उत्तर कोरिया जैसे देशों के रवैये को देखते हुए अब इसकी कोई गारंटी नहीं रह गई है कि एटमी मिसाइलें सिर्फ प्रतिरोध का काम करेंगी, बल्कि इनसे आगे बढ़कर ये देश अपनी आक्रामकता दिखाना चाहते हैं। भारत से सटे इलाकों में साइलोज बनाने वाले चीन के बारे में आकलन यह है कि परमाणु हथियारों के मामले में वह जिस प्रतिस्पर्धा वाली नीति पर चल रहा है, उससे दुनिया में एटमी असंतुलन कायम हो सकता है।

न्यूनतम प्रतिरोध की परमाणु नीति के बजाय परमाणु हथियारों का जखीरा बढ़ाते हुए न्यूक्लियर ट्रायड (जमीन, आसमान, समुद्र से परमाणु हथियार दागने की क्षमता) बनाने की जिस क्षमता की दिशा में चीन बढ़ रहा है, वह उसकी आक्रामकता का सुबूत है। मुमकिन है कि इस नीति के फलस्वरूप चीन के परमाणु हथियारों की संख्या में दोगुने से ज्यादा का इजाफा हो जाए। ऐसी स्थिति में भारत को भी चीन के साथ संतुलन साधने वाली परमाणु नीति पर कदम बढ़ाने होंगे। हालांकि आज की तारीख में भारत खुद परमाणु संपन्न देश है।

ऐसे में कहा जा सकता है कि शत्रु पड़ोसी मुल्कों को परमाणु धमकी देने से पहले गंभीरता से विचार करना पड़ता है। पाकिस्तान वैसे तो जब-तब इसकी बंदरघुड़की देता रहता है, लेकिन साफ है कि उसे अपनी ताकत के बजाय कमजोरियों का अहसास ज्यादा है। फिर भी एशिया में शांति कायम रखने में परमाणु शक्ति की भूमिका को जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके रहते किसी बड़ी जंग के होने की आशकाएं कम हैं।

आज यह एक जरूरी सवाल बन गया है कि दुनिया में कितने देशों के पास परमाणु हथियारों का कितना बड़ा जखीरा है और कौन से देशों में ये हथियार चालू हालत (एक्टिव) में रखे गए हैं। दावा किया जाता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अलग हुए देश यूक्रेन के पास तकरीबन तीन हजार रणनीतिक परमाणु हथियार थे। इसके अलावा उसे दो हजार अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टक और क्रूज मिसाइल भी मिले थे, जिनकी संहारक क्षमता काफी ज्यादा थी। बदहाल आर्थिक हालत के कारण यूक्रेन इन सारे हथियारों की देखरेख करने में समर्थ नहीं था। लिहाजा उसने वे हथियार रूस के हवाले कर दिए।

जहां तक रूस का प्रश्न है तो इस बारे में एक आंकड़ा फेडरेशन आफ अमेरिकन साइंटिस्ट (एफएएस) ने जारी किया है। एफएएस की रिपोर्ट के मुताबिक रूस के पास 2,565 रणनीतिक और 1,912 गैर रणनीतिक यानी कुल मिलाकर 4,477 परमाणु हथियार हैं। यही नहीं, चीन की तरह रूस भी परमाणु हथियारों की शक्ति का तेजी से आधुनिकीकरण कर रहा है।

इसके तहत उसने यूक्रेन और दूसरे यूरोपीय देशों की सीमा पर लांचर्स तैयार करते हुए कई परमाणु ठिकाने बना लिए हैं। इन ठिकानों से कई किस्मों के परमाणु हथियार फौरन दागे जा सकते हैं। तुरंत दागे जा सकने वाले परमाणु हथियारों की सूची बताती है कि दुनिया के चार देशों के पास ही ऐसी काबिलियत है। इनमें 1,800 एक्टिव परमाणु हथियारों के साथ अमेरिका शीर्ष पर है।

ध्यान रहे कि अमेरिका के पास कुल 5,500 परमाणु हथियार हैं। उसके 1,750 परमाणु हथियार ऐसे हैं, जो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं और निष्क्रिय अवस्था में रखे गए हैं। सक्रिय परमाणु हथियारों की सूची में रूस 1,600 हथियारों के साथ दूसरे स्थान पर है। फ्रांस तीसरे स्थान पर तो ब्रिटेन चौथे स्थान पर है।

यहां एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि रूस-यूक्रेन के बीच ताजा संघर्ष के बाद जिस तरह से परमाणु हथियार को अलर्ट किया गया है, उससे खास तौर से यूरोप में परमाणु हथियारों की संख्या में इजाफा हो सकता है। इससे ज्यादा से ज्यादा संख्या में परमाणु हथियारों को सक्रिय अवस्था में रखने की परंपरा कायम हो सकती है। इससे विभिन्न देशों के बीच तनातनी पैदा हो सकती है और कई नए युद्धों की भूमिका बन सकती है।

मसलन महाशक्ति होने का अपना दावा बरकरार रखने के लिए रूस के खिलाफ अमेरिका उसके नजदीकी देशों में अपने परमाणु हथियारों की संख्या और तैनाती बढ़ा सकता है। यदि ऐसा होता है तो सच में यह एक चिंताजनक बात होगी। इसलिए जिस विमर्श की बात शिंजो एबी ने की है और भारत अब तक परमाणु के जिस शांतिपूर्ण इस्तेमाल की वकालत करता रहा है, दुनिया को उस पर गंभीर होने की ज्यादा जरूरत है।

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