क्या नीतीश कुमार दोल्हा-पाती खेल रहे है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय गांवों का एक खेल है, दोल्हा-पाती। इसमें खिलाड़ी अपने को बचाने के लिए लगातार एक डाल से दूसरी डाल पर फांदते-कूदते रहते हैं। इस तरह वे खुद को खेल के नियम के अनुसार बचाने की कोशिश करते रहते हैं। वैसे तो यह खेल भारत के तकरीबन हर इलाके के गांवों में प्रचलित है।

लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में यह खेल कुछ ज्यादा ही प्रचलित रहा है। शायद यही वजह है कि बिहार की नौंवी बार कमान संभाल चुके नीतीश कुमार को लेकर दोल्हा-पाती के खिलाड़ी जैसी अवधारणा बन गई है। करीब एक दशक में जिस तरह चार बार नीतीश कुमार ने गठबंधन बदला, अपने साथी बदले, वह कूद-फांद का ही रूप है।

दिलचस्प है कि नैतिकता और मर्यादा की सबसे ज्यादा दुहाई राजनीति देती है, लेकिन नैतिकताओं और मर्यादाओं का भंजन सबसे ज्यादा राजनीति ही करती है। नीतीश, राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय जनता पार्टी, कम से कम बिहार के संदर्भ में तीनों ही इसी प्रवृत्ति के उदाहरण बनकर सामने आए हैं।

2013 में जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया था, नीतीश कुमार ने उन्हें सांप्रदायिक करार देते हुए उस आठ साल से जिस पार्टी के साथ सत्ता चला रहे थे, उस भाजपा का दामन छोड़ दिया था। इसके पहले भी वे नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी सोच को जाहिर कर चुके थे। साल 2008 में जब कोसी नदी ने समंदर का रूप धर लिया था, तब गुजरात से बिहार पहुंची राहत की खेप को नीतीश ने बैरंग वापस करा दिया था। क्योंकि उस वक्त उनकी नजर में सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

2013 में नीतीश कुमार ने उस लालू का दामन थाम लिया, जिनके विरोध में उन्होंने 1994 में जनता दल छोड़कर जार्ज फर्नांडिस की अगुआई में समता पार्टी बनाई थी। भाजपा के साथ 1996 में समता पार्टी ने जो गठबंधन किया, उसका नतीजा ही रहा कि 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश की अगुआई में लालू यादव की लगभग अजेय समझी जाने वाली सत्ता को उखाड़ फेंका गया। तब नीतीश ने नया इतिहास रचा, लेकिन इसमें सहयोग बीजेपी का भी रहा।

नीतीश-भाजपा की सरकार ने 2006-2010 के दौरान बिहार की कार्यशैली बदली, कानून-व्यवस्था को बेहतर किया और कई कीर्तिमान रचे। इसका असर यह हुआ कि 2010 के विधानसभा चुनावों में लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल की चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी पराजय हुई। ऐसा माना जाने लगा कि लालू यादव की पार्टी अब खत्म हो जाएगी। लेकिन नीतीश कुमार ने 2013 में पलटी मारी और इसके बाद 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनता दल को जैसे जीवनदान मिल गया।

लेकिन नीतीश को लालू का यह साथ ज्यादा दिन रास नहीं आया। हालांकि इस बीच बिहार के जीन को लेकर नीतीश कुमार ने ऐसा अभियान चलाया कि बोरे में भरकर बिहार के लोग अपने बाल नरेंद्र मोदी के पते पर भेजते रहे। तब बिहारी लोगों का बाल उनकी शुद्ध बिहारी जीन का प्रतीक था।

लालू बेशक नीतीश के सहयोगी बने, लेकिन वे 1994 की दगाबाजी नहीं भूले। धीरे-धीरे शासन में लालू परिवार का दबदबा बढ़ा तो नीतीश ने 2017 में फिर बीजेपी का साथ ले लिया। इसका उन्हें 2019 के आम चुनावों में फायदा भी हुआ। उनके 16 सांसद चुने गए। बीजेपी को अपनी पुराने 22 सांसदों में से कुछ के टिकट काट कर उनकी सीट जनता दल यू को देनी पड़ी। इसी गठबंधन ने 2020 का विधानसभा चुनाव भी लड़ा।

इस चुनाव में लोकजनशक्ति-रामविलास गुट के नेता चिराग ने सिर्फ जनता दल यू की सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे और 2005 के बाद पहली बार नीतीश की पार्टी को सबसे कम यानी 5 सीटें मिलीं। नीतीश ने इसे बीजेपी का खेल माना और 10 अगस्त 2022 को बीजेपी का साथ छोड़ उस आरजेडी का दामन थाम लिया, जिसके नेता तेजस्वी यादव ने उन्हें पलटू चाचा की उपाधि दी थी। बिहार में 28 जनवरी

