क्या टीबी हमारे लिए खामोश महामारी है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

विश्व क्षय दिवस 24 मार्च के मौके पर भारत में मिश्रित भावनाएं प्रकट होंगी. आशा है कि कोविड महामारी अब खत्म हो रही है, लेकिन हम दूसरे संक्रमणों को कैसे देख रहे हैं, जो खामोशी से निरंतर साल-दर-साल लाखों भारतीयों के जीवन में कहर बरपा रहे हैं? टीबी हमारे लिए खामोश महामारी है, जो खबरों से दूर है, वह बढ़ रही है.

महामारी के शुरुआती महीनों में कोविड काफी चर्चा में रहा, जिससे ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) के नये संक्रमण और बढ़ता कुपोषण नजरअंदाज कर दिये गये.

दोनों ही टीबी के खतरे के बढ़ते बोझ से जुड़े हैं. स्वास्थ्य सेवाओं में कमी और बढ़ते कुपोषण से आनेवाले वर्षों में अनुमान है कि टीबी से एक लाख अतिरिक्त मौतें होंगी. टीबी भारत में एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की टीबी रिपोर्ट-2021 के मुताबिक लगभग 18 लाख लोग टीबी संक्रमित हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 2020 में टीबी से भारत में चार लाख मौतें हुई हैं. विश्वभर में टीबी के कुल नये मामलों में 26 प्रतिशत और मौतों में 34 प्रतिशत भारत से हैं.

ग्रामीण भारत के बड़े हिस्से में टीबी संक्रमित मरीज होते हैं, लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केंद्र स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम हैं. पीएचसी में पर्याप्त कर्मचारी नहीं है और अनेक केंद्रों के पास आवश्यक उपचार क्षमता नहीं है. हालांकि, पीएचसी विश्वास बहाल करें, तो वे बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. जरूरी है कि मरीजों की बेहतर देखभाल यानी संपूर्ण जांच व उनके साथ सम्मानजनक बर्ताव हो.

भारत सरकार के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, दो या अधिक हफ्तों तक कफ रहने पर टीबी जांच कराना होता है. दशकों से यह निर्देश सावधान करता रहा है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. स्वस्थ दिखनेवाले मरीजों की बलगम जांच में टीबी की पुष्टि हो जाती है. टीबी के लक्षण नहीं दिखने या स्वस्थ दिखने की वजह से मरीज को जांच कराने से मना कर दिया जाता है.

ऐसे मरीज घर चले जाते हैं और कुछ हफ्तों या महीनों बाद वे गंभीर बीमारी के साथ लौटते हैं. अत: स्वस्थ दिखनेवाले मरीजों की टीबी जांच के लिए भी दिशा-निर्देश हों. टीबी के निदान में बड़ी बाधा चेस्ट रेडियोग्राफी, बलगम जांच और कार्टिरिज-बेस्ड न्यूक्लिक एसिड एंप्लीफिकेशन टेस्ट (सीबीएनएएटी) की उपलब्धता है.

संभावित टीबी संक्रमित खुद की जांच कराने के लिए अधिक पैसा और समय खर्च करते हैं. कई प्राइवेट डॉक्टर आवश्यक टेस्ट के बिना ही इलाज शुरू कर देते हैं और सरकारी डॉक्टर बीमारी के प्रबंधन को नजरअंदाज कर देते हैं. मरीज कष्ट झेलता है और इससे दूसरों तक संक्रमण फैलता है. जांच-उपचार व्यवस्था, विशेष कर एक्स-रे मशीनों, बलगम की माइक्रोस्कोपिक टेस्टिंग और सीबीएनएएटी मशीनों को बढ़ाना होगा. हमें यह सुनिश्चित करना है कि आसपास एक्स-रे मशीन और कम लागत में जांच उपलब्ध हो.

बीते दशक में टीबी और दवा प्रतिरोध चिह्नित करना आसान हुआ है, लेकिन बलगम नमूने एकत्र करने की प्रक्रिया में बदलाव नहीं आया है. यह जिम्मेदारी मरीज पर होती है, जिसे पीएचसी तक पहुंचने के लिए कुछ किलोमीटर का सफर करना पड़ता है. सीएचसी या जिला अस्पताल या सीबीएनएएटी जांच के लिए मरीज को 50 किमी से अधिक की दूरी तय करनी पड़ जाती है.

कई बार तो यह कहते हुए जांच से इनकार कर दिया जाता है कि फलां दिन के लिए पर्याप्त नमूने हो गये हैं या टेक्नीशियन उपलब्ध नहीं हैं या कार्टिरिज पूरी हो गयी है या मशीन उपलब्ध नहीं है. कोविड काल में यह समस्या और गंभीर हो गयी. इससे अनेक मरीज जांच कराने से वंचित रह गये.

इसका आसान उपाय है कि नमूनों को स्वत: भेजा जाए, यानी मरीज पीएचसी में बलगम नमूने को जमा कराएं और पीएचसी स्टाफ उसे जांच केंद्रों पर भेजें. इससे बीमारी की जांच और रोकथाम में सुधार होगा. टीबी संक्रामक के साथ-साथ सामाजिक बीमारी भी है. यह सीधे तौर पर जीवनयापन, पोषण, लिंग, जीवन संस्कृति से जुड़ी है. टीबी का संबंध असंगठित कार्यों और प्रवासी मजदूरी से भी है.

दक्षिणी राजस्थान में जहां हम फिजिशियन के रूप में कार्यरत हैं, वहां वर्षा और खाद्यान्न की कमी है. यहां बच्चों और वयस्कों में कुपोषण अधिक है. अनेक युवा रोजगार के लिए शहरों का रुख करते हैं. कम पोषण स्तर, जोखिम भरा कार्य, जैसे-पत्थर कटाई, खनन, और भीड़भाड़ में आवास जैसी वजहों से कामगारों में टीबी का जोखिम रहता है. एक के संक्रमित होने से पूरा परिवार संक्रमित हो सकता है. इससे कार्यक्षमता प्रभावित होती है और बीमारी बढ़ती है और अंतत: मौत हो जाती है.

टीबी कार्यक्रम की पोषण योजना में पोषण हेतु आर्थिक मदद दे जाती है. हालांकि, संतुलित भोजन के लिए यह राशि अपर्याप्त है. पोषणयुक्त भोजन के लिए कैश ट्रांसफर, पीडीएस के माध्यम से पोषक खाद्यान्न देने के साथ-साथ खेती और मुर्गीपालन को बढ़ावा देने की जरूरत है.

कार्यस्थलों की स्वच्छता जरूरी है, ताकि फेफड़े का संक्रमण या सिलिकोसिस न हो. बीते दशक में टीबी के राष्ट्रीय कार्यक्रम में कई पहल हुई है, नयी जांच, पोषण के लिए कैश ट्रांसफर और नवीनतम दवाओं से इलाज की अवधि में कमी आयी है. हालांकि, कार्यक्रम को बुनियादी तौर मजबूत बनाना होगा. ध्यान रखना चाहिए कि आज भी औसतन रोजाना 1200 लोगों की टीबी से मौत होती है.

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