प्रत्येक त्योहार में तर्कसंगति और आधुनिकता ढूंढ़ना मूर्खता है,कैसे?

प्रत्येक त्योहार में तर्कसंगति और आधुनिकता ढूंढ़ना मूर्खता है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पिछले कई वर्षों से कोई भी हिंदू उत्सव उदारवादियों की झिड़की, महानुभावों के ज्ञान और न्यायिक दखलअंदाजी के बिना संपन्न नहीं हो पाया है। उनकी नजर में यदि करवा चौथ और रक्षाबंधन पितृसत्तात्मक व्यवस्था का रूप हैं तो होली पानी की बर्बादी। इसी तरह इस वर्ग की नजर में जल्लीकट्टू पशुओं से क्रूरता है तो गणोश चतुर्थी पर्यावरण पर आघात। मकर संक्रांति हो या दुर्गा पूजा, जन्माष्टमी हो या शिवरात्रि, इनके लिए हर त्योहार हिंदुओं में लज्जा भाव उत्पन्न करने का अवसर है।

हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार होने के कारण दीपावली विशेष रूप से निशाने पर रहती है। अन्य वर्षों की तरह कहीं शासनादेश तो कहीं न्यायिक आदेशों के द्वारा पटाखे प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। साथ ही खिलाड़ियों, अभिनेताओं और तमाम विज्ञापनों के माध्यम से दीपावली जिम्मेदारी से मनाने के संदेशों का तांता लगा है। इन संदेशों का निहित अर्थ यह है कि हिंदू समाज अपने उत्सवों को लेकर गैर जिम्मेदार और अपरिपक्व है।

निरंतर प्रचार के द्वारा दीपावली को प्रदूषण से इस प्रकार जोड़ दिया गया है, मानो वर्ष भर के प्रदूषण का कारण केवल दीपावली के पटाखे हों। यह सोच कितनी निमरूल है, इसे आइआइटी कानपुर ने 2016 में अपने शोध द्वारा प्रमाणित किया था। इस शोध में दिवाली के पटाखों को दिल्ली के प्रदूषण के शीर्ष 15 कारकों में भी जगह नहीं मिली थी।

इसी प्रकार एनजीटी और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्टों में भी दिल्ली के प्रदूषण में दीपावली के पटाखों का कोई प्रमुख योगदान होने की बात नहीं आई थी, परंतु चाहे सरकारें हों या पर्यावरणविद् या फिर एनजीओ और न्यायालय, प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए मात्र दीपावली के पटाखों पर रोक लगा कर सबने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली है। सड़कों की धूल, वाहनों का धुआं, इमारती निर्माण से जनित गर्द, औद्योगिक इकाइयों, कचरा तथा पराली जलाने से उत्पन्न धुआं, कोयला और फ्लाई एश वह मूल समस्या है,

जो दिल्ली में साल भर प्रदूषण का कारण बनती है, परंतु दिवाली के पटाखों के अतिरिक्त इन कारकों पर किसी की चिंता नहीं दिखाई देती। पटाखों पर दुष्प्रचार का प्रभाव ऐसा है कि न्यायालय ने सबसे सुरक्षित माने जाने वाले उस आक्सीकारक बेरियम नाइट्रेट को प्रतिबंधित किया है, जो सब्जियों में भी पाया जाता है। डब्ल्यूएचओ मानकों के अनुसार भी 700 माइक्रोग्राम बेरियम नाइट्रेट अनुमेय है और यह किसी भी देश में प्रतिबंधित नहीं है।

जाहिर है पटाखों जनित प्रदूषण असल चिंता नहीं है, बल्कि उनका हिंदू त्योहारों में दखल और हिंदू समाज में अपराध बोध भरने के लिए उपयोग हो रहा है। जब ऐसे अभिनेता पटाखे न जलाने की अपील करते हैं, जो स्वयं आतिशबाजी करते या उसका आनंद लेते दिख जाते हैं तो इन अभियानों की वास्तविकता पता चल जाती है। न्यायिक और शासकीय हस्तक्षेप इसलिए भी आपत्तिजनक है, क्योंकि यह सिर्फ हिंदू उत्सवों में ही देखने को मिलता है।

