क्या भारतीय मूल के लोग सफलताएं अर्जित कर रहे हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय- जिन्हें अब इंडियन डायस्पोरा के बजाय इंडियास्पोरा कहा जाने लगा है- तेजी से उभर रहे हैं। बहुत सम्भव है कि 2024 में अमेरिका में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव दो भारतीय मूल की महिलाओं के बीच लड़े जाएं।

निकी हेली यूएन में अमेरिका की राजदूत और साउथ कैरोलिना की गवर्नर रह चुकी हैं। पिछले हफ्ते उन्होंने प्रेसिडेंशियल कैम्पेन शुरू किया। उधर उपराष्ट्रपति कमला हैरिस अमेरिका के इस सबसे ताकतवर पद पर आसीन होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं।

साल 2025 में कनाडा की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के लीडर जगमीत सिंह प्रधानमंत्री पद के बड़े दावेदार बन सकते हैं। वे भी एक प्रवासी भारतीय के पुत्र हैं। अटलांटिक के दूसरी तरफ तो प्रवासी भारतीय पहले ही सफलता के झंडे गाड़ चुके हैं। ऋषि सुनक यूके और लियो वराडकर आयरलैंड के प्रधानमंत्री बन चुके हैं।

अंतोनियो कोस्टा पुर्तगाल के प्रधानमंत्री हैं। ये तीनों प्रवासी भारतीयों की संतानें हैं। दूसरे अन्य देशों में भी भारतीय मूल के लोग तेजी से राजनीतिक सोपान पर ऊपर चढ़ रहे हैं। ये वो देश हैं, जहां पर इंडियास्पोरा बड़ी तादाद में है। मॉरिशस के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों भारतीय मूल के हैं। सिंगापुर के प्रधानमंत्री और गुयाना, सूरीनाम, सेशेल्स के राष्ट्रपतिगण भी भारतीय मूल के ही हैं।

आर्थिक जगत में भी इंडियास्पोरा की कामयाबियां जगजाहिर हैं। एसएंडपी 500 की सूची में से 58 कम्पनियों के सीईओ ऐसे हैं, जिनका जन्म भारत में हुआ था। अगर आप इसमें भारतीयों की दूसरी पीढ़ी को जोड़ें तो यह संख्या और अधिक हो सकती है। यह हाल-फिलहाल रुकती नजर नहीं आती है, क्योंकि युवा भारतीय देश छोड़कर दुनिया के अमीर देशों में अपनी किस्मत आजमाने के लिए तत्पर हैं।

विकसित देशों को भी बेहतरीन काम करने वालों की दरकार है, क्योंकि उनकी कामकाजी आबादी निरंतर घटती जा रही है। इंडियास्पोरा की इस कामयाबी का श्रेय उनके अपने कौशल और प्रतिभा के साथ ही उनके मेजबान मुल्कों को भी दिया जाना चाहिए। क्योंकि इन देशों ने भारतीय मूल के लोगों को ऐसा माहौल मुहैया कराया, जिसमें वे शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक दायरे में फल-फूल सकते थे।

इन देशों ने धार्मिक और नस्ली बहुलता के विचार को अंगीकार कर लिया है, जबकि बहुतेरे भारतवासी अभी तक इसके लिए तैयार नहीं हो सके हैं। यह साफ है कि इन देशों में वैसा कॉर्पोरेट माहौल है, जिसमें नस्लीयता या सामुदायिकता के बजाय गुणवत्ता को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता है।

वे भारतीय मूल के लोगों को अपने अग्रणी कॉर्पोरेशंस, यूनिवर्सिटीज़, अदालतों और अस्पतालों की कमान सौंपने से हिचकिचाते नहीं। उन्हें खेल और सौंदर्य स्पर्धाओं में भी प्रतिभागिता करने का भरपूर अवसर दिया जाता है। ऐसे में भारत इंडियास्पोरा की कामयाबी से क्या सबक सीख सकता है?

पहली बात यह कि अगर हम भी दूसरे देशों के प्रवासियों से लाभान्वित होना चाहते हैं तो हमें दूसरों की संस्कृति, धर्म और नस्लीयता के प्रति अधिक खुलेपन का परिचय देना होगा। पूछा जा सकता है कि आखिर भारत को दूसरे देशों के प्रवासियों की जरूरत ही क्या है? इसका सीधा-सरल उत्तर है- क्योंकि हाई-स्किल्ड भारतीय दुनिया में नाम कमाने के लिए देश छोड़कर जा रहे हैं।

दूसरी बात यह कि दुनिया में जहां भी इंडियास्पोरा को सफलता मिली है, वह समान अवसरों के बिना सम्भव नहीं था। अगर भारत को दूसरे देशों के प्रवासियों की प्रतिभा का लाभ उठाना है तो यहां भी वैसे ही समान अवसर उन्हें मुहैया कराने होंगे।

2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि भारतवंशी आज अमेरिका पर अपना दबदबा कायम करने लगे हैं। वैसा उन्होंने भारतीय मूल की एक अमेरिकी नासा इंजीनियर की सराहना में कहा था। आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि अमेरिका इसीलिए विशिष्ट है, क्योंकि वह बहुलतापूर्ण है। यह भारत के मौजूदा हालात से ठीक विपरीत है, जहां आज बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्व का बोलबाला होता जा रहा है।

अगर हम भी दूसरे देशों के प्रवासियों से लाभान्वित होना चाहते हैं तो हमें दूसरों की संस्कृति, धर्म और नस्लीयता के प्रति खुलेपन का परिचय देना होगा। क्योंकि हाई-स्किल्ड भारतीय देश छोड़कर जा रहे हैं।

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