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क्या सिनेमा भी अब राजनीति में एक हथियार बन गया है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सोवियत संघ के विघटन के बाद भी विश्व राजनीति में तरह-तरह से शीत युद्ध जारी है, जिसमें सिनेमा का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में किया जा रहा है। आज अमेरिका, रूस, जर्मनी, चीन, जापान, यूक्रेन, मिस्र, ईरान और कई देशों में ऐसी फिल्में बन रही हैं, जो विश्व राजनीति को प्रभावित कर सकें।

रूस के अलेक्सी चुपोव और नताशा मरकुलोवा की फिल्म ‘कैप्टन वोलकोनोगोव एस्केप्ड’ की इन दिनों बड़ी चर्चा है। यह हमें स्तालिन युग के उस खौफनाक दौर में ले जाती है, जब झूठे आरोप लगाकर और सोवियत क्रांति का गद्दार होने के संदेह में करीब दस लाख निर्दोष नागरिकों को यातना देकर मार डाला गया था।

केजीबी से पहले सोवियत खुफिया एजेंसी एनकेवीडी होती थी। केजीबी के बाद अब एफएसबी वही सब कारनामे करती है। पुतिन केजीबी के कमांडो रह चुके हैं। हाल में प्रिगोजिन की हेलीकाप्टर दुर्घटना में हुई मौत के मामले में एफएसबी पर ही शक किया जा रहा है।

फिल्म का नायक कैप्टन फ्योदोर वोलकोनोगोव एनकेवीडी का आॅफिसर है, जो अपने कमांडर के आदेश पर निर्दोष लोगों को गद्दार होने के संदेह में उठा लेता है और उन्हें अपने ऑफिस मुख्यालय लाकर यातना देकर मार देता है। वह उनसे जबरन कबूलनामे पर दस्तखत करवाना नहीं भूलता। विभाग में उसकी बड़ी इज्जत और रौब है।

एक दिन कैप्टन वोलकोनोगोव को एक सामूहिक कब्र में मृतकों को दफनाने की जिम्मेदारी मिलती है। अचानक उसे लगता है कि उसका सबसे अच्छा दोस्त वेरेतेन्निकोव कब्र से उठकर उसे सावधान करते हुए कहता है कि निर्दोष लोगों को मारने के अपराध में उसे नरक में सड़ना होगा। इससे मुक्ति का एक ही उपाय है कि जिन लोगों को उसने मारा है, उनमें से वह किसी एक व्यक्ति के परिजन को ढूंढे, जो उसे माफ कर दें।

यहां से फिल्म नया मोड़ लेती है। वह अपने ऑफिस से उस गोपनीय फाइल को चुराकर भागता है, जिसमें उन लोगों के नाम और पते हैं, जिन्हें उसने मारा था। वह एक-एक कर उन लोगों के परिजनों तक पहुंचता है, जिन्हें उसने मारा था और उन्हें बताता है कि वे निर्दोष थे, वे गद्दार नहीं थे।

उसे यह देखकर दु:खद आश्चर्य होता है कि उन परिजनों की जिंदगियां नरक से भी बदतर हो चुकी हैं। पूरा लेनिनग्राद ही नर्क में बदल चुका है। खुफिया एजेंसी का प्रमुख मेजर गोलोव्यना कैप्टन का अंत तक पीछा करता है। यहां से पूरी फिल्म एक पाप-मुक्ति की यात्रा पर चल पड़ती है, जैसा कि हम महान रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की रचनाओं में पाते हैं।

निकोलाई गोगोल की एब्सर्डिटी और मिखाइल बुल्गाकोव के जादुई यथार्थवाद को भी यहां देखा जा सकता है। यह फिल्म एक उदाहरण भर हैं। दुनिया भर में सरकारी दमन में मारे गए नागरिकों की कहानियों पर हजारों फिल्में बनी हैं।

रूस के ही युवा फिल्मकार ब्लादिमीर बीतोकोव भी एक आधुनिक राजनीतिक ड्रामा लेकर आए हैं- ‘ममा, आई एम होम।’ रूस के कबार्डिनो बल्कारिया इलाके के एक गांव में रहने वाली तोन्या बस ड्राइवर है। तोन्या का इकलौता बेटा उस इलाके की एक प्राइवेट सेना में भर्ती होकर सीरिया में लड़ते हुए मारा जाता है।

तोन्या को विश्वास है कि उसका बेटा जीवित है और एक दिन लौट आएगा। आगे की फिल्म उस बेटे की हृदयविदारक खोज में चलती है। यह वह इलाका है, जहां भयानक गरीबी के कारण अधिकतर नौजवान ठेकेदारों को निजी सेनाओं में भर्ती कर दुनियाभर में लड़ने के लिए भेज दिया जाता है। रूसी सरकार अधिकारिक रूप से इस बात को स्वीकार नहीं करती, न ही रिकाॅर्ड पर लाती है। इन नौजवानों के युद्ध में मारे जाने पर कोई इनकी जिम्मेदारी नहीं लेता।

डेविड लीन की बहुचर्चित फिल्म ‘डाक्टर जिवागो’ बोरिस पास्तरनाक के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी। उन्हें इस पर साहित्य का नोबेल (1958) मिला था, पर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें पुरस्कार लेने जाने नहीं दिया और दबाव डाला कि वे पुरस्कार को ठुकरा दें।। बाद में पास्तरनाक के बेटे ने पिता की मृत्यु (1960) के 29 साल बाद स्वीडन जाकर 1989 में नोबेल ग्रहण किया।

ताजा उदाहरण रूस-यूक्रेन युद्ध का है। पुतिन इन दिनों अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि पश्चिम के पैसों से कई निर्वासित रूसी फिल्मकार रूस की छवि बिगाड़ने के लिए फिल्में बना रहे हैं। इसी वजह से पुतिन ने मशहूर रूसी फिल्मकार किरील सेरेब्रेनिकोव को हाउस अरेस्ट करवाकर न सिर्फ 71वें कान फिल्म फेस्टिवल में जाने नहीं दिया, बल्कि उन पर आर्थिक धोखाधड़ी का केस भी दर्ज करवाया। उनकी फिल्म ‘लेटो’ (समर) तब प्रतियोगिता खंड में चुनी गई थी, जो पुतिन की राजनीति पर प्रतिकूल टिप्पणी करती है।

यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने पिछले साल रूस के खिलाफ जनमत बनाने के लिए 75वें कान फिल्म फेस्टिवल का इस्तेमाल किया। उन्हें उद्घाटन में वीडियो सम्बोधन का अवसर दिया गया। क्या यही अवसर पुतिन को दिया जा सकता है?

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