कैलेण्डर या कैलेण्डर समय की गणना का व्यवस्थित अध्ययन है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

समय घटना 37‍61 ई.पू. यहूदी कैलेंडर का आरंभ 2‍637 ई.पू. मूल चीनी कैलेंडर आरंभ हुआ 56 ई.पू. विक्रम संवंत आरंभ 45 ई.पू. रोमन साम्राज्य के द्वारा जूलियन कैलेंडर अपनाया गया. इसाई कैलेंडर का आरंभ 6676 ई.पू. सनातन धर्म(हिन्दू) सर्वप्रथम सप्तऋषि संवंत आरंभ हुआ 597 ब्रिटेन में जूलियन कैलेंडर को अपनाया गया ‍622 ई.पू. इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत 1582 कैथोलिक देश ग्रेगोरियन कैलेंडर से परिचित हुए 1752 ब्रिटेन और उसके अमेरिका समेत सभी उपनिवेशो में ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया गया 1873 जापान नें ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया 1949 चीन नें ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया|

शास्त्रकारों ने लिखा है कि किसी द्वार की झिरी में से आ रहे सूर्य के प्रकाश में जो कण उड़ते हुए दिखते हैं, उसे ही त्रसरेणु कहते हैं। प्रकाश को इसे पार करने में जितना समय लगता है, उसे ही एक त्रसरेणु काल कहते हैं। तीन त्रसरेणु काल को एक त्रुटि कहा गया है। त्रुटि से काल की गणना को बढ़ाते हुए परार्ध तक ले जाया गया है।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण ( प्रथम खण्ड,73। 4-1, हेमाद्रि कृत चतुर्वर्ग चिन्तामणि, काल खंड)

 1 लघु अक्षर उच्चारण  1 निमेष
 2 निमेष  1 त्रुटि
 10 त्रुटि  1 प्राण
 6 प्राण  1 विनाडिका
 60 विनाडिका  1 नाडिका
 60 नाडिका  1 मुहूर्त
 30 मुहूर्त  1 अहोरात्र

वर्ष की गणना को आगे बढ़ाते हुए भारतीय मनीषियों ने पूरे ब्रह्मांड की आयु की भी गणना की। उन्होंने सौर वर्ष के बाद दिव्य वर्ष से लेकर परार्ध तक की गणना की है। उसका चार्ट निम्नानुसार है-

 कलि युग  = 4,32,000 वर्ष
 द्वापर युग  = 8,64,000 वर्ष (2 कलि)
 त्रेता युग  = 12,96,000 वर्ष (3 कलि)
 कृत युग  17,28,000 वर्ष (4 कलि)

1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष (10 कलि। इसे ही धर्म भी कहा है।) दशलक्षणयुक्त होने के कारण धर्म दश संख्या का भी द्योतक है। इसीलिए सूर्यसिद्धान्त में कहा गया है कि कृत् या सत् युग में धर्म के चार पाद होते हैं, त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलि में केवल एक।

 71.42857143 चतुर्युग (x 43,20,000)  = 1 मन्वन्तर (30,85,71,428.5776 वर्ष)
 14 मन्वन्तर (x 30.85.71,428.5776)  = 1 कल्प अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस (4,32,00,00,000 वर्ष)
 ब्रह्मा के सौ वर्ष  = दो परार्ध (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)

विक्रम संवत् विश्व का सर्वश्रेष्ठ सौर-चांद्र सामंजस्य वाला संवत् है। आज उस गणना को भुलाने के कारण कृषि में जो बाधाएं आ रही है, वे किसी से छिपी नहीं हैं, भले ही उसका सही कारण नही समझने के कारण उसके निदान कुछ और किए जा रहे हैं जो और भी नवीन समस्याओं को जन्म दे रहे हैं। कुल मिलाकर कृषि कार्य भी कालगणना से जुड़ा हुआ मामला है।

भारतीयों ने मासों का नाम यूरोपीयों की तरह मनमाने ढंग से नहीं रखा हालाँकि वेदों तथा उनके ब्राह्मणों में 12 मासों के नाम दिए गए थे। परंतु हमारे ज्योतिषाचार्यों ने उनसे संतोष नहीं किया। वैदिक नामों में भी एक सार्थक मिलती है। उदाहरण के लिए मधु नामक मास में ही वसंत ऋतु होती है। जानते हैं कि वसंत ऋतु का मादकता से कितना संबंध है। इसी प्रकार अन्या नाम भी सार्थक हैं। परंतु बाद में इन मासों का नाम उन नक्षत्रों के नाम रखा गया, जिनसे इनका प्रारंभ होता है। चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ होने वाले मास का नाम चैत्र, विशाखा नक्षत्र में प्रारंभ होने वाले मास का नाम वैशाख, क्रम में सभी मासों के नाम निर्धारित किए गए।

किस मास में कितनी तिथियाँ होंगी, यह चंद्रमा और सूर्य की चाल से निर्धारित किया गया और आज किया जाता है, मनमाने ढंग से नहीं। आज यदि कोई जानना चाहे कि फरवरी मास में 28 दिन ही क्यों तो इसका कोई वैज्ञानिक उत्तर किसी के पास नहीं है परंतु किसी संवत्सर के चैत्र मास, कितनी तिथियाँ हैं और क्यों हैं, इसका हरेक पंचांग के जानकार के पास है। इस क्रम को आगे बढ़ाते भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने प्रत्येक अहोरात्र को 24 होराओं में बांटा और हरेक का नामकरण भी किया। दिन के पहले होरा के नाम पर उस दिन का नाम किया गया। इस प्रकार सात दिनों के नाम रखे गए। इन्हीं नामों के आधार पर यूरोप में भी सातों दिनों के नाम रखे गए।

 

 




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