महामारी में स्वदेशी से ही समाधान सम्भव है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अमेरिका के बाइडेन प्रशासन ने पहले यह फैसला लिया था कि ‘पहले अमेरिका’ की नीति के तहत ये सामान भारत में नहीं भेजेंगे, पर अब अमेरिका ने वैक्सीन के लिए कच्चा माल भेजने का निर्णय ले लिया है. इससे सबक मिलता है कि हम आवश्यक वस्तुओं के लिए दूसरे मुल्कों पर निर्भर नहीं रह सकते. उल्लेखनीय है कि वैक्सीन के स्टॉक की अमेरिका को अभी कोई जरूरत नहीं है और न ही कच्चे माल की अमेरिका में कोई कमी है.

ऐसे में अमेरिका के इस फैसले से न केवल उसकी असंवेदनशीलता उजागर होती है, बल्कि हमें आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा भी मिलती है. वे देश, जिन्होंने दुनिया एक गांव है तथा आपसी व्यापार व सहकार ही जन कल्याण के लिए जरूरी हैं का दंभ भरते हुए हमें भूमंडलीकरण की ओर धकेला, वही देश बिना वजह (कहा जा सकता है कि भारत को परेशान करने के लिए) आवश्यक चीजों को बेवजह रोकने की कोशिश कर रहे हैं.

चीन से आये वायरस से पिछले एक साल से भी ज्यादा समय में सभी वर्ग प्रभावित हुए हैं. लेकिन, बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ और व्यवसाय में पहले से ज्यादा वृद्धि हुई है. दुनिया के मुट्ठी भर अरबपतियों के पास ही इन कंपनियों का स्वामित्व है. पिछले 30 वर्षों के इतिहास में, भूमंडलीकरण के इस युग में, सबसे ज्यादा लाभ इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हुआ है.

चीन ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में प्रवेश के बाद नियमों को धत्ता दिखाते हुए दुनियाभर में अपना माल डंप करना शुरू कर दिया. नतीजन अमेरिका, यूरोप, भारत समेत अनेक देशों के घरेलू उद्योग दम तोड़ने लगे और उनका चीन के साथ व्यापार घाटा लगातार बढ़ने लगा. भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 2000-01 में 0.2 अरब डॉलर से बढ़ता हुआ 2017-18 तक 63 अरब डॉलर यानी 315 गुना बढ़ गया. भारत हर जरूरी या गैर जरूरी वस्तुओं के लिए चीन पर निर्भर हो गया.

नरेंद्र मोदी द्वारा 2014 में सत्ता संभालने के बाद ‘मेक इन इंडिया’ का नारा आया, कुछ प्रयास भी हुए, लेकिन चीन से आयात बदस्तूर जारी रहा. यह सही है कि कई चीनी और अन्य विदेशी कंपनियों ने मेक इन इंडिया के तहत भारत में उत्पादन केंद्र शुरू किये, जिसके कारण व्यापार घाटा थोड़ा कम हुआ, लेकिन मार्च, 2020 में महामारी के बाद देश को चीन पर अत्यधिक निर्भरता की गलती का एहसास पूरी तरह हो गया. यह भी सही है कि चार-पांच वर्ष पहले से ही चीन की विस्तारवादी नीति और सीमाओं के अतिक्रमण के कारण देश की जनता ने चीनी वस्तुओं का बहिष्कार शुरू कर दिया था. सरकारी प्रयासों और जनता के आक्रोश के बावजूद चीन से व्यापार घाटा 2019-20 तक मात्र 48 अरब डालर तक ही घट सका.

फिर पिछले साल कोरोना ने नीति निर्माताओं की आंखें खोल दी. जरूरी मेडिकल उपकरणों की कमी ने तो देश को झकझोर दिया था. ऐसे में पूरे देश की एक आवाज थी कि देश को आत्मनिर्भर बनाने की जरूरत है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आह्वान किया कि हमारा लक्ष्य आत्मनिर्भरता का है और उसके लिए सभी को जुटना होगा. गांवों की आत्मनिर्भरता की बात होने लगी है.

इसके लिए वहां सामान्य खेती के अलावा मुर्गीपालन, पशुपालन, डेयरी, मशरूम उत्पादन, बांस उत्पादन, मछली पालन, बागवानी, खाद्य प्रसंस्करण, ग्रामीण उद्योग, हस्तकला हथकरघा समेत सभी प्रकार के उपायों व योजनाओं पर विचार होने लगा है. उसका परिणाम यह है कि आज हम चिकित्सा साजो-सामान का देश में ही उत्पादन करने लगे हैं तथा विभिन्न देशों में उनकी आपूर्ति भी कर रहे हैं.

आज वक्त है कि हम विचार करें कि क्या हुआ है कि चीनी सामान की डंपिंग के कारण हमारे औद्योगिक विकास पर विराम लग गया. क्यों जब भारत के उद्योग चीनी सामानों के आक्रमण के कारण दम तोड़ रहे थे, तो उस समय की सरकार आयात शुल्क में कटौती करती जा रही थी? क्यों हमारे अर्थशास्त्री उपभोक्ता को सस्ता सामान मिलने के नाम पर आंखें मूंदकर अपने उद्योगों के नष्ट होने का तमाशा देख रहे थे? आज महामारी ने हमारी आंखें खोल दी हैं कि कैसे महामारी के पहले चरण में चीन ने नकली टेस्टिंग किट भेजकर हमारी मुश्किलों को बढ़ाया, सामानों की कीमत बढ़ा दी, कच्चे माल की कीमतें कई गुना बढ़ाकर हमारे दवा उद्योग पर चोट की.

यही चीन नकली वैक्सीन भेजकर दुनिया का मजाक उड़ा रहा है. अमेरिकी सरकार का वैक्सीन पर रोक लगाने और पहले वैक्सीन के कच्चे माल को भी रोकने का निर्णय इसी प्रकार हमारे आत्मनिर्भरता के संकल्प को मजबूत रहा है. लगता है सरकार ने भी कमर कस ली है. वर्ष 2021-22 के बजट में अगले कुछ सालों में 1.97 लाख करोड़ रुपये का प्रोडक्शनलिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआइ) की घोषणा इसी संकल्प की ओर इंगित करती है. देश की अर्थव्यवस्था, रोजगार और अस्मिता बचाने का शायद आत्मनिर्भरता यानी ‘स्वदेशी’ ही एक सही रास्ता है.

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