भोजपुरी समाज के महानायक थे भिखारी ठाकुर,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आज भोजपुरी प्रदेश में ही आपको कई लोग ऐसे मिल जाएँगे, जो भिखारी ठाकुर को नहीं जानते हों। लेकिन, आज के समय में जब अश्लील भोजपुरी गानों और फिल्मों ने भसड़ मचा रखी है, भिखारी ठाकुर का जीवन और उनकी शैली को याद करना और आवश्यक हो जाता है। एक निर्धन नाई परिवार में जन्मे व्यक्ति ने कैसे रामलीला से प्रेरित होकर अपने नाटकों से 5 दशक तक जनता का मनोरंजन करने के साथ-साथ कई समाजिक संदेश भी दिया, ये किसी साधारण व्यक्ति के बाद की बात नहीं थी। उनके नाटक को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे और टिकट भी खरीदते थे।

वो एक लोक-कवि थे, कलाकार थे, लेखक थे, नाट्य निर्देशक थे, दर्शक थे, अभिनेता थे, और सूत्रधार भी थे। भोजपुरी भाषा तब अनगढ़ हुआ करती थी, जिसे उन्होंने सशक्त बनाया। उत्तर भारत के साथ-साथ मॉरीशस, फिजी और सूरीनाम तक उनकी कला पहुँची। विरह के मार्मिक क्षणों के चित्रण में वो दक्ष थे, खासकर उन महिलाओं की पीड़ा को उजागर करना जिनका पति बाहर कमाने गया हो। उनका नाटक ‘बिदेशिया’ इसी समस्या पर केंद्रित है।

भिखारी ठाकुर के प्रारंभिक जीवन की बात करें तो उनका जन्म 18 दिसंबर, 1887 को सारण के कुतुबपुर गाँव में हुआ था। ये गाँव बाद में छपरा जिले में चला गया। गंगा की धार में परिवर्तन के कारण इसकी भौगोलिक स्थिति भी बदली। बचपन में ही भिखारी ठाकुर को चरवाही में लगा दिया गया था। एक गरीब इलाके में, गरीब परिवार में जन्मे लड़के का भाग्य भला कुछ और कैसे हो सकता था! लेकिन, ये भिखारी ठाकुर थे।

परिवार नाई का था, तो बाल-दाढ़ी बनाने की तकनीक भी सीखनी पड़ी और ये काम भी करना पड़ा। अपने एक दोस्त से अक्षर-ज्ञान प्राप्त किया और कुछ-कुछ पढ़ने में सक्षम हो गए। बिहार के बड़े-बुजुर्ग से आप पूछेंगे तो वो आपको सन् 1934 के भयंकर भूकंप और अकाल के बारे में बताएँगे। यही वो समय था, जब बिहार के लोगों ने धन कमाने के लिए खेप में बाहर जाना शुरू किया। कोई कोलकाता गया, कोई दिल्ली तो कोई दिल्ली-पंजाब।

भिखारी ठाकुर को भी अपने फूफा के पास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में भेज दिया गया। उन्होंने इसी दर्जन जगन्नाथपुर की भी यात्रा की। अशोक कुमार सिन्हा अपनी पुस्तक ‘बिहार के 25 महानायक‘ में बताते हैं कि बंगाल में ही रामलीला का मंचन देखते-देखते भिखारी ठाकुर को अपनी कला का एहसास हुआ। गाँव लौट कर उन्होंने रामचरितमानस की चौपाई से अपनी कला की यात्रा शुरू की। जानकारों से चौपाइयों-दोहों के अर्थ पूछे, अपना ज्ञान बढ़ाया और नाट्य मंडली भी बनाई।

लेकिन, उन्होंने अपने नाटकों की विषय-वस्तु न तो पौराणिक कहानियों को चुना, न राजा-रानी के भोग-विलास को और न लोक-कथाओं के ही नायक-नायिकाओं की। उस समय की सामाजिक बुराइयों, नशे की समस्या, ऊँच-नीच की भावना और झूठी मान्यताओं को उन्होंने अपनी कला के माध्यम से उकेरना शुरू किया। कलकत्ता, गोरखपुर और धनबाद में उनका ‘बिदेसिया’ नाटक खासा लोकप्रिय हुआ। मजदूरों और उनके परिवारों के बीच उनकी लोकप्रियता का कारण यही बना।