जो शासन सड़कों पर नमाज या लाउडस्पीकर पर अजान रोकने में अक्षम रहा है, उसने हिंदुओं के सबसे बड़े त्योहार का उल्लास कुचल दिया है। कभी ‘आवश्यक धार्मिक आचरण’ तो कभी ‘धर्म के मूल सूत्र’ जैसे न्यायिक सिद्धांतों का हवाला देकर अन्य मजहबी विवादों में हस्तक्षेप से इन्कार करने वाले न्यायालय हिंदू त्योहारों में न सिर्फ दही हांडी की ऊंचाई तय कर देते हैं, बल्कि भगवान अय्यप्पा के मूल नैष्टिक ब्रह्मचर्य व्रत को तोड़ने का फरमान भी दे देते हैं। न्यायपालिका के साथ-साथ एक्टिविस्ट, एनजीओ वर्ग की चिंता भी हिंदू त्योहारों पर ही व्यक्त होती है।

टीवी स्टूडियो से लेकर विद्यालयों तक दीपावली नसीहतों का त्योहार बन गया है। तुलनात्मक रूप से अपने सामाजिक जीवन में बेहद लचीले हिंदुओं से अपेक्षा रहती है कि वे पर्वो पर भी आज्ञाकारी बच्चों जैसा आचरण कर दोगले उदारवाद की कसौटी पर खरे उतरते रहें।

यहां यह समझना आवश्यक है कि त्योहारों का हमारे सामाजिक जीवन में अर्थ क्या है? बर्ट्रेंड रसल ने इसे बहुत खूबसूरती से व्यक्त किया है। रसल के अनुसार, सभ्यता के क्रमविकास में मानव ने बहुत सी पाशविक प्रवृत्तियों को दबाया है, परंतु साथ ही इस प्रक्रिया ने शिष्टता के ऐसे मानक गढ़े हैं, जिसमें मूल मानवीय प्रकृति के सीधे-साधे मुक्त आचरण को भी दबाया गया है। पर्व और त्योहार हमें बिना शर्मिदा हुए अपने सरल, स्वच्छंद मूल प्राकृतिक आचरण को सीमित समय के लिए ही सही, पर वापस जीने का अवसर देते हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति आफिस से निकल कर बाजार में नृत्य करना शुरू कर दे तो वह अटपटा लगेगा, परंतु त्योहार के उल्लास में समूह के साथ वही नृत्य सहज ही नहीं, अच्छा भी लगता है।

त्योहार हमारे जीवन की नीरसता को तोड़ते हैं। उनके हर पहलू में तर्कसंगति और आधुनिकता के तौर तरीके ढूंढ़ना मूर्खता है, क्योंकि यह नियमित न होकर क्षणिक आचरण है। सभी परिपक्व समाज इस बात को भली-भांति समझते हैं। इसीलिए पश्चिम में टौमैटीनो जैसे आयोजन भी होते हैं और चुनिंदा मौकों पर जमकर आतिशबाजी भी। वहां शासन तंत्र भी समझता है कि प्रदूषण पर नियंत्रण वह चुनौती है, जिससे साल भर जूझकर ऐसा वातावरण दिया जाए, जिसमें लोग आतिशबाजी जैसे आयोजनों का आनंद ले सकें।

भारतीय शासन तंत्र को भी चाहिए कि यदि दिल्ली जैसे शहरों में प्रदूषण बड़ी समस्या बना है तो उसके स्थायी समाधान खोजें। निश्चित ही ध्वनि मानकों का ध्यान रखा जाए, परंतु पटाखों के साथ हर प्रकार के ध्वनि प्रदूषण पर कार्रवाई हो। पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध वह तुगलकी फरमान है, जो न केवल सांस्कृतिक आघात है, बल्कि एक बड़े वर्ग को रोजगार से वंचित भी करता है।

2018 तक शिवकाशी के करीब आठ लाख पटाखा उद्योग कारीगरों का रोजगार छिन चुका था। यह संख्या पिछले तीन वर्ष में और भी बढ़ गई है। पिछले वर्ष 6,000 करोड़ रुपये के कारोबार के मुकाबले इस वर्ष शिवकाशी पटाखा उद्योग का कुल कारोबार 3,000 करोड़ रुपये पर सिमटने का अनुमान है। शासन में बैठे लोगों को चाहिए कि पटाखों पर व्यावहारिक और संवेदनशील रवैया अपनाएं। साथ ही वर्ष में एक बार आने वाले हिंदू तीज-त्योहारों को त्योहार ही रहने दें, उन्हें शैक्षणिक प्रयोजन न बनाएं।

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