क्षतिग्रस्त ओजोन से आपकी थाली पर संकट,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ओजोन की परत में छेद होने से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। ये हम सब जानते हैं लेकिन क्या आपको पता है कि ओजोन परत में हुई क्षति आपकी थाली पर भी असर डालती है। एक नई रिपोर्ट के मुताबिक ओजोन की परत को नुकसान पहुंचने से दुनिया में मक्के के उत्पादन में कमी आ रही है।  दरअसल ओजोन लेयर क्षतिग्रस्त होने से सूरज की बहुत की ऐसी किरणें नीचे आ रही हैं जो मक्के की पत्तियों में केमिकल संतुलन को बिगाड़ रही हैं। ये खुलासा यूएस एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट की रिसर्च यूनिट यूएसडीए एआरएस ग्लोबल चेंज एंड फोटोसिंथेटिक रिसर्च यूनिट की ओर से किए गए अध्ययन में हुआ है।

गौरतलब है कि सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोकने में ओजोन परत की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस परत के चलते हम कई खतरनाक विकिरणों से बच पाते हैं। शिकागो स्थित इलिनोइस विश्वविद्यालय के शोधकर्ता 20 सालों से फसलों पर ओजोन प्रदूषण के प्रभावों का अध्ययन एक खास तरह के फॉर्म पर कर रहे हैं। जहां ओजोन के अलग-अलग स्तर का फसलों पर अध्ययन किया जा रहा है।

अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने मक्के की तीन प्रजातियों पर अध्ययन किया। इसमें पाया गया कि ओजोन के प्रभाव के कारण हाइब्रिड फसलों की उपज में 25 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई। वहीं पारंपरिक प्रजातियों के उत्पादन पर कुछ खास असर नहीं हुआ। वहीं हाइब्रिड मक्के के पौधे ओजोन के प्रभाव के चलते जल्दी बूढ़े होने लगे।

हाइब्रिड प्रजातियां ओजोन के प्रति बेहद संवेदनशील

ओजोन के चलते पौधों में ये बदलाव क्यों हो रहा है ये जानने के लिए वैज्ञानिकों ने पौधे की पत्तियों की रासायनिक बनावट का अध्ययन किया। स्टडी में पाया गया कि पारंपरिक प्रजाति के पौधे की पत्तियों में ओजोन के प्रभाव के चलते कुछ खास बदलाव नहीं हुआ। वहीं हाइब्रिड पौधे की पत्तियों में टोकोफेरोल और फाइटोस्टेरॉल केमिकल की मात्रा बढ़ गई। ऐसे में इस स्टडी से साफ पता चला की हाइब्रिड प्रजातियां ओजोन के प्रति बेहद संवेदनशील हैं।

विश्व खाद्य संगठन, (संयुक्त राष्ट्र संघ) के पूर्व मुख्य तकनीकी सलाहकार एवं परियोजना प्रबंधक डा. राम चेत चौधरी कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज के साथ ही ओजोन की परत को नुकसान पहुंचाने का सीधा असर फसलों पर पड़ता है। ओजोन के प्रभाव के चलते पौधे की पत्तियों में बनने वाली बहुत सी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। साथ ही पत्तों में टिशूज को भी नुकसान पहुंचता है। हमें पर्यावरण को बेहतर बनाने के साथ ही आने वाले समय के लिए ज्यादा प्रतिरोध वाली प्रजातियों का विकास करने की जरूरत है।

क्या है मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल

दुनिया भर में ओजोन परत को हो रहे नुकसान को रोकने के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन रोकने के लिए 1987 में एक अंतरराष्ट्रीय समझौता किया गया था, इसी समझौते को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल कहा गया। यह पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जिसने ग्लोबल वार्मिंग की दर को कुछ धीमा किया है।

एक रिसर्च के मुताबिक मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की वजह से आज धरती के तापमान में कमी आई है। मध्य शताब्दी तक पृथ्वी औसत से कम-से-कम 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी होगी, जो कि समझौते के बिना संभव नहीं था। कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2)  ग्रीनहाउस गैस की तुलना में हजारों गुना अधिक शक्तिशाली होती है। इसलिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने न केवल ओजोन परत को बचाया, बल्कि इसने ग्लोबल वार्मिंग को भी कम कर दिया।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का क्योटो समझौते की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग पर ज्यादा असर हुआ है। क्योटो समझौते को विशेष रूप से ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। जहां क्योटो समझौते के तहत की गई कार्रवाई से सदी के मध्य तक तापमान में केवल 0.12 डिग्री सेल्सियस की कमी आई, वही मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के शमन (मिटिगेशन) से तापमान 1 डिग्री सेल्सियस कम हुआ।

रिसर्च करने वालों ने पाया कि प्रोटोकॉल के कारण ध्रुवों पर बर्फ को भी पिघलने से बचा जा सकता है, क्योंकि आज गर्मियों के दौरान आर्कटिक के चारों ओर समुद्री बर्फ की मात्रा लगभग 25 फीसदी से अधिक है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल तीन दशकों से अधिक समय से ग्लोबल वार्मिंग प्रभावों को कम कर रहा है। मॉन्ट्रियल ने सीएफसी को कम किया है, इसका अगला बड़ा लक्ष्य कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को खत्म करना है।

 

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