देश में जाति आधारित गणना भाजपा के पक्ष में नहीं है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जातिगत गणना के मुद्दे पर मोदी सरकार के आधिकारिक रुख की बात है तो वह अदालत में तभी स्पष्ट हो गया था जब सितंबर 2021 में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि जनगणना करते समय अन्य पिछड़ी जातियों की गणना नहीं की जाएगी।

देश में जाति आधारित जनगणना का मुद्दा जोर पकड़ चुका है। विपक्षी गठबंधन इंडी के नेता अपनी रैलियों, सभाओं, संवाददाता सम्मेलनों और सोशल मीडिया पोस्टों के जरिये केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वह राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत गणना करवाये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे पर कह चुके हैं कि देश में सबसे बड़ी जाति गरीब है और सबसे बड़ी आबादी भी गरीब की ही है तथा उनकी सरकार अपनी हर नीति के केंद्र में इस वर्ग को रखती है ताकि वह ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हो सकें।

भाजपा के इस पर आधिकारिक रुख की बात है तो वह बहुत संभल कर चल रही है लेकिन विपक्ष का कहना है कि उसके दबाव के चलते एक दिन आयेगा जब भाजपा जाति आधारित जनगणना का समर्थन करेगी। वैसे यहां सवाल उठता है कि भाजपा आखिर क्यों नहीं चाहती कि जाति के आधार पर जनगणना हो? जबकि देखा जाये तो अन्य कारणों के अलावा, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा की प्रचंड जीत अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के मतदाताओं के बीच बनाई गई महत्वपूर्ण पैठ के कारण ही संभव हुई थी।

हालांकि ऐसा नहीं है कि भाजपा को अन्य जातियों या समुदायों से समर्थन नहीं मिला था। भाजपा अपने पारंपरिक समर्थकों, उच्च जातियों और उच्च वर्गों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के अलावा बड़ी संख्या में दलितों और आदिवासियों के मतों को जुटाने में भी कामयाब रही थी। इसलिए यह सवाल उठता है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जाति-आधारित जनगणना कराने के बारे में अनिच्छुक क्यों लगती है?

जरा हालिया राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो बहुत कुछ समझ आ जायेगा। दरअसल 1990 के दशक की शुरुआत में वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया था जिसके तहत केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27% आरक्षण दिया गया था। इस फैसले ने भारत में चुनावी राजनीति की प्रकृति को बदल कर रख दिया था, खासकर उत्तर भारत के राज्यों में इसका बड़ा असर हुआ था। मंडल के बाद की राजनीति के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ और वह मजबूत होकर राज्यों में अपनी जड़ें जमाने में सफल रहे। उत्तर प्रदेश और बिहार इसके मजबूत उदाहरण हैं।

हम आपको बता दें कि 90 के दशक की शुरुआत में भाजपा को अपनी हिंदुत्ववादी राजनीति के चलते “कमंडल राजनीति” के नाम से जाना जाता था। उस समय कमंडल को मंडल राजनीति का मुकाबला करने के लिए बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा था। भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी तथा तमाम नेताओं के नेतृत्व में कड़ी मेहनत की और दो सांसदों वाली यह पार्टी केंद्र की सत्ता तक पहुँचने में तभी सफल रही जब उसे पिछड़ों और अति पिछड़ों का भरपूर समर्थन मिला। 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव परिणाम इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

उस समय भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन कर केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई और अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को किनारे रखकर एनडीए के साझा एजेंडे को आगे बढ़ाया। 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव परिणामों का विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि उस समय भले भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी लेकिन दोनों चुनावों में सर्वाधिक लाभ में क्षेत्रीय दल ही रहे थे। क्षेत्रीय दलों को 1998 में 35.5% और 1999 में 33.9% वोट मिले थे।