बिहार की तब जो सामाजिक स्थिति थी, आज भी उसकी झलक दिखती है। उसमें बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। कमाने के लिए बाहर गया मजदूर और गाँव में उसकी अकेली पत्नी के विरह की गाथा है ‘बिदेसिया’। पति की गैर-मौजूदगी में एक महिला को क्या सब बर्दाश्त करना पड़ता है, इसे उन्होंने उकेरा। उन्होंने अपने नाटकों में अश्लीलता को जगह न देते हुए एक मर्यादा बाँधी और उसके भीतर कार्य किया। उनके कलाकार समय और परिस्थिति को भाँपते हुए डायलॉग बदल सकते थे और उन्हें इसकी आज़ादी थी।

एक बार कुल्हड़िया के राजा ने अपने एक नौकर की कोड़े से पिटाई करवाई तो उन्होंने राजा के सामने ही अपने एक नाटक में डायलॉग डाल दिया, “ज्यादा गड़बड़ी करोगे तो कुल्हड़िया के राजा के यहाँ नौकर रखवा देंगे। कोड़ा लगेगा तो होश ठिकाने आ जाएगा।” एक बार उनके ‘गंगा अस्नान’ नाटक के एक पात्र ‘मलेच्छु’ ने बाबू जगजीवन राम की तरफ इशारा कर के कह दिया था कि मैं वहाँ बैठा हूँ। असल में वो श्याम वर्ण का था और अँधेरे में लड़कियाँ उसे खोज रही थीं। राजा को गुस्सा आया कि अतिथि का अपमान हुआ है, क्योंकि तब केंद्रीय मंत्री रहे जगजीवन राम भी श्याम वर्ण के थे।

हालाँकि, कला के इस मर्म को वो समझ गए और तुरंत माइक सँभाल कर लोक-कवि और उनके पात्रों की प्रशंसा की। उनके नाटकों के शीर्षक देखिए – ‘बेटी बेचवा’, ‘पुत्र-वध’, ‘विधवा-विलाप’, ‘गबर घिचोर’ (पंचायत द्वारा एक बच्चे के अधिकार को लेकर फैसला), ‘भाई-विरोध’ (झगड़े के कारण परिवार के टूटने पर), ‘कलियुग-प्रेम’ (जुआ और नशखोरी के दुष्प्रभाव पर) और ‘गंगा अस्नान’ (झूठी मान्यताओं पर आधारित)। उनके नाटकों के दौरान भीड़ को सँभालने के लिए पुलिस तक लगाना पड़ता था।

भारत की आज़ादी और उसके बाद के समय में उन्होंने समाज में स्त्रियों की आज़ादी की लड़ाई लड़ी, लेकिन आज के फेमिनिस्टों की तरह पुरुषों को गाली देकर नहीं। अपनी पुस्तक ‘रंगमंच का जनतंत्र‘ में हृषिकेश सुलभ लिखते हैं कि शास्त्रीयता और शुद्धता की परवाह न करते हुए भिखारी ठाकुर अँधेरे में रोती-कलपती और विलाप करती महिलाओं की आवाज़ थे। उनका नाटक इतना स्वछन्द होता था कि मंच पर ही एक चक्कर लगा कर गाँव से कोलकाता पहुँच जाना, कंधे पर बंदूक को हल बना कर किसान बन कर हल जोतने लगना, गमछा तान कर दुल्हन बन जाना – ये सब उनके नाटक की स्वछंदता थी।

उनके इन दृश्यों में जान डालते थे उनके शब्द और गीत-संगीत, जो स्थानीय ही होते थे और उनका रिश्ता यथार्थ से होता था। उनके जीवन के अंतिम दिनों में ‘बिदेसिया’ को उन्होंने फ़िल्मी रूप भी दिलवा दिया। ग्रामीण संस्कृति को नजदीक से देखने वाला कोई व्यक्ति ही इस तरह उनकी पीड़ा को दिखाने की क्षमता रख सकता है। पलायन की समस्या के बीच स्त्रियों की व्यथा को सामने रखने वाले साहित्य के वो महानायक थे भिखारी ठाकुर, जिनसे आज अश्लील प्रदर्शन कर के उसे कला का नाम देने वालों को सीखना चाहिए।

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