‘बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अवीर’।

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जयंती पर विशेष

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

“यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र लगभग 80 साल की थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेज़ों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.”

23 अप्रैल 1777 को बिहार के भोजपुर ज़िले के जगदीशपुर गाँव में जन्मे वीर कुंवर सिंह का प्रभाव क्षेत्र बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, आज़मगढ़, बलिया, गाज़ीपुर समेत बिहार के शाहाबाद, मगध प्रमंडल, दानापुर और समूचा चंपारण था. इन इलाकों के विभिन्न दलित जातियों और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के लोगों के भी वीर कुंवर सिंह ही महानायक थे.

लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की किताब ‘वीर कुंवर सिंह- दी ग्रेट वारियर ऑफ 1857’ में इस बात का विस्तार से उल्लेख किया गया है कि “वीर कुंवर सिंह जगदीशपुर रियासत के ऐसे रियासतदार थे जिनकी आर्थिक ताकत कमज़ोर थी, लेकिन सामाजिक ताकत इतनी गहरी और व्यापक थी कि दानापुर विद्रोह के बाद इंग्लैंड में कंपनी सरकार की चूलें हिल गयी थीं. तब दानापुर छावनी में जो दलित जाति के सैनिक थे उसमें से एक भी सैनिक कंपनी सरकार का वफादार नहीं रहा था. दानापुर से लेकर मसौढ़ी तक सैनिक और गरीब- खेतिहर मजदूर ‘बाबू साहेब’ के कमांडर थे.”

‘उस व्यक्ति को 25 हजार रुपए पुरस्कार में दिए जाएंगे, जो बाबू कुंवर सिंह को जीवित अवस्था में किसी ब्रिटिश चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करेगा’- गवर्नर जनरल भारत सरकार के सचिव के हस्ताक्षर से 12 अप्रैल, 1858 की इस घोषणा से यह साबित होता है कि अंग्रेज सरकार इस महानायक से कितना डरी हुई थी। वह उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी पर हमेशा असफल रही। कुंवर सिंह को ‘बाबू साहब’ और ‘तेगवा बहादुर’ के नाम से संबोधित किया जाता है। होली के अवसर पर विशेषकर भोजपुरी भाषी एक गीत गाते है-‘बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अवीर’।

27 जुलाई, 1857 को दानापुर छावनी से विद्रोह कर आए सैनिकों ने बाबू कुंवर सिह का नेतृत्व स्वीकार किया। ब्वायल कोठी/आरा हाउस, जिसमें अंग्रेज छिपे थे उसे घेर लिया। अंग्रेजों की रक्षा हेतु 29 जुलाई को डनबर के नेतृत्व में दानापुर से सेना भेजी गई। युद्ध में डनबर मारा गया। डनबर के मारे जाने की सूचना मिलने पर मेजर विसेंट आयर, जो स्टीमर से प्रयागराज जा रहा था, बक्सर से वापस आरा लौटा और दो अगस्त को चर्चित ‘बीबीगंज’ का युद्ध हुआ। आरा पर नियंत्रण के बाद आयर ने 12 अगस्त को जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया।

 14 अगस्त, 1857 को जगदीशपुर हाथ से निकल जाने के बाद कुंवर सिंह अपने 1200 सैनिकों को लेकर एक महाअभियान पर निकल पड़े। रोहतास, रीवां, बांदा, ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ होते हुए 12 फरवरी, 1858 को अयोध्या तथा 18 मार्च, 1858 को आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया नामक स्थान पर आकर डेरा डाला। उनके काफिले में 1,000 सैनिक और 2,500 समर्थकों के होने का उल्लेख मिलता है। आजमगढ़ आने का उनका उद्देश्य शत्रु को पराजित कर प्रयागराज एवं बनारस पर आक्रमण करते हुए अपने गढ़ जगदीशपुर पर पुन: अपना अधिकार स्थपित करना था।

बाबू कुंवर सिह छापामार युद्ध में निपुण थे, अत: आठ माह तक अंग्रेज उनका मुकाबला करने से बचते रहे। अंग्रेजों को जब उनकी योजना का पता चला तो तुरंत मिलमैन 22 मार्च को सेना लेकर मुकाबले के लिए आया और कुंवर सिंह ने चकमा देकर उस पर आक्रमण कर दिया। मिलमैन की मदद के लिए आए कर्नल डेम्स को भी 28 मार्च को हार का सामना करना पड़ा।

मिलमैन और डेम्स की फौज कुंवर सिंह की फौज से पराजित हो चुकी थी। इस पराजय से बेचैन लार्ड कैनिंग ने मार्ककेर को युद्ध के लिए भेजा। 500 सैनिकों और आठ तोपों से सळ्सज्जित मार्ककेर की सहायता हेतु सेनापति कैंपबेल ने एडवर्ड लगर्ड को भी आजमगढ़ पहुंचने का आदेश दिया। तमसा नदी के तट पर हुए इस युद्ध में लगर्ड पराजित हुआ।

एक वार से काट दी भुजा : लगातार हार से घबराई अंग्रेजी हुकूमत ने सेनापति डगलस को भेजा। नघई नामक गांव के पास डगलस और कुंवर सिंह की सेना में संघर्ष हुआ। डगलस भी कुंवर सिंह को पकड़ने में नाकाम रहा। 21 अप्रैल, 1858 को बाबू साहब शिवपुर घाट होकर गंगा नदी पार करने लगे, तभी किसी अंग्रेजी सैनिक की गोली बाबू साहब को लग गई। तब उन्होंने अपनी कटी बांह को मां गंगा में प्रवाहित कर 22 अप्रैल को अपने दो हजार साथियों के साथ जगदीशपुर में प्रवेश किया।