यहां तक कि जब 2004 और 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने सरकार बनाई, तब भी क्षेत्रीय दलों को कुल मिलाकर 39.3% वोट मिले। क्षेत्रीय दलों को 2004 के लोकसभा चुनावों में 39.3% और 2009 के लोकसभा चुनावों में 37.3% वोट मिले थे। यहां तक कि जब भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान 31% वोटों के साथ बहुमत हासिल किया, तब भी क्षेत्रीय दलों ने कुल मिलाकर 39% वोट हासिल किए थे।

इसके अलावा, एक बड़ा आंकड़ा यह भी दर्शाता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी भाजपा ने ओबीसी मतदाताओं के बीच बड़े पैमाने पर अपनी पैठ बढ़ाई थी, जिससे क्षेत्रीय दलों के मूल समर्थन में ही सेंध लग गई थी जिससे उनका वोट शेयर घटकर 26.4% रह गया था। विभिन्न प्रकार के आंकड़ों का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि भाजपा ने पिछले एक दशक के दौरान ओबीसी मतदाताओं के बीच बड़े पैमाने पर अपनी पैठ बढ़ाई है।

आंकड़ों के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनावों में 22% ओबीसी ने भाजपा को वोट दिया, जबकि 42% ने क्षेत्रीय दलों को वोट दिया। लेकिन एक दशक के भीतर खासकर ओबीसी नरेंद्र मोदी के केंद्र की राजनीति में उभार के बाद इस समुदाय का समर्थन भाजपा के साथ जुड़ गया जिससे 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान 44% ओबीसी ने भाजपा को वोट दिया, जबकि केवल 27% ने क्षेत्रीय दलों को वोट दिया था।

लेकिन ओबीसी वर्ग के भाजपा को प्रचंड समर्थन के बावजूद मामले में एक पेंच है। दरअसल लोकसभा चुनावों के दौरान तो ओबीसी मतदाताओं को भाजपा पसंद आती है लेकिन जब बात विधानसभा चुनावों की हो तो उनकी पसंद बदल भी जाती है। आंकड़ों के जरिये समझाने के लिए आपको बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में केवल 11% ओबीसी ने राजद को वोट दिया, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान 29% ओबीसी ने राजद को वोट दिया। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनावों में केवल 14% ओबीसी ने ही समाजवादी पार्टी को वोट दिया, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान 29% ओबीसी ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था।

बहरहाल, जहां तक भाजपा की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना से बचने की बात है तो इसका एक प्रमुख कारण यह भी लगता है कि इस कवायद के चलते विभिन्न जातियों, विशेषकर ओबीसी जातियों के बारे में जो आंकड़े सामने आएंगे उससे क्षेत्रीय दलों को भाजपा पर दबाव बनाने के लिए नये मुद्दे मिल जाएंगे। यदि आंकड़े ऐसे आये कि केंद्र सरकार को नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी कोटा को नया स्वरूप देना पड़ा तो इसके परिणामस्वरूप मंडल-2 जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो इससे क्षेत्रीय दलों को नया जीवनदान मिल जायेगा।

इसके अलावा कई दल ऐसे भी हैं जो भाजपा को राज्यों और केंद्र में चुनौती देने के लिए तमाम प्रयास करने के बावजूद सफल नहीं हो पा रहे हैं लेकिन यदि जातिगत आंकड़े सामने आ गये तो वह भाजपा को आसानी से घेर सकते हैं। भाजपा के पास इस समय ओबीसी के सबसे ज्यादा विधायक और सांसद भले हों लेकिन पार्टी कतई नहीं चाहती कि जातिगत जनगणना करवा कर ऐसे मुद्दे को हवा दी जाये जिसको संभालना बेहद मुश्किल हो सकता है।

इसके अलावा आज का भाजपा नेतृत्व 90 के दशक की मंडल-कमंडल राजनीति से भलीभांति वाकिफ भी है। वह जानता है कि अटल-आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए क्या-क्या प्रयास करने पड़े थे और कैसे-कैसे दिन देखने पड़े थे इसलिए अब जाति या धर्म के आधार पर नहीं बल्कि सबका साथ और सबका विकास के सिद्धांत का पालन करते हुए राजनीति की जा रही है।

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