2024 को नीतीश ने फिर पाला बदल लिया और उनके लिए सारे दरवाजे बंद करने का बार-बार दावा करने वाली बीजेपी ने बदले हालात में उनके लिए दरवाजे खोल दिए। नीतीश भी अपना वह बयान भूल गए कि मर जाएंगे, लेकिन बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे। इसके बाद नीतीश कुमार की छवि पलटू बाबा के रूप में स्थायी हो गई।

राजनीति दरअसल समूचा शीर्ष नेतृत्व का खेल है। दिलचस्प यह है कि शीर्ष नेतृत्व सारे कदम अपने कार्यकर्ताओं और आम लोगों की भावनाओं के नाम पर उठाती है। जब भी कोई गठबंधन टूटता है तो घटक दलों के नेता और कार्यकर्ता पुराने साथी को दुश्मन मानकर उसके खिलाफ दुश्मनी की हद तक हमलावर हो जाते हैं।

लेकिन जैसे ही फिर वही दल साथ आ जाते हैं तो जमीनी स्तर पर दुश्मनी निभाने वालों के सामने खीस निपोरने और ठगा महसूस करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। बिहार में भी यही हो रहा है। भाजपा के कार्यकर्ताओं को नहीं सूझ रहा कि वे अब उस नीतीश को कैसे पचाएं, जिन्होंने उन्हें अछूत बताया, उनके नेताओं को विधानसभा में खरी-खोटी सुनाई। विधानसभा अध्यक्ष का आसन सदन में सबसे ऊंचा होता है।

लेकिन नीतीश ने उस आसन पर बैठे विजय सिन्हा को भी नहीं छोड़ा था। सदन में महिलाओं को लेकर उन्होंने अभी कुछ ही महीने पहले तकरीबन अश्लीलता की हद तक का बयान दिया था। तब भाजपा की एक विधायक फूट-फूटकर रो पड़ी थीं। बदले हालात में उनकी स्थिति का अनुमान ही लगाया जा सकता है। जनता दल यू के एक वरिष्ठ नेता ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि उनका अपना कोर वोटर, जिसमें नीतीश की अपनी कुर्मी जाति के भी लोग हैं, अब गाली देने लगे हैं। उनके सामने भी नीतीश की लानत-मलामत की गई। लोगों का कहना है कि क्या बिहार के राजनीतिक दलों और नेताओं की आंखों में पानी नहीं रह गया है?

बिहार के बदले राजनीतिक गठबंधन की नई सरकार को बिहार के हित में बताया जा रहा है। इससे बीजेपी खुद को बेहतर स्थिति में पा रही है। राष्ट्रीय जनता दल खुद को ठगा महसूस कर रहा है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में दो चीजें कम से कम फौरी तौर पर साफ हुई हैं। नीतीश का प्रभामंडल कमजोर हुआ है, वहीं लालू की विरासत पर चलने वाले तेजस्वी का कद बढ़ा है। सरकार टूटने के बाद तेजस्वी ने काफी परिपक्वता का परिचय दिया।

इसके चलते बिहार में एक वर्ग ऐसा दिख रहा है, जिसे तेजस्वी से सहानुभूति हो रही है। इसका संकेत साफ है। अगर तेजस्वी का कोर वोटर अपनी आक्रामकता पर काबू रख पाया तो बिहार में आने वाले दिनों में दो ही राजनीतिक ध्रुव होंगे। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी होगी तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनता दल। माना यह जा रहा है कि नीतीश कुमार की पार्टी भविष्य के चुनावों छीजती चली

जाएगी। शायद यही वजह है कि भाजपा से अलगाव के बाद जनता दल यू के जिन नेताओं ने नरेंद्र मोदी, केंद्र सरकार और भाजपा नेताओं की कटु आलोचनाएं की थीं, वे अब भाजपा शरणं गच्छामि की मुद्रा में आते नजर आ रहे हैं।

बिहार में बदले राजनीतिक समीकरण का असर आगामी लोकसभा चुनाव में भी दिखेगा, इसका फायदा एनडीए गठबंधन को मिलना तय माना जा रहा है। इसकी वजह यह है कि अभी देश में दो लहर चल रही है, मोदी लहर और राम लहर। इसका असर चुनावों पर दिखेगा। लेकिन यह भी तय है कि उसके बाद होने वाले चुनावों में जनता दल यू को नीतीश की पलटबाजी की कीमत चुकानी पड़ेगी। जाहिर है कि उसका फायदा भाजपा और आरजेडी को ही मिलेगा। कह सकते हैं कि बदले राजनीतिक समीकरणों की वजह से बिहार में नई राजनीति दिखेगी।

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