‘भारत में अंग्रेजी राज’ पुस्तक के लेखक सुंदरलाल के अनुसार, ‘बाबू साहब ने बाएं हाथ से तलवार खींचकर घायल दाहिने हाथ को खुद एक वार में कोहनी से काट कर गंगा में फेंक दिया। जिससे भयभीत अंग्रेज सेना बाबू साहब का पीछा करने की साहस तक नहीं जुटा पाई थी।’ बाबू साहब के जगदीशपुर पहुंचने की सूचना मिलने पर 23 अप्रैल को कैप्टन लीग्रैंड ने आधुनिकतम एनफील्ड राइफलों एवं तोपों के साथ आक्रमण किया, मगर युद्ध में मारा गया। शरीर में जहर फैल जाने के कारण 26 अप्रैल को बाबू साहब का स्वर्गारोहण हुआ। बाबू कुंवर सिंह के स्वर्गारोहण के बाद भी उनके छोटे भाई अमर सिंह ने जगदीशपुर की स्वतंत्रता बचाए रखी।

न्योछावर किया सर्वस्व : 15 अगस्त, 1857 से 10 फरवरी, 1858 के मध्य बाबू कुंवर सिंह ने अपनी अविराम स्वतंत्र चेतना से युक्त स्वाधीनता की यज्ञाग्नि प्रज्वलित रखी। कुंवर सिंह के वंशज उज्जैन के परमार वंश के क्षत्रिय थे। इसी वंश के राजा भोज ने भोजपुरी बोली का विकास और विस्तार किया था। अत: वे भोजपुरीभाषी कुंवर सिंह के लिए सर्वस्व न्योछावर करने हेतु कटिबद्ध थे। लेखक सुंदरलाल ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि, ‘17 अक्टूबर, 1858 को जब अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर सभी दिशाओं से आक्रमण किया तो महल की 150 स्त्रियों ने शत्रु के हाथ में पड़ना गंवारा न किया और तोपों के मुंह के सामने खड़ी होकर ऐहिक जीवन का अंत कर लिया था।’

अंग्रेज भी करते थे प्रशंसा : आरा/ब्वायल कोठी की लड़ाई एक सप्ताह चली। ‘टू मंथ्स इन आरा’ के लेखक डा. जान जेम्स हाल ने आरा हाउस का आंखों देखा दृश्य लिखते समय यह स्वीकार किया है कि कुंवर सिंह ने ‘व्यर्थ की हत्या नहीं करवाई। कोठी के बाहर जो ईसाई थे वे सब सुरक्षित थे।’ विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित अमर ग्रंथ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में जिन सात योद्धाओं के नाम से अलग खंड की रचना की गई है, उसमें से एक खंड बाबू कुंवर सिंह और उनके छोटे भाई अमर सिंह को समर्पित है। बाबू कुंवर सिंह पर इतिहासकार के.के. दत्त की भी पुस्तक है पर फिर भी इतिहास के इस महानायक पर जितना लिखा जाना चाहिए, उतना नहीं लिखा गया।

  • वह जगदीशपुर के परमार राजपूतों के उज्जैनिया कबीले के परिवार से थे, जो वर्तमान में बिहार के भोजपुर ज़िले का एक हिस्सा है।
  • वह बिहार में अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई के मुख्य महानायक थे। उन्हें वीर कुंवर सिंह के नाम से जाना जाता है।
  • वीर कुंवर सिंह ने बिहार में वर्ष 1857 के भारतीय विद्रोह का नेतृत्व किया। वह तब लगभग 80 वर्ष के थे जब उन्हें हथियार उठाने के लिये बुलाया गया और उनका स्वास्थ्य भी खराब था।
  • उनके भाई, बाबू अमर सिंह और उनके सेनापति, हरे कृष्ण सिंह दोनों ने उनकी सहायता की थी। कुछ लोगों का मानना है कि कुंवर सिंह की प्रारंभिक सैन्य सफलता के पीछे का असली कारण यही था।
  • उन्होंने बेहतरीन युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया और लगभग एक साल तक ब्रिटिश सेना को परेशान किया तथा अंत तक अजेय रहे। वह गुरिल्ला युद्ध कला के विशेषज्ञ थे।
  • 26 अप्रैल, 1858 को उनका निधन हो गया।
  • भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान के लिये 23 अप्रैल 1966 को भारत गणराज्य द्वारा उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया।
  • वर्ष 1992 में  बिहार सरकार द्वारा वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा की स्थापना की गई।
    • वर्ष 2017 में वीर कुंवर सिंह सेतु, जिसे आरा-छपरा ब्रिज के नाम से भी जाना जाता है, का उद्घाटन उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ने के लिये किया गया था।
    • वर्ष 2018 में कुंवर सिंह की मृत्यु की 160वीं वर्षगाँठ मनाने के लिये बिहार सरकार ने उनकी एक प्रतिमा को हार्डिंग पार्क में स्थानांतरित कर दिया था। पार्क को आधिकारिक तौर पर ‘वीर कुंवर सिंह आज़ादी पार्क’ का नाम भी दिया गया था।
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